________________ विषय को स्पष्ट करना सम्पादक मुनिजी की विशेषता है। इस सम्पादन में उनका गम्भीर पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। बृहत्कल्प का व्याख्यासाहित्य बृहत्कल्पनियुक्ति–दशाश्रुतस्कन्ध की तरह बृहत्कल्पनियुक्ति लिखी गई है। उसमें सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार कर ज्ञान के विविध भेदों पर चिन्तन कर इस बात पर प्रकाश डाला है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् अभेद है / अनुयोग पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात निक्षेपों से चिन्तन किया है / जो पश्चाद्भूत योग है वह अनुयोग है अथवा जो स्तोक रूप योग है वह अनूयोग है। कल्प के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं / कल्प और व्यवहार का अध्ययन चिन्तन करने वाला मेधावी सन्त बहुश्रुत, चिरप्रवजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, अपरिश्रावी, विज्ञ प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है। इसमें ताल-प्रलम्ब का विस्तार से वर्णन है, और उसके ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त का भी विधान है। ग्राम, नगर, खेड़, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, पाश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, आदि पदों पर भी निक्षेपदृष्टि से चिन्तन किया है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक पर भी प्रकाश डाला है। आर्य पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन बारह निक्षेपों से चिन्तन किया है। पार्यक्षेत्र में विचरण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवद्धि होती है। अनार्य क्षेत्रों में विचरण करने से अनेक दोषों के लगने की सम्भावना रहती है। स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त को देकर इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। साथ ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि हेतु अनार्य क्षेत्र में विचरण करने का आदेश दिया है और उसके लिए राजा सम्प्रति का दृष्टान्त भी दिया गया है / श्रमण और श्रमणियों के प्राचार, विचार, आहार, विहार का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सर्वत्र निक्षेपपद्धति से व्याख्यान किया गया है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है। बृहत्कल्प-लधुभाष्य-बृहत्कल्प लधुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। लघभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या 6490 है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है। भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तृत पीठिका दी गई है। जिसकी गाथा संख्या 805 है। इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का संकलन-आकलन हुआ है। इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डॉ. मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक "सार्थवाह" में "यात्री और सार्थवाह" का सुन्दर प्राकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृतिक और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए इसकी सामग्री विशेष उपयोगी है। जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग पर विचार करते हुए सम्यक्त्वप्राप्ति का क्रम और प्रौपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है / अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से उस पर चिन्तन किया है। कल्पव्यवहार पर विविध दष्टियों से चिन्तन करते हुए यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग हुआ है। पहले उद्देशक की व्याख्या में ताल-वृक्ष से सम्बन्धित विविध प्रकार के दोष और प्रायश्चित्त, ताल-प्रलम्ब के ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमण-श्रमणियों को देशान्तर जाने के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की अस्वस्थता के विधि-विधान, वैषों के पाठ प्रकार बताये हैं। दुष्काल प्रभृति विशेष परिस्थिति में श्रमण-श्रमणियों के एक दूसरे [ 62 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org