________________ दूसरा उद्देशक [307 6-17 18-22 23-24 दूसरे उद्देशक का सारांश विचरण करने वाले दो या दो से अधिक भिक्षुओं द्वारा परिहारतप वहन किया जा सकता है। रुग्ण भिक्षुओं की उपेक्षा नहीं करना चाहिए या उन्हें गच्छ से नहीं निकालना चाहिए, किन्तु उनको यथोचित सेवा करनी-करवानी चाहिए। नवमे-दसवें प्रायश्चित्त प्राप्त भिक्षु को गृहस्थ-लिंग धारण करवाकर ही उपस्थापना करनी चाहिए / कदाचित् बिना गहस्थ-लिंग के भी दीक्षा देना गच्छ-प्रमुख के निर्णय पर निर्भर रहता है। आक्षेप एवं विवाद पूर्ण स्थिति में स्पष्ट प्रमाणित होने पर ही प्रायश्चित देना एवं प्रमाणित न होने पर स्वयं के दोष स्वीकार करने पर ही प्रायश्चित्त देना / जिसकी श्रुत एवं दीक्षा पर्याय एकपाक्षिक हो ऐसे भिक्षु को पद देना। परिहारतप पूर्ण होने के बाद भी कुछ दिन आहार अलग रहता है, उत्कृष्ट एक मास तक भी पाहार अलग रखा जाता है, जिससे बिना समविभाग के वह विकृति का सेवन कर सके। परिहारतप वाले को स्थविर की प्राज्ञा होने पर ही पाहार दिया जा सकता है एवं विशेष प्राज्ञा लेकर ही वह कभी विगय का सेवन कर सकता है। स्थविर की सेवा में रहा हुअा पारिहारिक भिक्षु कभी आज्ञा होने पर दोनों की गोचरी साथ में ला सकता है, किन्तु उसे साथ में नहीं खाना चाहिए / अलग अपने हाथ या पात्र में लेकर ही खाना चाहिए। 28-29 उपसंहार इस उद्देशक में - सूत्र 1-5, 26-29 18:22 23-24 25 परिहारतप वहन सम्बन्धी विधानों का, रुग्ण भिक्षुओं की अग्लानभाव से सेवा करने का, नवमे दसवें प्रायश्चित्त वाले की उपस्थापना का, विवाद की स्थिति में निर्णय करने का, एकपाक्षिक को ही प्राचार्य पद देने का, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है। // दूसरा उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org