________________ दूसरा उद्देशक] [295 कराके या गृहस्थ का वेष धारण कराए विना भी पुनः संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को कल्पता है, जिससे कि गण का हित संभव हो। विवेचन--नौवें और दसवें प्रायश्चित्त योग्य भिक्षु को जघन्य छह मास, उत्कृष्ट बारह वर्ष तक का विशिष्ट तप रूप प्रायश्चित्त दिया जाता है और उस तप के पूर्ण होने पर उसे एक बार गृहस्थ का वेष धारण करवाया जाता है / तत्पश्चात् उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है। उपर्युक्त चार सूत्रों में गृहस्थ का वेष पहनाने का विधान करके पांचवें सूत्र में अपवाद का कथन किया गया है / जिसका भाव यह है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को गृहस्थ नहीं बनाना ही उचित लगे तो गणावच्छेदक अपने निर्णयानुसार कर सकता है / अर्थात् जिस तरह करने में उसे गच्छ का या जिनशासन का अत्यधिक हित संभव हो वैसा ही कर सकता है। भाष्यकार ने गृहस्थ न बनाने के कुछ कारण ये कहे हैं१. जिसने किसी राजा को संघ के अनुकूल बनाया हो / 2. जिसे गृहस्थ न बनाने के लिए किसी राजा का आग्रह हो। 3. गण के साधुओं ने जिसे द्वेषवश असत्य आक्षेप से वह प्रायश्चित्त दिलवाया हो और वह अन्य गण के पास पुनः आलोचना करे तो। 4. उस प्रायश्चित्तप्राप्त भिक्षु या प्राचार्य के अनेक शिष्यों का आग्रह हो / 5. अपने उपकारी को कठोर प्रायश्चित्त देने के कारण उनके अनेक शिष्य संयम छोड़ने को उद्यत हों। 6. उस प्रायश्चित्त के संबंध में दो गणों में विवाद हो / इत्यादि परिस्थितियों में तथा अन्य भी ऐसे कारणों से उस भिक्षु को गृहस्थ बनाये बिना भी उपस्थापन कर देना चाहिए। अकृत्यसेवन का आक्षेप एवं उसके निर्णय करने की विधि 23. दो साहम्मिया गयओ विहरंति, एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा अहं णं भंते ! अमुगेणं साहुणा सिद्धि इमम्मि कारणम्मि पडिसेवी। से य पुच्छियव्वे "कि पडिसेवी, अपडिसेवी" ? से य वएज्जा-"पडिसेवी" परिहारपत्ते। से य वएज्जा-"नो पडिसेवी" नो परिहारपत्ते। जं से पमाणं वयइ से पमाणाम्रो घेयन्वे / प०-से किमाहु भंते ? उ०—सच्चपइन्ना ववहारा। 23. दो सार्मिक एक साथ विचरते हों, उनमें से एक साधु किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org