________________ दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्र है / छेदसूत्र के दो कार्य हैं-दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है / ठाणांग में इसका अपरनाम प्राचारदशा प्राप्त होता है। दशाश्रुतस्कंध में दश अध्ययन हैं, इसलिए इसका नाम दशाश्रुतस्कंध है। दशाश्रुतस्कंघ का 1830 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है / 216 गद्यसूत्र हैं / 52 पद्यसूत्र हैं। प्रथम उद्देशक में 20 असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शांति हो, प्रात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्ग में रहे, वह समाधि है और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशांत भाव हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि मोक्षमार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार हैं। जैसेजल्दी-जल्दी चलना, बिना पूजे रात्रि में चलना, बिना उपयोग सब दैहिक कार्य करना, गुरुजनों का अपमान, निन्दा आदि करना। इन कार्यों के आचरण से स्वयं व अन्य जीवों को असमाधिभाव उत्पन्न होता है। साधक की आत्मा दूषित होती है / उसका पवित्र चारित्र मलिन होता है। अतः उसे असमाधिस्थान कहा है। द्वितीय उद्देशक में 21 शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है। चारित्र मलक्लिन्न होने से वह कर्बुर हो जाता है। इसलिए उन्हें शबलदोष कहते हैं / 2 “शबलं कर्बुरं चित्रम्" शबल का अर्थ चित्रवर्णा है। हस्तमैथुन, स्त्री-स्पर्श आदि, रात्रि में भोजन लेना और करना, प्राधाकर्मी, औद्देशिक पाहार का लेना, प्रत्याख्यानभंग, मायास्थान का सेवन करना आदि-आदि ये शबल दोष हैं। उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चार दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है। तीसरे उद्देशक में 33 प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है। जैनाचार्यों ने आशातना शब्द की निरुक्ति अत्यन्त सुन्दर की है। सम्यग्दर्शनादि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन है। सदगुरुदेव आदि महान् पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की आशातना-खण्डना होती है।3। शिष्य का मुरु के आगे, समश्रेणी में, अत्यन्त समीप में गमन करना, खड़ा होना, बैठना आदि, गुरु, से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, गुरु के वचनों को जानकर अवहेलना करना, भिक्षा से लौटने पर आलोचना न करना, प्रादि-आदि पाशातना के तेतीस प्रकार हैं। चतुर्थ उद्देशक में प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं। गण का अधिपति गणी होता है। गणिसम्पदा के आठ प्रकार हैं--प्राचारसम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीरसम्पदा, वचनसम्पदा, वाचनासम्पदा, मतिसम्पदा, प्रयोगमतिसम्पदा और संग्रहपरिज्ञानसम्पदा / प्राचारसम्पदा के संयम में ध्र वयोगयुक्त होना, अहंकाररहित होना, अनियतवृत्ति होना, वृद्धस्वभावी (अचंचलस्वभावी)-ये चार प्रकार हैं। समाधानं समाधि:-चेतसः स्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थ: न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि आश्रया भेदाः पर्याया असमाधि-स्थानानि / -आचार्य हरिभद्र शबलं-कबुरं चारित्रं यः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवो पि। -अभयदेवकृत समवायांगटीका 3. आय:– सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डना निरुक्तादाशातना / .—प्राचार्य अभयदेवकृत समवायांगटीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org