________________ प्रथम उद्देशक] [269 थेरा य णं वियरेज्जा, एवं णं कप्पइ एगयओ अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसोहियं वा चेइत्तए। थेरा य णं णो वियरेज्जा, एवं नो कप्पइ एगयो अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेइत्तए / जो णं थेरेहि अविइण्णे, अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेएइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा। 19. अनेक पारिहारिक भिक्षु और अनेक अपारिहारिक भिक्षु यदि एक साथ रहना या बैठना चाहें तो उन्हें स्थविर को पूछे बिना एक साथ रहना या एक साथ बैठना नहीं कल्पता है / स्थविर को पूछ करके ही वे एक साथ रह सकते हैं या बैठ सकते हैं। यदि स्थविर प्राज्ञा दें तो उन्हें एक साथ रहना या एक साथ बैठना कल्पता है। यदि स्थविर आज्ञा न दें तो उन्हें एक साथ रहना या बैठना नहीं कल्पता है / स्थविर की आज्ञा के बिना वे एक साथ रहें या बैठे तो उन्हें मर्यादा उल्लंघन का दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त आता है। विवेचन—परिहारतप वहन करने की विस्तृत विधि निशीथ उ. 4 में कही है तथा उ. 20 एवं बृहत्कल्प उ. 4 में भी कुछ वर्णन किया गया है / पारिहारिक भिक्षु का आहार, विहार, स्वाध्याय, शय्या, निषद्या आदि सभी कार्य समूह में रहते हुए भी अलग-अलग होते हैं / अतः किसी साधु को किसी विशेष कारण से पारिहारिक के साथ बैठना हो तो स्थविर आदि, जो गण में प्रमुख हों, उनकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है / स्थविर को उचित लगे तो वे आज्ञा देते हैं अन्यथा वे निषेध कर देते हैं। निषेध करने के बाद भी यदि कोई उ साथ बैठता है, वह मर्यादा का भंग करता है तथा बिना पूछे उसके साथ बैठे या अन्य किसी प्रकार का व्यवहार करे तो मर्यादा-भंग करने वाला होता है, जिससे वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। पारिहारिक के साथ व्यवहार न रखने का कारण यह है कि वह अकेला रहकर प्रायश्चित्त से विशेष निर्जरा करता हुआ अपनी आत्मशुद्धि करे और समूह में रहते हुए उस प्रायश्चित्त तप को वहन कराने का कारण यह है कि अन्य साधुओं को भी भय उत्पन्न हो, जिससे वे दोषसेवन करने से बचते रहें। परिहारकल्पस्थित भिक्षु का वैयावृत्य के लिए विहार 20. परिहारकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा। कप्पह से एगराइयाए पडिमाए जपणं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं विसं उलित्तए। नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वस्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा—'वसाहि अज्जो! एगरायं वा दुरायं वा / ' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वथए / नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वथए / जे तत्थ एगरायानो वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे था। 21. परिहारकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेज्जा कप्पइ से निविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जण्णं जगणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं विसं उलित्तए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org