________________ प्रथम उद्देशक] 261 32. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर संयम का त्याग कर दे और बाद में वह उसी गण को स्वीकार कर रहना चाहे तो उसके लिए केवल "छेदोपस्थापना" (नई दीक्षा) प्रायश्चित्त है, इसके अतिरिक्त उसे दीक्षाछेद या परिहार तप आदि कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। विवेचन–यदि कोई भिक्षु संयम-मर्यादाओं तथा परीषह-उपसर्गों से घबराकर इन्द्रियविषयों की अभिलाषा से अथवा कषायों के वशीभूत होकर संयम का त्याग कर देता है एवं गृहस्थलिंग धारण कर लेता है, वही कभी पुनः संयम स्वीकार करना चाहे और उसे दीक्षा देना लाभप्रद्र प्रतीत हो तो उसे पुनः दीक्षा दी जा सकती है। किन्तु उसे गच्छ एवं संयम त्यागने संबंधी प्रवृत्ति का कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है / क्योंकि पुन: नई दीक्षा देने से ही उसका पूर्ण प्रायश्चित्त हो जाता है। दशवकालिकसूत्र की प्रथम चूलिका में संयम में अस्थिर चित्त को पुनः स्थिर करने के लिए अठारह स्थानों द्वारा विस्तृत एवं हृदयद्रावक वर्णन किया गया है। अन्त में कहा गया है कि संयम में उत्पन्न यह दुःख क्षणिक है और असंख्य वर्षों के नरक के दुःखों से नगण्य है तथा संयम में रमण करने वाले के लिए वह दुःख भी महान् सुखकारी हो जाता है। इसलिए संयम में रमण करना चाहिए / इन्द्रियविषयों के सुख भी शाश्वत रहने वाले नहीं होते, किन्तु वे सुख तो दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाले ही होते हैं। अत: साधक को ऐसा दृढ निश्चय करना चाहिए कि "चइज्ज देह न हु धम्मसासणं" अर्थात् 'शरीर का सम्पूर्ण त्याग करना पड़ जाय तो भी धर्म-शासन अर्थात् संयम का त्याग कदापि नहीं करूगा / संयम त्यागने वाले या संयम में रमण नहीं करने वाले भिक्षु भविष्य में अत्यन्त पश्चात्ताप को प्राप्त होते हैं। अन्य प्रागमों में भी संयम में स्थिर रहने का एवं किसी भी परिस्थिति में त्याग किये गृहवास एवं विषयों को पुनः स्वीकार नहीं करने का उपदेश दिया गया है। अतः संयमसाधनाकाल में विषय-कषायवश या असहिष्णुता आदि कारणों से संयम छोड़ने का संकल्प उत्पन्न हो जाय तो उन्हें आगमों के अनेक उपदेश-वाक्यों द्वारा तत्काल निष्फल कर देना चाहिए। आलोचना करने का क्रम 33. (1) भिक्खू य अन्नयरं प्रकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता इच्छेज्जा आलोएत्तए, जत्थेव अप्पणी आयरिय-उवज्झाए पासेज्जा, तस्संतिए आलोएज्जा जाव प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (2) नो चेव गं अप्पणो प्रायरिय-उवज्झाए पासेज्जा, जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, तस्संतिए पालोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (3) नो चेव णं संभोइयं साहिम्मयं बहुस्सुयं बब्भागमं पासेज्जा, जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, तस्संतिए आलोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (4) नो चेव णं अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं, जत्थेव सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, तस्संतिए पालोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org