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भी कर सकते हैं, यह उनके लिए विशेष अनुज्ञा है। इन सभी विधानों से यह स्पष्ट है कि आचारप्रकल्प का कितना अधिक महत्त्व है । आचारप्रकल्पधर बहुश्रुत होता है, वह स्वतन्त्र विहार कर सकता है ।
आचारप्रकल्पधर के तीन प्रकार हैं-(१) कितने ही केवल सूत्र को ही धारण करने वाले होते हैं। (२) कितने ही केवल अर्थ को धारण करने वाले होते हैं । (३) कितने ही सूत्र और अर्थ दोनों को धारण करने वाले होते हैं । जो केवल सूत्रधर है वह प्रायश्चित्त देने का अधिकारी नहीं । प्रायश्चित्त देने का सही अधिकारी वह श्रमण होता है जो सूत्र और अर्थ दोनों का धारक हो। सूत्र और अर्थ का धारक न हो तो जो केवल अर्थ के धारक हैं उनसे भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है। अतीतकाल में यह प्रश्न बहुत ही चचित रहा कि केवलज्ञानी, मनः पर्यायज्ञानी और अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दसपूर्वी, नौपूर्वी जब नहीं होते हैं तब प्रायश्चित्त कौन दे ? २ इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है कि आज केवलज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानियों का अभाव है। पर प्रत्यक्षज्ञानियों के द्वारा पूर्वश्रुत से निबद्ध प्रायश्चित्तविधि आचारप्रकल्प में उद्घत है। अत: आचारप्रकल्पधर आचार्य प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है।
प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन आगम साहित्य में निशीथ का अपना गौरवपूर्ण स्थान रहा है । निशीथ के कर्ता
जैन आगमों की रचनाएँ दो प्रकार से हुई हैं-(१) कृत (२) नियुहण । जिन आगमों का निर्माण सर्वतन्त्र स्वतन्त्र रूप से हआ है वे आगम कृत कहलाते हैं। जैसे-गणधरों के द्वारा द्वादशाङ्गी की रचना की गई है और भिन्न-भिन्न स्थविरों के द्वारा उपाङ्ग साहित्य का निर्माण किया गया है। वे सब कृत पागम हैं। नि!हण आगम ये माने गये हैं
(१) दशवकालिक (२) आचारचूला (३) निशीथ (४) दशाश्रुतस्कन्ध (५) बृहत्कल्प (६) व्यवहार । इन छह आगमों में दशवकालिक आगम का निर्यहण चतुर्दशपूर्वधर शय्यंभवसूरि ने किया और शेष पांच आगमों का नि!हण भद्रबाहु स्वामी ने किया । आचारांगनियुक्ति के मन्तव्यानुसार आचार-चूला स्थविरों के द्वारा निर्मूढ है ।५ आचारांगवृत्ति में प्राचार्य शीलांक ने स्थविर का अर्थ चतुर्दशपूर्वी किया है।
-निशीथभाष्य ६६६७
-निशीथभाष्य ६६७५
१. तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते प्रत्थे य तदुभए चेव ।
सुत्तधरवज्जियाणं, तिगदुगपरियट्टणा गच्छे ।। २. निशीथचूर्णि भाग ४, पृ. ४०३
उग्घायमणुग्घाया, मासचउमासिया उ पाच्छित्ता । पुव्वगते च्चिय एते, णिज्जढा जे पकप्पम्मि ।। प्रायप्पवायपुवा निज्जढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायपुवा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ।। सच्चप्पवायपुवा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धि उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूप्रो । "थेरेहिऽणुग्गहट्ठा सीसहि होउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्थो आयारग्गेसू पविभत्तो ॥" आचारांगवत्ति, पत्र २१०
-दशवकालिकनियुक्ति गाथा १६-१७
-आचारांगनियुक्ति २८७
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