________________ जब स्त्री अध्यात्म-साधना का सर्वोच्चपद तीर्थंकर नामकर्म का अनुबन्ध कर सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर सकती है तब दृष्टिवाद के अध्ययनार्थ जिन दुर्बलताओं की ओर संकेत किया गया है और जिन दुर्बलताओं के कारण स्त्रियों को दष्टिवाद की अधिकारिणी नहीं माना गया है उन पर विज्ञों को तटस्थ दष्टि से गम्भीर चिन्तन करना चाहिए। मेरी दृष्टि से पूर्व-साहित्य का ज्ञान लब्ध्यात्मक था / उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए केवल अध्ययन और पढ़ना ही पर्याप्त नहीं था, कुछ विशिष्ट साधनाएं भी साधक को अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थीं। उन साधनाओं के लिए उस साधक को कुछ समय तक एकान्त-शान्त स्थान में एकाकी भी रहना आवश्यक होता था। स्त्रियों का शारीरिक संस्थान इस प्रकार का नहीं है कि वे एकान्त में एकाकी रह कर दीर्घ साधना कर सकें। इस दृष्टि से स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषेध किया गया हो। यह अधिक तर्कसंगत व युक्ति-युक्त है / मेरी दृष्टि से यही कारण स्त्रियों के आहारकशरीर की अनुपलब्धि प्रादि का भी है। गणधरों द्वारा संकलित अंग ग्रन्थों के आधार से अन्य स्थविरों ने बाद में ग्रन्थों की रचना की, वे अंगबाह्य कहलाये। अंग और अंगबाह्य ये आगम ग्रन्थ ही भगवान् महावीर के शासन के आधारभूत स्तम्भ हैं। जैन प्राचार की कुञ्जी हैं, जैन विचार की अद्वितीय निधि हैं, जनसंस्कृति की गरिमा हैं और जैन साहित्य की महिमा हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अंगबाह्य ग्रन्थों को आगम में सम्मिलित करने की प्रक्रिया श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में एक समान नहीं रही है। दिगम्बर परंपरा में अंगबाह्य आगमों की संख्या बहुत ही स्वल्प है किन्तु श्वेताम्बरों में यह परम्परा लम्बे समय तक चलती रही जिससे अंगबाह्य ग्रन्थों की संख्या अधिक है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि प्रावश्यक के विविध अध्ययन, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ प्रादि दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से मान्य रहे हैं। ___ श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता है कि आगम-साहित्य का मौलिक स्वरूप बहुत बड़े परिमाण में लुप्त हो गया है पर पूर्ण नहीं, अब भी वह शेष है। अंगों और अंगबाह्य भागमों की जो तीन बार संकलना हुई उसमें उसके मौलिक रूप में कुछ अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। उत्तरवर्ती घटनाओं और विचारणामों का समावेश भी किया गया है। जैसे स्थानांग में सात निह्नव और नवगणों का वर्णन / प्रश्नव्याकरण में जिस विषय का संकेत किया गया है वह बर्तमान में उपलब्ध नहीं है, तथापि आगमों का अधिकांश भाग मौलिक है, सर्वथा मौलिक है। भाषा व रचना शैली की दृष्टि से बहुत ही प्राचीन है। वर्तमान भाषाशास्त्री आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को और सुत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को ढाई हजार वर्ष प्राचीन बतलाते हैं / स्थानांग, भगवती, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, निशीथ और कल्प को भी वे प्राचीन मानते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि प्रागम का मूल प्राज भी सुरक्षित है। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से अंग साहित्य लुप्त हो चुका है। अत: उन्होंने नवीन ग्रन्थों का सृजन किया और उन्हें आगमों की तरह प्रमाणभूत माना / श्वेताम्बरों के प्रागम-साहित्य को दिगम्बर परम्परा प्रमाणभूत नहीं मानती है तो दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों को श्वेताम्बर परम्परा मान्य नहीं करती है, पर जब मैं तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करता तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं के प्रागम ग्रन्थों में मौलिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों के पागम ग्रन्थों में तत्त्वविचार, जीवविचार, कर्मविचार, लोकविचार, ज्ञानविचार समान है। दार्शनिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। प्राचार परम्परा की दृष्टि से भी चिन्तन करें तो वस्त्र के उपयोग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद होने पर भी विशेष अन्तर नहीं रहा। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में नग्नत्व पर अत्यधिक बल दिया गया, किन्तु व्यवहार में नग्न मुनियों की संख्या बहुत ही कम रही और दिगम्बर भट्टारक आदि की संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org