________________ पालोचना का निषेध किया गया है। पालोचना और प्रायश्चित दोनों ही योग्य व्यक्ति के समक्ष होने चाहिए, जिससे कि वह गोपनीय रह सके / बौद्धपरम्परा में साधुसमुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान है। विनयपिटक में लिखा हैप्रत्येक महीने की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित हो तथागत बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बताया है। अत: किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त कर पातिमोक्ख का वाचन किया जाता है और प्रत्येक प्रकरण के उपसंहार में यह जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ? यदि कोई भिक्षु तत्सम्बन्धी अपने दोष की मालोचना करना चाहता है तो संघ उस पर चिन्तन करता है और उसकी शुद्धि करवता है। द्वितीय और तृतीय बार भी उसी प्रश्न को दुहराया जाता है। सभी की स्वीकृति होने पर एक-एक प्रकरण आगे पढ़े जाते हैं। इसी तरह भिक्षुणियां भिक्खुनी पातिमोक्ख का वाचन करती हैं। यह सत्य है कि दोनों ही परम्परानों की प्रायश्चित्त विधियां पृथक्-पृथक् हैं। पर दोनों में मनोवैज्ञानिकता है। दोनों ही परम्पराओं में प्रायश्चित्त करने वाले साधक के हृदय की पवित्रता, विचारों की सरलता अपेक्षित मानी है। प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना के मूलप्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये हैं / मूलगुणअतिचारप्रतिसेवना प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह रूप पांच प्रकार की है। उत्तरगुणातिचार प्रतिसेवना दस प्रकार की है। उत्तरगूण अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रितः साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्रा प्रत्याख्यान के रूप में है। ऊपर शब्दों में उत्तरगुणों के पिण्डविशुद्धि, पांच समिति, बाह्य तप, पाभ्यान्तर तप, भिक्षप्रतिमा और अभिग्रह इस तरह दस प्रकार हैं। मूलगुणातिचारप्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना इनके भी दर्य और कल्प्य ये दो प्रकार हैं। बिना कारण प्रतिसेवना दपिका है और कारण युक्त प्रतिसेवना कल्पिका है। वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर विवेचन प्रस्तुत किया है / प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान 34625 श्लोक प्रमाण है। वृत्ति के पश्चात् जनभाषा में सरल और सुबोध शैली में प्रागमों के शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएं लिखी गई हैं, जिनकी भाषा प्राचीन गुजराती-राजस्थानी मिश्रित है। यह बालावबोध व टब्बा के नाम से विश्रत हैं / स्थानकवासी परम्परा के धर्मसिंह मुनि ने व्यवहारसूत्र पर भी टब्बा लिखा है, पर अभी तक वह अप्रकाशित ही है। प्राचार्य अमोलकऋषिजी महाराज द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद साहित व्यवहारसूत्र प्रकाशित हुआ है। जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित किया है। शुबिंग लिपजिग ने जर्मन टिप्पणी के साथ सन् 1918 में लिखा / जिसको जैन साहित्य समिति पूना से 1923 में प्रकाशित किया है। पूज्य घासीलालजी म. ने छेदसूत्रों का प्रकाशन केवल संस्कृत टीका के साथ करवाया है। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से सन् 1980 में व्यवहारसूत्र प्रकाशित हआ। जिसका सम्पादन आगममर्मज्ञ मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल" ने किया। प्रस्तुत सम्पादन-मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने पहले प्रायार-दसा, कप्पसुत्तं और बहारसुत्तं इन तीनों वेदसूत्रों का सम्पादन और प्रकाशन किया था। उसी पर और अधिक विस्तार से प्रस्तुत तीन आगमों का सम्पादन कर प्रकाशन हो रहा है। इसके पूर्व निशीथ का प्रकाशन हो चुका है। चारों छेदसूत्रों पर मूल, अर्थ और विवेचन युक्त यह प्रकाशन अपने आप में गौरवपूर्ण है। इन तीन प्रागमों के प्रकाशन के साथ ही [71] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org