________________ 330] [व्यवहारसूत्र अतः उसे पद देने का एवं धारण करने का निषेध किया गया है। जिससे वह भिक्षु तीन वर्ष तक प्रमुख बन कर विचरण भी नही कर सकता है, क्योंकि सूत्र में "गणधर" बनने का निषेध किया है। "गणधर" शब्द का विशेषार्थ इसी उद्देशक के प्रथम सूत्र में देखें। जो भिक्षु मैथुनसेवन के बाद या प्रायश्चित्त से शुद्धि कर लेने के बाद सर्वथा मैथुनभाव से निवृत्त हो जाता है और तीन वर्ष पर्यन्त वह निष्कलंक जीवन व्यतीत करता है, उस भिक्षु की अपेक्षा से यह जघन्य मर्यादा है। यदि उस अवधि में भी पुनः ब्रह्मचर्य महाव्रत के अतिचार या अनाचारों का सेवन करता है, अथवा दिये गये प्रायश्चित्त से विपरीत आचरण करता है, तो यह तीन वर्ष की मर्यादा आगे बढ़ा दी जाती है और ऐसा करने से कभी जीवनपर्यन्त भी वह पद प्राप्ति के अयोग्य रह जाता है। ___ प्राचार्य, उपाध्याय या गणावच्छेदक आदि गच्छ में एवं समाज में अत्यधिक प्रतिष्ठित होते हैं तथा ये अन्य साधु-साध्वियों के लिए आदर्श रूप होते हैं। पद पर प्रतिष्ठित होने से इन पर जिनशासन का विशेष दायित्व होता है। उपलक्षण से इन तीन के अतिरिक्त प्रवर्तक, प्रवर्तिनी आदि पदों के लिए भी समझ लेना चाहिए। _इन पदवीधरों के द्वारा पद पर रहते हुए मैथुनसेवन करना अक्षम्य अपराध है। अतः बिना किसी विकल्प के जीवन भर वे किसी भी पद को धारण नहीं कर सकते। उन्हें सदा अन्य के अधीन रहकर ही विचरण करते हुए संयम पालन करना पड़ता है। यदि कोई पदवीधर यह जान ले कि 'मैं ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ हूं' और तब वह अपना असामर्थ्य प्रकट करके या सामान्य रूप से अपनी संयमपालन की अक्षमता प्रकट करके पदत्याग कर देता है और योग्य अन्य भिक्षु को पद पर नियुक्त कर देता है, उसके बाद मैथुनसेवन करता है तो उसे उक्त जीवन पर्यन्त का प्रायश्चित्त नहीं पाता है किन्तु तीन वर्ष तक पदमुक्त रहने का ही प्रायश्चित्त पाता है। सामान्य भिक्षु के मैथनसेवन की वार्ता से भी लोकापवाद एवं जिनशासन की अवहेलना होती है और उस भिक्षु की प्रतिष्ठा भी नहीं रहती है / तथापि प्राचार्य आदि पदवीधर द्वारा भैथुनसेवन की वार्ता से तो जिनशासन को अत्यधिक अवहेलना होती है एवं उस पदवीधर को भी अत्यधिक लज्जित होना पड़ता है। ___ अतः सामान्य भिक्षु या कोई पदवीधर ब्रह्मचर्य पालन करने में अपने आपको असमर्थ माने तो उन्हें प्राचा. श्रु. 1 अ. 5 उ. 4 में कही गई क्रमिक साधना करनी चाहिये या पाचा. श्रु. 1 अ. 8 उ.४ के अनुसार आचरण करना चाहिए। किन्तु संयमी जीवन में मैथुनसेवन करके स्वयं का एवं जिनशासन का अहित नहीं करना चाहिये। ___ अाचारांगसूत्र में कथित उत्कट अाराधना यदि किसी से संभव न हो एवं तीव्र मोहोदय उपशांत न हो तो भी संयमी जीवन को कलंकित करके जिनशासन की अवहेलना करना सर्वथा अनुचित है। उसकी अपेक्षा संयम त्यागकर मर्यादित गृहस्थजीवन में धर्म-आराधना करना श्रेयस्कर ऐसा भी संभव न हो तो अन्य विधि जो भाष्य में कही गई है यह गीतार्थों के जानने योग्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org