________________ 294] [व्यवहारसूत्र यथालघुष्क प्रायश्चित्त का अर्थ ___ यथालघुष्कववहारं पंचदिनपरिमाण निर्विकृतिक कुर्वन् पूरयति / यदि वा--यथालघुष्के व्यवहारे प्रस्थापयितव्यं य प्रतिपन्नव्यवहारः तपः प्रायश्चित्त एवमेवालोचना-प्रदान-मात्रतः शुद्धः क्रियते, कारणे यतनया प्रतिसेवनात् / —टीका/भा. गा. 96 भावार्थ-लघु प्रायश्चित्त पांच दिन का होता है जो विगयों का त्याग करके पूर्ण किया जाता है। अथवा कारण से यतनापूर्वक दोष का सेवन करने पर, अत्यल्प मर्यादा भंग करने पर, परवश अवस्था में मर्यादा भंग हो जाने पर केवल आलोचना प्रायश्चित्त मात्र से उसकी शुद्धि की जा सकती है अर्थात् उसे तपरूप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है और दस प्रकार के प्रायश्चित्तों में प्रथम आलो. चना प्रायश्चित्त होने से इसे 'यथालघुष्क' अर्थात् लघु (सर्वजघन्य) प्रायश्चित्त कहा जाता है। ___इन सूत्रों में एवं आगे के सूत्रों में प्राचार्य उपाध्याय का निर्देश न करके गणावच्छेदक का निर्देश किया है / इससे यह स्पष्ट होता है कि गच्छ में सेवा एवं प्रायश्चित्त के कार्यों की प्रमुख जिम्मेदारी गणावच्छेदक की होती है / अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्षु की उपस्थापना 18. प्रणवट्ठप्पं भिक्खु अपिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए। 19. अणवठ्ठप्पं भिक्खु गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए। 20. पारंचियं भिक्खुअगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए। 21. पारंचियं भिक्खु गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए / 22. अणवठ्ठप्पं भिक्खु पारंचियं वा भिक्खु अगिहिभूयं वा गिहिभूयं वा, कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए, जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। 18. अनवस्थाप्य नामक नौवें प्रायश्चित्त के पात्र भिक्षु को गृहस्थवेष धारण कराए विना पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। 19. अनवस्थाप्यभिक्षु को गृहस्थवेष धारण कराके पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को कल्पता है। ___20. पारंचित नामक दसवें प्रायश्चित्त के पात्र भिक्षु को गृहस्थवेष धारण कराए विना पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। 21. पारंचितभिक्षु को गृहस्थवेष धारण करवाकर पुन: संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को कल्पता है। 22. अनवस्थाप्यभिक्षु को और पारंचितभिक्षु को (परिस्थितिवश) गृहस्थ का वेष धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org