________________ प्रयम उद्देशक] [275 2. योग्य प्रायश्चित्त स्वीकार न करने से जो गच्छ-निष्कासित हो, उसका एकलविहार / / --बृहत्कल्प. उ. 4 3. अव्यक्त एवं प्रशान्त स्वभाव वाले का संकटयुक्त एकलविहार। -प्राचा. श्रु. 1, अ. 5, उ. 4 4. संयम-विधि के पालन में अरुचि वाले के लिए एकलविहार का निषेध / -प्राचा. श्रु. 1, अ. 5, उ. 6 5. परिपूर्ण पंखरहित पक्षी की उपमा से अव्यक्त भिक्षु के लिए एकलविहार का निषेध / __सूय. श्रु. 1, अ. 14 6. नवदीक्षित, बालक एवं तरुण भिक्षु को प्राचार्य की निश्रा बिना रहने का निषेध / -व्यव. उ. 3 7. प्राचार्य, उपाध्याय पद धारण करने वालों को अकेले विहार करने का निषेध / -व्य व.उ.४ . नियुक्ति तथा भाष्य में एकलविहार का वर्णन 1. बृहत्कल्पभाष्य गाथा. 690 से 693 तक जघन्यगीतार्थ-आचारांग एवं निशीथसूत्र को कण्ठस्थ धारण करने वाला। मध्यमगीतार्थ-आचारांग, सयगडांग एवं चार छेदसत्रों को कण्ठस्थ करने वाला। उत्कृष्टगोतार्थ-नवपूर्व से 14 पूर्व तक के ज्ञानी आदि / इनमें से किसी भी प्रकार का गीतार्थ ही प्राचार्य, उपाध्याय या एकलविहारी हो सकता है। क्योंकि गीतार्थ का एकाकी विहार एवं गीतार्थ आचार्य की निश्रायुक्त गच्छविहार, ये दो विहार ही जिनशासन में अनुज्ञात हैं। तीसरा अगीतार्थ का एकाकी विहार एवं अगीतार्थ की निश्रायुक्त गच्छविहार भी जिनशासन में निषिद्ध है। निशीथचूणि गा. 404 में उक्त गीतार्थ की व्याख्या के समान ही जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट बहुश्रुत की भी व्याख्या की गई है। 2. व्यवहारभाष्य उ. 1 के अन्तिम सूत्र में 1. रोगातंक 2. दुर्भिक्ष 3. राजद्वेष 4. भय 5. शारीरिक या मानसिक ग्लानता 6. ज्ञान दर्शन या चारित्र की वृद्धि हेतु 7. साथी भिक्षु के काल-धर्म प्राप्त होने पर 8. प्राचार्य या स्थविर की आज्ञा से भेजने पर, इत्यादि कारणों से एकलविहार किया जाता है। ___ गच्छ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणावच्छेदक इन पांच पदवीधरों में से एक भी योग्य पदवीधर के न होने के कारण गच्छ त्याग करने वाले एकलविहारी भिक्षु होते हैं। उक्त कारणों से एकलविहारी हुए भिक्षुओं को अरिहंत सिद्ध की साक्षी से आलोचना करने का विधान है। 3. प्रोपनियुक्ति में सकारण एवं अकारण के भेद से एकलविहार दो प्रकार का कहा है 1. ज्ञान दर्शन चारित्र को वृद्धि के लिए या आगमोक्त अन्य परिस्थितियों से किया गया गीतार्थ का एकलविहार 'सकारण एकलविहार' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org