________________ 280] [व्यवहारसूत्र ये सभी पार्श्वस्थादि अनुकम्पा के योग्य हैं तथा सद्बुद्धि आने पर यदि ये सुविहित गण में आना चाहें तो उनकी योग्यता का निर्णय करके इन्हें गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है, यह इन सूत्रों का आशय समझना चाहिए। अन्यलिंगग्रहण के बाद गण में पुनरागमन 31. भिक्खू य गणाओ अबक्कम्म परपासंडयडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा वोच्चं पि तमेव गणं उपसंपज्जिताणं विहरित्तए, नस्थि णं तस्स तप्पत्तियं केइ छए वा परिहारे वा, नन्नत्य एगाए पालोयणाए। 31. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर किसी विशेष परिस्थिति से अन्य लिंग को धारण करके विहार करे और कारण समाप्त होने पर पुनः स्वलिंग को धारण करके गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उसे लिंगपरिवर्तन का पालोचना के अतिरिक्त दीक्षाछेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। विवेचन--यदि कोई भिक्षु कषायवश गण को छोड़कर अन्यलिंग धारण करता है एवं कालान्तर में पुनः स्वगच्छ में पाना चाहता है तो उसे दीक्षाछेद या मूल दीक्षा आदि प्रायश्चित्त देकर ही गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है / किन्तु प्रस्तुत सूत्र में जो दीक्षाछेद आदि प्रायश्चित्त का निषेध किया गया है, उसका आशय यह है असह्य उपद्रवों से उद्विग्न होकर कोई भिक्षु भावसंयम की रक्षा के लिए द्रव्यलिंग का परिवर्तन करता है अथवा किसी देश का राजा आईतधर्म से एवं निर्ग्रन्थ श्रमणों से द्वेष रखता है, उस क्षेत्र में किसी भिक्षु को जितने समय रहना हो या उस क्षेत्र को विहार करके पार करना हो, तब वह लिंगपरिवर्तन करता है। बाद में पुनः स्वलिंग को धारण कर गच्छ के साधुओं के साथ रहना चाहता है तब उसे लिंगपरिवर्तन के लिए केवल अालोचना प्रायश्चित्त के सिवाय कोई छेद या तप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। भगवती सूत्र श. 25 उ. 7 में गृहस्थलिंग एवं अन्यलिंग में छेदोपस्थापनीयचारित्र का जो कथन है, वह भी इसी अपेक्षा से है। यहां सूत्र में 'परपासंड' शब्द के साथ 'पडिम' शब्द का प्रयोग किया गया है फिर भी यह सूत्रोक्त 'भिक्षु प्रतिमा' नहीं है, किंतु शब्दप्रयोग करने की यह विशिष्ट प्रागम-शैली है, ऐसा समझना चाहिए। विशेष जानकारी के लिए सूत्र 23 का विवेचन देखें / संयम छोड़कर जाने वाले का गण में पुनरागमन 32. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तियं केई छेए वा परिहारे वा, नन्नत्थ एगाए छेनोवट्ठावणियाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org