________________ उनसे बहत अधिक रही। श्वेताम्बर पागम साहित्य में जिनकल्प को स्थविरकल्प से अधिक महत्त्व दिया गया किन्त व्यवहारिक दृष्टि से आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है किन्तु दिगम्बर परम्परा मान्य षखण्डागम में मनुष्य-स्त्रियां सम्यगमिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यगदष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं / 16 इसमें "संजद" शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य-स्त्री को "संयत" गुणस्थान न हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का बातावरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं.हीरलालजी जैन आदि ने पूनः उसका स्पष्टीकरण "पखण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना" में किया किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री (कर्णाटक) में पटखण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी "संजद" शब्द मिला है। वदकरस्वामी विरचित मूलाचार में प्रायिकामों के प्राचार का विश्लेषण करते हुए कहा है जो साधु अथवा धार्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत् में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी प्रायिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है / किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है। प्राचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्त्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है, जिसका दोनों ही परम्परामों में समान रूप से महत्त्व रहा है। श्वेताम्बर प्रागम-साहित्य में और उसके व्याख्या साहित्य में प्राचार सम्बन्धी अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन मिलता है किन्तु दिगम्बर परम्परा के अन्यों में अपवाद का वर्णन नहीं है, पर गहराई से चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी अपवाद रहे होंगे, यदि प्रारम्भ से ही अपवाद नहीं होते तो अंगवाह्य सूची में निशीथ का नाम कैसे आता ? श्वेताम्बर परम्परा में 'अपवादों को सूत्रबद्ध करके भी उसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निषिद्ध कर दिया गया। विशेष योग्यता वाला श्रमण ही उसके पढ़ने का अधिकारी माना गया / श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। प्राचार सम्बन्धी जैसा नियम और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा में के कल्पसूत्र, श्रोतसूत्र और गृहसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेत्रसूत्र बने थे पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। छेदसूत्र का नामोल्लेख मन्दीसूत्र में नहीं हुआ है। "छेद सूत्र" का सबसे प्रथम प्रयोग प्रावश्यकनियुक्ति 16. सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजदासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति) ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ। -षट्खण्डागम, भाग 1 सूत्र 93 पृ. 332, प्रका..-सेठ लक्ष्मीचंद शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय अमरावती (बरार) सन् 1939 17. एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जायो / ते जगपुज्ज कित्ति सुहं च लण सिझति / / -मूलाचार 4/196, पृ. 168 [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org