________________ तीसरा उद्देशक] [329 13. यदि कोई भिक्षु गण को छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे अर्थात् मैथुनसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या उसको धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह वेदोदय से उपश मैथुन से निवृत्त, मैथुनसेवन से ग्लानिप्राप्त और विषय-वासना-रहित हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 14. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े बिना मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या इसे धारण करना नहीं कल्पता है / 15. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 16. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़े बिना मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता 17. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। विवेचन आगमों में ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा कही गई है एवं इसका पालन भी दुष्कर कहा गया है। इनके प्रमाणस्थलों के लिये नि. उ. 6 देखें। पांच महाव्रतों में भी ब्रह्मचर्य महाव्रत प्रधान है / अतः इसके भंग होने पर यहां कठोरतम प्रायश्चित्त कहा गया है। निशीथ उ. 6-7 में इस महावत के अतिचार एवं अनाचारों का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है और यहां केवल प्राचार्य आदि पदवियां देने, न देने के रूप में प्रायश्चित्त कहे गये हैं / अर्थात मैथुनसेवो को निशोथसूत्रोक्त गुरुचौमासी प्रायश्चित्त तो आता ही है साथ ही वह तीन वर्ष या उससे अधिक वर्ष अथवा जीवन भर प्राचार्यादि पद के अयोग्य हो जाता है, यह इन सूत्रों में कहा गया है। जो भिक्षु संयमवेश में रहते हुए स्त्री के साथ एक बार या अनेक बार मैथुनसेवन कर लेता है तो वह आचार्य आदि पदों के योग्य गुणों से सम्पन्न होते हुए भी कम से कम तीन वर्ष तक पद धारण करने के अयोग्य हो जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org