________________ प्रथम उद्देशक] [283 "इतने मेरे दोष हैं और इतनी बार मैंने इन दोषों का सेवन किया है," इस प्रकार बोलकर अरिहन्तों और सिद्धों के समक्ष आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे। विवेचन संयमसाधना करते हुए परिस्थितिवश या प्रमादवश कभी श्रमण-धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले अकृत्यस्थान का आचरण हो जाय तो शीघ्र ही अप्रमत्तभाव से पालोचना करना संयम जीवन का आवश्यक अंग है / यह आभ्यन्तर तपरूप प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है। उत्तरा. अ. 29 में आलोचना करने का फल बताते हुए कहा है कि आलोचक अपनी आलोचना करके आत्मशल्यों को, मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले दोषों को और अनन्त संसार की वृद्धि कराने वाले कर्मों को प्रात्मा से अलग कर देता है अर्थात् उन्हें नष्ट कर देता है। आलोचना करने वाला एवं आलोचना सुनने वाला ये दोनों ही आगमोक्त गुणों से सम्पन्न होने चाहिए। ऐसा करने पर ही इच्छित आराधना सफल होती है। निशीथ उ. 20 में आलोचना से सम्बन्धित आगमोक्त अनेक विषयों की जानकारी स्थलनिर्देश सहित दी गई है, पाठक वहीं देखें। प्रस्तुत सूत्र में पालोचना किसके समक्ष करनी चाहिये, इसका एक क्रम दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जहां तक सम्भव हो इसी क्रम से पालोचना करनी चाहिए। व्युत्क्रम से करने पर भाष्य में पृ. 126 (एक सौ छब्बीस) पर गुरुचौमासी एवं लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। इसलिए आलोचना करने के इच्छुक भिक्षु को सर्वप्रथम अपने आचार्य या उपाध्याय के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि किसी कारण से आचार्य उपाध्याय का योग सम्भव न हो अर्थात् वे रुग्ण हों या दूर हों एवं स्वयं का आयु अल्प हो तो सम्मिलित आहार-व्यवहार वाले साम्भोगिक साधु के समक्ष प्रालोचना करनी चाहिए, किन्त वह सामान्य भिक्ष भी अालोचना सनने के गुणों से सुसम्पन्न एवं बहुश्रुत (छेदसूत्रों में पारंगत) तथा बहुअागमज्ञ (अनेक सूत्रों एवं अर्थ का अध्येता) होना चाहिए। उक्त योग्यतासम्पन्न सांभोगिक साधु न हो या न मिले तो असांभोगिक (सम्मिलित आहार नहीं करने वाले) बहुश्रुत आदि योग्यतासम्पन्न भिक्षु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए / वह असांभोगिक भिक्षु आचारसम्पन्न होना चाहिए। / यदि आचारसम्पन्न असांभोगिक साधु भी न मिले तो समान लिंग वाले बहुश्रुत आदि गुणों से सम्पन्न भिक्षु के पास आलोचना करनी चाहिए। यहां समान लिंग कहने का आशय यह है कि उसका प्राचार कैसा भी क्यों न हो, उसके पास भी आलोचना की जा सकती है। उक्त भिक्षु के न मिलने पर जो संयम छोड़कर श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर रहा है और बहुश्रुत आदि गुणों से सम्पन्न है तो उसके पास आलोचना की जा सकती है। यहां तक के क्रम में प्रायश्चित्त के जानकार के समक्ष आलोचना कर शुद्धि करने का कथन किया गया गया है। प्रागे के दो विकल्पों में पालोचक स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। प्रथम विकल्प में जो सम्यक रूप से जिनप्रवचन में भावित सम्यग्दृष्टि हो अथवा जो समभाव वाला, सौम्य प्रकृति वाला, समझदार व्यक्ति हो उसके पास पालोचना कर लेनी चाहिए। द्वितीय विकल्प में बताया गया है कि कभी ऐसा व्यक्ति भी न मिले तो ग्रामादि के बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org