________________ 206] [व्यवहारसूत्र प्रथम उद्देशक का सारांश सूत्र 1-14 15-18 19 20-22 23-25 एक मास से लेकर छह मास तक प्रायश्चित्तस्थान का एक बार या अनेक बार सेवन करके कोई कपटरहित आलोचना करे तो उसे उतने मास का प्रायश्चित्त आता है और कपटयुक्त अालोचना करे तो उसे एक मास अधिक का प्रायश्चित्त आता है और छह मास या उससे अधिक प्रायश्चित्त होने पर भी छह मास का ही प्रायश्चित्त प्राता है। प्रायश्चित्त वहन करते हए पूनः दोष लगाकर दो चौभंगी में से किसी भी भंग से आलोचना करे तो उसका प्रायश्चित्त देकर आरोपणा कर देनी चाहिये। पारिहारिक एवं अपारिहारिक भिक्षु को एक साथ बैठना, रहना आदि प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए एवं आवश्यक हो तो स्थविरों की आज्ञा लेकर ऐसा कर सकते हैं / पारिहारिक भिक्षु शक्ति हो तो तप वहन करते हुए सेवा में जावे और शक्ति अल्प हो तो स्थविरभगवन्त से प्राज्ञा प्राप्त करके तप छोड़कर भी जा सकता है। मार्ग में विचरण की दृष्टि से उसे कहीं जाना या ठहरना नहीं चाहिए। रोग आदि के कारण ज्यादा भी ठहर सकता है / अन्यथा सब जगह एक रात्रि ही रुक सकता है। एकलविहारी प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक या सामान्य भिक्षु पुनः गच्छ में आने की इच्छा करे तो उसे तप या छेद प्रायश्चित्त देकर गच्छ में रख लेना चाहिए। पार्श्वस्थादि पांचों यदि गच्छ में पुनः आना चाहें और उनके कुछ संयमभाव शेष रहे हों तो तप या छेद का प्रायश्चित्त देकर उन्हें गच्छ में सम्मिलित कर लेना चाहिए। किसी विशेष परिस्थिति से अन्यलिंग धारण करने वाले भिक्षु को आलोचना के अतिरिक्त कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। कोई संयम छोड़कर गृहस्थवेश स्वीकार कर ले और पुनः गच्छ में आना चाहे तो उसे नई दीक्षा के सिवाय कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। यदि किसी भिक्षु को अकृत्यस्थान की आलोचना करनी हो तो१. अपने प्राचार्य उपाध्याय के पास करे / 2. उनके अभाव में स्वगच्छ के अन्य बहुश्रुत साधु के पास आलोचना करे। 3. उनके अभाव में अन्यगच्छ के बहुश्रुत भिक्षु या प्राचार्य के पास पालोचना करे। 4. उनके अभाव में केवल वेषधारी बहुश्रुत भिक्षु के पास आलोचना करे / 5. उसके अभाव में दीक्षा छोड़े हुए बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास आलोचना करे। 6. उसके अभाव में सम्यग्दृष्टि या समभावी ज्ञानी के पास आलोचना करे एवं स्वयं प्रायश्चित्त स्वीकार करे। 26-30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org