________________ 284] [व्यवहारसूत्र निर्जन स्थान में उच्चस्वर से अरिहंतों या सिद्धों को स्मृति में रख कर उनके सामने आलोचना करनी चाहिए एवं स्वयं ही यथायोग्य प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेना चाहिए। अन्तिम दोनों विकल्प गीतार्थ भिक्षु के लिए समझना चाहिए क्योंकि, अगीतार्थ भिक्षु स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करने के अयोग्य होता है। भाष्यटीका में इस सूत्र के विषय में इस प्रकार कहा है सुत्तमिणं कारणियं, आयरियादीण जत्थगच्छम्मि / पंचण्हं ही असति, एगो च तहिं न वसियव्वं // टीका-सूत्रमिदमधिकृतं कारणिक, कारणे भवं कारणिकं, कारणे सत्येकाकीविहारविषयं इत्यर्थः / इयमत्र भावना--बहूनि खलु अशिवादीनि एकाकित्वकारणानि, ततः कारणवशतो यो जातः एकाकी तद्विषयमिदं सूत्रमिति न कश्चिद् दोषः। अशिवादीनि तु कारणानि मुक्त्वा आचार्यादिविरहितस्य न वर्तते वस्तु। तथा चाह-यत्र गच्छे पञ्चानामाचार्योपाध्यायगणावच्छेदिप्रवर्तिस्थधिररूपाणामसद्भावो यदि वा यत्र पञ्चानामन्यतमोप्येको न विद्यते तत्र न वसतव्यम् अनेकदोषसंभवात् / इस व्याख्यांश में सूत्रोक्त विधान को सकारण एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु की अपेक्षा होने का कहा गया है और एकाकी होने के अनेक कारण भी कहे हैं / जिसका स्पष्टीकरण सूत्र 23-25 के विवेचन में कर दिया गया है। सूत्र में प्रयुक्त आलोचना आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है आलोएज्जा-अतिचार आदि को वचन से प्रकट करे / पडिक्कमेज्जा-मिथ्या दुष्कृत दे-अपनी भूल स्वीकार करे। निदेज्जा-आत्मसाक्षी से असदाचरण की निंदा करे अर्थात् अंतर्मन में खेद करे। गरहेज्जा-गुरुसाक्षी से असदाचरण की निंदा करे, खेद प्रकट करे। विउद्देज्जा-असदाचरण से निवृत्त हो जाए। विसोहेज्जा-आत्मा को शुद्ध कर ले अर्थात् असदाचरण से पूर्ण निवृत्त हो जाए। प्रकरणयाए अन्मुट्ठज्जा-उस अकृत्यस्थान को पुनः सेवन नहीं करने के लिए दृढ संकल्प करे। प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा-उस दोष के अनुरूप तप आदि प्रायश्चित्त स्वीकार करे। आलोचना से लेकर प्रायश्चित्त स्वीकार करने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया करने पर ही अात्मविशुद्धि होती है एवं तभी आलोचना करना सार्थक होता है। सूत्र में आए ग्राम आदि 16 शब्दों की व्याख्या निशीथ उ. 4 तथा बृहत्कल्प उ. 1 में दी गई है, अतः वहां देखें। सूत्रोक्त आलोचना का क्रम इस प्रकार है 1. प्राचार्य उपाध्याय, 2. सार्मिक साम्भोगिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, 3. सार्मिक अन्य साम्भोगिक बहुश्रुत बहु-प्रागमज्ञ भिक्षु, 4. सारूपिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, 5. पश्चात्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org