________________ 304] [व्यवहारसूत्र कप्पह से सयंसि वा पडिग्गहंसि, सयंसि वा पलासगंसि, सयंसि वा कमण्डलंसि, सयंसि वा खुम्भगंसि, सयंसि वा पाणिसि उद्घटु-उद्धट्ट भोत्तए बा पायए बा। एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ। 26. अनेक पारिहारिक और अनेक अपारिहारिक भिक्षु यदि एक, दो, तीन, चार, पांच, छह मास पर्यन्त एक साथ रहना चाहें तो पारिहारिक भिक्षु पारिहारिक भिक्षु के साथ और अपारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर आहार कर सकते हैं, किन्तु पारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर नहीं कर सकते / वे सभी (पारिहारिक और अपारिहारिक) भिक्षु छह मास तप के और एक मास पारणे का बीतने पर एक साथ बैठकर आहार कर सकते हैं। 27. अपारिहारिक भिक्षु को पारिहारिक भिक्षु के लिए अशन यावत् स्वादिम आहार देना या निमन्त्रण करके देना नहीं कल्पता है। यदि स्थविर कहे कि- "हे आर्य ! तुम इन पारिहारिक भिक्षुओं को यह आहार दो या निमन्त्रण करके दो।" ऐसा कहने पर उसे आहार देना या निमन्त्रण करके देना कल्पता है। परिहारकल्पस्थित भिक्षु यदि लेप (घृतादि विकृति) लेना चाहे तो स्थविर की प्राज्ञा से उसे लेना कल्पता है। "हे भगवन् ! मुझे घृतादि विकृति लेने की आज्ञा प्रदान करें।" इस प्रकार स्थविर से प्राज्ञा लेने के बाद उसे घृतादि विकृति का सेवन करना कल्पता है। 28. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु अपने पात्रों को ग्रहण कर अपने लिए आहार लेने जावे और उसे जाते हुए देखकर यदि स्थविर कहे कि "हे प्रार्य ! मेरे योग्य आहार-पानी भी लेते आना, मैं भी खाऊंगा-पीऊंगा।" ऐसा कहने पर उसे स्थविर के लिए पाहार लाना कल्पता है। वहां अपारिहारिक-स्थविर को पारिहारिक भिक्षु के पात्र में प्रशन यावत् स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है। किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलासक (मात्रक) में, जलपात्र में, दोनों हाथ में या एक हाथ में ले-ले कर खाना-पीना कल्पता है / यह अपारिहारिक भिक्षु का पारिहारिक भिक्षु की अपेक्षा से प्राचार कहा गया है। 29. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु स्थविर के पात्रों को लेकर उनके लिए आहार-पानी लाने को जावे, तब स्थविर उसे कहे "हे प्रार्य ! तुम अपने लिये भी साथ में ले आना और बाद में खा लेना, पी लेना।" ऐसा कहने पर उसे स्थविर के पात्रों में अपने लिए भी आहार-पानी लाना कल्पता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org