________________ तीसरा उद्देशक] [335 आचार्य उपाध्याय आदि सभी पदवीधर भिक्षु तो नियमतः बहुश्रुत बहुआगमज्ञ होते हैं फिर भी उनके लिए इन शब्दों का प्रयोग केवल स्वरूपदर्शक है अथवा लिपिप्रमाद से हो जाना सम्भव है। जैसे कि पहले उद्देशक में पालोचनासत्र में प्राचार्य उपाध्याय के यह विशेषण नहीं हैं अन्य भिक्षों के लिए यह विशेषण लगाये गये हैं तथापि वहां कई प्रतियों में इन विशेषण सम्बन्धी लिपिप्रमाद हुया है। विशेषणयुक्त इन सूत्रों का तात्पर्य यह है कि बहुश्रुत भिक्षु जिनशासन के जिम्मेदार व्यक्ति होते हैं। इनके द्वारा बड़े दोषों का सेवन जिनशासन को अत्यधिक अवहेलना का कारण होने से उनकी भूल अक्षम्य होती है। जिससे उन्हें प्रायश्चित्त रूप में जीवन भर के लिए धर्मशासन के पद से मुक्त रखने का विधान किया गया है। अतः इन सूत्रों में कहे गये आचरणों को करने वाले बहुश्रुत भिक्षु आदि को जीवन भर प्राचार्य यावत् गणप्रमुख बनकर विचरण करने का कोई अधिकार नहीं रहता है। __ सूत्र में 'बहुत बार' और 'बहु आगाढ कारण' इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है / अतः एक बार उक्त आचरण करने पर यह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है, किन्तु उसे केवल तप प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। बह ग्रागाढ अर्थात अनेक प्रबल कारणों के बिना ही यदि उक्त भिक्ष इन दोषों का सेवन करे तो उसे दीक्षाछेद रूप प्रायश्चित्त पाता है। सारांश यह है कि अनेक बार दोष सेवन करने पर और अनेक आगाढ कारण होने पर ही यह प्रायश्चित्त समझना चाहिए। पूर्व के दस सूत्रों में भी प्राचार्य आदि पदवी के सम्बन्ध में प्रायश्चित्तरूप विधि-निषेध किये गये हैं और इन सात सूत्रों में भी यही वर्णन है / अन्तर यह है कि वहां ब्रह्मचर्यभंग या वेष त्यागने की अपेक्षा से वर्णन है और यहां प्रथम, द्वितीय या पंचम महाव्रत सम्बन्धी दोषों की अपेक्षा वर्णन है। अर्थात् जो भिक्षु झूठ, कपट, प्रपंच दूसरों के साथ धोखा, असत्य दोषारोपण आदि आचरणों का अनेक बार सेवन करता है या तन्त्र, मन्त्र आदि से किसी को कष्ट देता है अथवा विद्या, मन्त्र, ज्योतिष, वैद्यककर्म आदि का प्ररूपण करता है, ऐसे भिक्षु को सूत्र में "पापजीवी' कहा है। वह कलुषित चित्त और कुशील प्राचार के कारण सभी प्रकार की प्रमुखता या पदवी के सर्वथा अयोग्य हो जाता है। यहां सात सूत्रों द्वारा प्रायश्चित्तविधान करने का यह प्राशय है कि एक भिक्षु हो या अनेक अथवा एक पदवीधर हो या अनेक, ये मिलकर भी सूत्रोक्त दोष सेवन करें तो वे सभी प्रायश्चित्त के भागी होते हैं / आगाढ कारणों की जानकारी के लिए भाष्य का अध्ययन करें। सूत्र 1-2 तीसरे उद्देशक का सारांश बुद्धिमान, विचक्षण, तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला और प्राचारांग निशीथसत्र को अर्थ सहित कंठस्थ धारण करने वाला ऐसा "भाव पलिच्छन्न" भिक्षु प्रमुख बनकर विचरण कर सकता है, किन्तु गच्छप्रमुख प्राचार्यादि की आज्ञा बिना विचरण करने पर वह यथायोग्य तप या छेद रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org