________________ 282] [व्यवहारसूत्र (5) नो चेव णं सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं, जत्थेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागम, तस्संतिए आलोएज्जा जाव प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (6) नो चेव णं समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, जत्थेव सम्म भावियाई चेइयाई पासेज्जा, तस्संतिए आलोएज्जा जाव प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (7) नो चैव णं सम्म भावियाई चेइयाई पासेज्जा, बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा पाईणाभिमुहे वा उदोणाभिमुहे वा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वएज्जा "एवइया मे प्रवराहा, एवइक्खुत्तो अहं प्रवरद्धो" अरिहंताणं सिद्धाणं अन्तिए आलोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (1) भिक्षु किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन करके उसकी आलोचना करना चाहे तो जहां पर अपने आचार्य या उपाध्याय को देखे, वहां उनके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे। (2) यदि अपने आचार्य या उपाध्याय न मिलें तो जहां पर साम्भोगिक (एक मांडलिक आहार वाले) साधर्मिक साधु मिलें जो कि बहुश्रुत एवं बहुमागमज्ञ हों, उनके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे। (3) यदि साम्भोगिक सार्मिक बहुश्रुत बहुअागमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर अन्य साम्भोगिक सार्मिक साधु मिले-"जो बहुश्रुत हो और बहुआगमज्ञ हो", वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे / (4) यदि अन्य साम्भोगिक सार्मिक बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर सारूप्य साधु मिले, जो बहुश्रुत हो और बहुअागमज्ञ हो, वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करे / (5) यदि सारूप्य बहुश्रुत और बहुअागमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर पश्चात्कृत (संयमत्यागी) श्रमणोपासक मिले, जो बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ हो वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे / (6) यदि पश्चात्कृत बहुश्रुत और बहुमागमज्ञ श्रमणोपासक न मिले तो जहां पर सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष (समभावी-स्व-पर-विवेकी सम्यग्दृष्टि व्यक्ति) मिले तो वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे।। (7) यदि सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष न मिले तो ग्राम यावत् राजधानी के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो, करतल जोड़कर मस्तक के प्रावर्तन करे और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org