________________ [व्यवहारसूत्र 29. बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया बहवे आपरिय-उवझाया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-प्रागाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, असुई, पावजीवी जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 23. बहुश्रुत, बहुअागमज्ञ भिक्षु अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 24. बहुश्रुत, बहुअागमज्ञ गणावच्छेदक अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 25. बहुश्रुत, बहुप्रागमज्ञ प्राचार्य या उपाध्याय अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 26. बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ अनेक भिक्षु अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोलें या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 27. बहुश्रुत, बहनागमज्ञ अनेक गणावच्छेदक अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर भी यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोलें या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 28. बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ अनेक आचार्य उपाध्याय अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 29. बहुश्रुत, बहुअागमज्ञ अनेक भिक्ष, अनेक गणावच्छेदक या अनेक प्राचार्य उपाध्याय अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोलें या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। विवेचन-इन सूत्रों में बहुश्रुत बहुमागमज्ञ भिक्षु को प्राचार्य आदि पद न देने के प्रायश्चित्त का विधान है। अतः अल्पज्ञ अल्पश्रुत भिक्षुत्रों के लिए इस प्रायश्चित्त का विधान नहीं है, क्योंकि वे जिनाज्ञा एवं संयममार्ग के उत्सर्ग-अपवाद रूप प्राचरणों एवं सिद्धान्तों के पूर्ण ज्ञाता नहीं होते हैं / अतः वे अव्यक्त या अपरिपक्व होने से पदवियों के अयोग्य ही होते हैं तथा उनके द्वारा इन सूत्रों में कहे गये दोषों का सेवन करना सम्भव भी नहीं है / कदाचित् वे ऐसा कोई अांशिक दोष सेवन कर भी लें तो उनकी शुद्धि निशीथसूत्रोक्त तप प्रायश्चित्तों से ही हो जाती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org