________________ प्रथम उद्देशक] [273 भी "प्रतिमा" शब्द का प्रयोग किया गया है / जिनके प्रतिमाधारी होने की कल्पना करना सर्वथा अनुचित होगा। भिक्षु की बारह प्रतिमा या अन्य प्रतिमाएं धारण करने वालों की निश्चित अवधि होती है। ये उतने समय तक पाराधना करते रहते हैं। उनके लिए सूत्र में प्रयुक्त "दोच्चपि" और "इच्छेज्जा" पद अनावश्यक है / वे अनेक प्रकार की तप-साधना आदि का अभ्यास करके ही प्रतिमा धारण करते हैं / अतः बीच में प्रतिमा छोड़कर आने का कोई कारण नहीं होता है तथा प्रतिमाधारी भिक्षु के लिए प्रतिमा पूर्ण करके गच्छ में आने पर तप या छेद प्रायश्चित्त के विधान की कल्पना करना भी उचित नहीं है / क्योंकि प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक भी इतने दृढ मनोबल वाले होते हैं कि वे अपने नियमों में किसी प्रकार के प्रागार नहीं रखते हैं अर्थात् राजा आदि का प्रागार भी उनके नहीं रहता है / तब प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षु के चलचित्त होने की एवं दोष लगाने की सम्भावना ही कैसे की जा सकती है ? सूत्र 31 में अन्यमत का लिंग धारण करने वाले सामान्य भिक्षु के लिए भी "नस्थि केई छए वा परिहारे वा, नन्नस्थ एगाए पालोयणाए" ऐसा कथन है तो प्रतिमाधारी भिक्षु तो उससे भी बहुत उच्चकोटि की साधना करने वाले होते हैं। अतः इन सूत्रों में किया गया विधान एवं प्रायश्चित्त स्वेच्छावश गच्छ से निकलकर एकलविहारचर्या धारण करने वालों की अपेक्षा से है, ऐसा समझना हो उचित है / आगमों में कहे गए एकलविहार दो प्रकार के हैं(१) अपरिस्थितिक (2) सपरिस्थितिक / अपरिस्थितिक-प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षुओं का अकेला रहना केवल निर्जराहेतु होता है, वह अपरिस्थितिक एकलविहार है / प्रतिमा धारण करने वाले भिक्षु गच्छ के प्राचार्य की आज्ञा लेकर आदर सहित एकलविहार करते हैं, अतः ये आचार्य की सम्पदा में गिने जाते हैं / ये नौ पूर्व के ज्ञाता होते हैं / आठ महिनों में प्रतिमा पूर्ण करने के बाद सम्मान पूर्वक गण में आते हैं। सपरिस्थितिक-शारीरिक-मानसिक कारणों से, प्रकृति की विषमता से, शुद्ध संयम पालन करने वाले सहयोगी के न मिलने से अथवा पूर्णतया संयमविधि का पालन न कर सकने से, जो स्वेच्छा से एकलविहार धारण किया जाता है, वह 'सपरिस्थितिक एकलविहार' है। सपरिस्थितिक एकलविहारचर्या वाला भिक्षु प्राचार्य की सम्पदा में नहीं गिना जाता है। उसका गच्छ से निकलना आज्ञा से अथवा आदरपूर्वक नहीं होता है, किन्तु संघ की उदासीनता या विरोधपूर्वक होता है। सपरिस्थितिक एकल विहारचर्या वाले भिक्षु के लिए प्रतिमा धारण करना, उत्कृष्ट गीतार्थ होना अथवा विशिष्ट योग्यताओं का होना तो अनिवार्य नहीं है, तथापि नवदीक्षित (तीन वर्ष से अल्प दीक्षा पर्याय वाला), बालक (16 वर्ष से कम वय वाला) एवं तरुण (40 वर्ष से अल्प वय वाले) भिक्षु को एकलविहारी नहीं होना चाहिए। क्योंकि व्यवहारसूत्र उ. 3 में इन तीनों को आचार्य उपाध्याय के नेतृत्व में ही रहने का विधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org