________________ [व्यवहारसूत्र 'हे भगवन् ! मैंने अमुक साधु के साथ अमुक कारण के होने पर दोष का सेवन किया है। (उसके इस प्रकार कहने पर) दूसरे साधु से पूछना चाहिए-- 'क्या तुम प्रतिसेवी हो या अप्रतिसेवी ?' यदि वह कहे कि 'मैं प्रतिसेवी हैं' तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। यदि वह कहे कि 'मैं प्रतिसेवी नहीं हूँ', तो वह प्रायश्चित्त का पात्र नहीं है और जो भी वह प्रमाण दे, उनसे निर्णय करना चाहिए। प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उ०-सत्य प्रतिज्ञा वाले भिक्षुषों के सत्य कथन पर व्यवहार (प्रायश्चित्त) निर्भर होता है / विवेचन यदि कोई भिक्षु विचरण करके पाएँ और अपनी आलोचना करते हुए, कोई दूसरे साधु को भी दोषसेवन करने वाला कहे तो ऐसा कहने में उस साधु का दूसरे साधु के प्रति द्वेष हो सकता है या दीक्षापर्याय में उसे किसी से छोटा बनाने का संकल्प हो सकता है। इसलिए वह असत्य आक्षेप करता है और अपने आक्षेप को सत्य सिद्ध करने के लिए वह स्वयं भी दोषी बनकर आलोचना करने का दिखावा करता है। भाष्यकार ने यह भी कहा है कि वह आलोचना करते हुए अपना और अन्य भिक्षु का मैथुनसेवन करना तक भी स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार छल करके दूसरे साधु को कलंकित करना चाहता है / ऐसी परिस्थिति में शास्त्रकार ने विवेकपूर्वक निर्णय करने के निम्न उपाय बताये हैं __आलोचना सुनने वाला गीतार्थ भिक्षु अन्य भिक्षु से जब तक पूर्ण जानकारी न कर ले तब तक उसे किसी प्रकार का निर्णय नहीं करना चाहिए। यदि पूछने पर अन्य भिक्षु दोषसेवन करना स्वीकार नहीं करे और कुछ स्पष्टीकरण करे तो उसे सावधानीपूर्वक सुनना चाहिए। तदनन्तर आक्षेप लगाने वाले से दोष-सेवन का स्थान (क्षेत्र) या उस दोष से सम्बन्धित व्यक्ति की जानकारी करना चाहिए। फिर उन दोनों के कथन एवं प्रमाणों पर पूर्ण विचार करके निर्णय करना चाहिए। कोई प्रबल प्रमाण न हो तो दोषसेवन को अस्वीकार करने वाले भिक्षु को किसी प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। आक्षेपकर्ता ने दोषसेवन किया हो या न किया हो तो असत्य आक्षेप करने पर उसे उस दोषसेवन का प्रायश्चित्त आता ही है। यदि आलोचना करने वाला सत्य कथन कर रहा हो, किन्तु अन्य भिक्षु अपना दोष स्वीकार न करे और आलोचक उसे प्रमाणित भी न कर सके, तब भी दोष अस्वीकार करने वाले को कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता। क्योंकि भिक्षु सत्य वचन की प्रतिज्ञा वाले होते हैं। अतः स्वयं के स्वीकार करने पर ही उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। प्रमाण के बिना केवल किसी के कहने से उसे प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता है / आलोचना करने वाला अपने कथन की सत्यता को प्रमाणित कर दे एवं गीतार्थ प्रायश्चित्तदाता को उन प्रमाणों को सत्यता समझ में आ जाय और उससे सम्बन्धित भिक्षु दोष को स्वीकार कर ले तभी उसे प्रायश्चित्त दिया जाता है। कदाचित् दोष प्रमाणित होने पर भी सम्बन्धित भिक्षु उसे स्वीकार न करे तो प्रायश्चित्तदाता गच्छ के अन्य गीतार्थ भिक्षुओं की सलाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org