________________ क्योंकि उसमें पड़ी हुई बूंदें अचित्त हो जाती हैं / यदि आहार शीतल है तो न स्वयं खाना चाहिए और न दूसरों को खिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान पर परिस्थापन कर देना चाहिए। निर्ग्रन्थी को एकाकी रहना, नग्न रहना, पावरहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन, वीरासन, दण्डासन, लगुडशायी आदि आसन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना वयं है। - निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब या थूक) का आचमन करना अकल्प्य है किन्तु रोगादि कारणों से ग्रहण किया जा सकता है / परिहारकरूप में स्थिति भिक्ष को स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो शीघ्र जाना चाहिए और कार्य करके पुनः लौट आना चाहिए। यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध कर लेना चाहिए। छठे उद्देशक में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक (झूठ) वचन, हीलितवचन, खिसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन, व्यवशमितोदीरणवचन (शांत हुए कलह को उभारनेवाला वचन), ये छह प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिए। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अविरति-अब्रह्म, नपुसक, दास आदि का आरोप लगाने वाले को प्रायश्चित्त पाता है। निर्गन्थ के पैर में कांटा लग गया हो और वह निकालने में असमर्थ हो तो उसे अपवादरूप में निर्ग्रन्थी निकाल सकती है। इसी प्रकार नदी आदि में डूबने, गिरने, फिसलने आदि का प्रसंग आये तो साधु साध्वी का हाथ पकड़कर बचाये / इसी प्रकार विक्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी को अपने हाथ से पकड़कर उसके स्थान पर पहुंचा दे, वैसे ही भी साध्वी हाथ पकड़कर पहुंचा सकती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि ये आपवादिक सूत्र हैं। इसमें विकारभावना नहीं किन्तु परस्पर के संयम की सुरक्षा की भावना है। साधु की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है / यह छह प्रकार की है—सामायिक-संयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निविष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति। ___इस प्रकार बृहत्कल्प में श्रमण-श्रमणियों के जीवन और व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। यही इस शास्त्र की विशेषता है। व्यवहारसूत्र बृहत्कल्प और व्यवहार ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं / व्यवहार भी छेदसूत्र है जो चरणानुयोगमय है। इसमें दश उद्देशक हैं / 373 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ है / 267 सूत्र संख्या है। प्रथम उद्देशक में मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष का सेवन कर उस दोष की प्राचार्य आदि के पास कपटरहित आलोचना करने वाले श्रमण को एकमासिक प्रायश्चित्त पाता है जबकि कपटसहित करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। द्विमासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष की साधक निष्कपट आलोचना करता है तो उसे द्विमासिक प्रायश्चित्त पाता है और कपटसहित करने से तीन मास का / इस प्रकार तीन, चार, पांच और छह मास के [ 54 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org