________________ 264] [व्यवहारसूत्र 1. अपलिउंचिए अपलिउंचियं, 2. अपलिउंचिए पलिउंचियं, 3. पलिउंचिए अपलिउंचिगं, 4. पलिउंचिए पलिउंचियं / आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय (आरुहेयम्वे सिया) जे एयाए पट्ठवणाए पविए निविसमाणे पडिसेवेइ, से विकसिणे तत्थेव आरहेयम्वे सिया। 1. जो भिक्षु एक बार मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर एक मास का प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर दो मास का प्रायश्चित्त आता है / 2. जो भिक्षु एक बार द्विमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त पाता है और माया-सहित पालोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त प्राता है। 3. जो भिक्षु एक बार त्रैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है। 4. जो भिक्षु एक बार चातुर्मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है / 5. जो भिक्षु एक बार पंचमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर छमासी प्रायश्चित्त पाता है। इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित आलोचना करने पर भी वही छमासी प्रायश्चित्त पाता है। 6. जो भिक्षु अनेक बार मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर एक मास का प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर द्वैमासिक प्रायश्चित्त आता है। 7. जो भिक्षु अनेक बार द्विमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त पाता है। 8. जो भिक्षु अनेक बार त्रैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org