________________ 302] [व्यवहारसूत्र 2. गण के कई साधु आचार्य को अपना नहीं मानते हैं। 3. दोनों के हृदय में पूर्ण आत्मीयता न होने से प्रेम या अनुशासन में वृद्धि नहीं होती है, किन्तु उपेक्षाभाव एवं अनुशासनहीनता की वृद्धि होती है / 4. परस्पर प्रात्मीयभाव न होने से स्वार्थवृत्ति एवं शिष्यलोभ से कलह आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे जिनशासन की हीलना होती है। 5. भाष्यकार ने यह भी बताया है अधिक लम्बा समय बीत जाने पर भी दोनों में परायेपन का भाव नष्ट नहीं होता है, जिससे गच्छ में भेद उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए प्रथम भंगवर्ती एकपाक्षिक भिक्षु को ही आचार्यादि पद पर अल्पकाल के लिये या जीवनपर्यंत के लिए स्थापित करना चाहिए / सूत्रगत प्रापवादिक विधान की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने सर्वप्रथम तीसरे भंग वाले अर्थात् श्रुत से एकपाक्षिक भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करने को कहा है। प्रथम एवं तृतीय भंग वाले योग्य साधु के अभाव में जब किसी को प्राचार्य आदि पद देना आवश्यक हो जाय तब क्रम से दूसरे या चौथे भंग वाले को भी पद दिया जा सकता है। क्योंकि जिस गण में अनेक साधु-साध्वियों का समुदाय हो और जिसमें नवदीक्षित, तरुण या बालवय वाले साधुसाध्वी हों, उन्हें प्राचार्य उपाध्याय या प्रवर्तिनी के बिना रहने का व्यव. उ. 3 सू. 11-12 में सर्वथा निषेध किया है। वहां यह भी बताया है कि श्रमण निर्ग्रन्थ दो पदवीधरों के अधीनस्थ ही रहते हैं और श्रमणी निर्ग्रन्थियां तीन पदवीधरों के नेतृत्व में रहती हैं। यदि परिस्थितिवश किसी भी भंग वाले अनेकपाक्षिक भिक्षु को आचार्य आदि पद दिया जाय तो वह इन गुणों से युक्त होना चाहिए 1. प्रकृति से कोमल स्वभाव वाला हो। 2. गच्छ के समस्त साधु-साध्वियां उसके प्राचार्य होने में सम्मत हों। 3. वह विनयगुण-संपन्न हो। .. ... 4. प्राचार्य साधु आदि के गृहस्थजीवन का स्वजन संबंधी हो अथवा अनेक साधु-साध्वियां उसके गृहस्थजीवन के संबंधी हों। 5. जिसने गण में अपने व्यवहार से प्रात्मीयता स्थापित कर ली हो। इत्यादि अनेक गुणों से संपन्न हो तो उस अनेकपाक्षिक भिक्षु को भी प्राचार्य प्रादि पद पर नियुक्त किया जा सकता है। जिस गण में अनेक गीतार्थ भिक्षु शिष्यादि की ऋद्धि से संपन्न हों तो एक को मूल प्राचार्य एवं उसके सदृश गुणसंपन्न एक को उपाध्याय पद पर नियुक्त करना चाहिए। उसके बाद जो शिष्यसंपदा से परिपूर्ण हो एवं प्राचार्य के लक्षणों से युक्त हो उसे भी प्राचार्य या उपाध्याय आदि पदों पर नियुक्त करना चाहिए और वैसे लक्षण युक्त न हो तो स्थविर आदि पद से विभूषित करना चाहिए। किंतु जिनके प्रभूत शिष्य न हों, उनको एक मुख्य प्राचार्य के अनुशासन में ही रहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org