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करने वाला नहीं अपितु प्रायश्चित्त का प्रतिपादन करने वाला है। इस कथन में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों आचार्य एकमत हैं।'
चणि में निशीथ को प्रतिषेधसूत्र या प्रायश्चित्तसूत्र का प्रतिपादक बताया है ।२ निशीथभाष्य में लिखा है कि पायारचला में उपदिष्ट क्रिया का अतिक्रमण करने पर जो प्रायश्चित्त आता है उसका निशीथ में वर्णन है। 3 निशीथसूत्र में अपवादों का बाहल्य है। इसलिए सभा आदि में इसका वाचन नहीं करना चाहिए । अनधिकारी के
प्रकाशन न हो। अत: रात्रि या एकान्त में पठनीय होने से निशीथ का अर्थ संगत होता है। निसिहिया का जो निषेधपरक अर्थ है उसकी संगति भी इस प्रकार हो सकती है कि जो अनधिकारी हैं उनको पढ़ाना निषेध है और जन से आकुल स्थान में भी पढ़ना निषिद्ध है । यह केवल स्वाध्यायभूमि में ही पठनीय है।
हरिवंशपुराण में 'निषद्यक' शब्द पाया है। सम्भव है कि यह सूत्र विशेष प्रकार की निषद्या में पढ़ाया जाता होगा। इसलिए इसका नाम निषद्यक रखा गया हो। आलोचना करते समय आलोचक प्राचार्य के लिए निषद्या की व्यवस्था करता था ।४ सम्भव है प्रस्तुत अध्ययन के समय में भी निषद्या की व्यवस्था की जाती होगी। इसलिए निशीथभाष्य में इसका उल्लेख मिलता है।"
निशीथ के आचार, अग्र, प्रकल्प, चलिका ये पर्याय हैं। प्रायश्चित्तसूत्र का सम्बन्ध चरणकरणानुयोग के साथ है । अत: इसका नाम आचार है। आचारांगसूत्र के पांच अग्र हैं। चार प्राचारचलाएँ और निशीथ ये पाँच अग्र हैं इसलिए निशीथ का नाम अग्र है। निशीथ का नौवें पूर्व प्राचारप्राभत से रचना की गई है इसलिए इसका नाम प्रकल्प है। प्रकल्पन का द्वितीय अर्थ छेदन करने वाला भी है। आगम साहित्य में निशीथ का 'आयारपकप्प' यह नाम मिलता है । अग्र और चूला समान अर्थ वाले शब्द हैं।
संक्षेप में सार यह है कि निशीथ का अर्थ रहस्यमय या गोपनीय है । जैसे रहस्यमय विद्या, मन्त्र, तन्त्र, योग आदि अनधिकारी या अपरिपक्व बुद्धि वाले व्यक्तियों को नहीं बताते । उनसे छिपाकर गोप्य रखा जाता है। वैसे ही निशीथसूत्र भी गोप्य है । वह भी हर किसी के समक्ष उद्घाटित नहीं किया जा सकता । निशीथ का स्थान
- चार अनुयोगों में चरणकरणानुयोग का गौरवपूर्ण स्थान है। चरणानुयोग का अर्थ है आचार सम्बन्धी नियमावली, मर्यादा प्रभृति की व्याख्या । सभी छेदसूत्रों के विषय का समावेश चरणकरणानुयोग में किया जा सकता १. (क) पायारपक्रप्पस्स उ इमाइं गोण्णाई णामधिज्जाइं।
. आयारमाइयाइं पायच्छित्तेणउहीगारो ॥ -निशीथभाष्य गाथा २
(ख) णिसिहियं बहुविहपायच्छित्तविहाणवण्णणं कुणइ । -षट्खण्डागम, भा. १ पृ. ९८ २. तत्र प्रतिसेधः चतुर्थचुडात्मके प्राचारे यत् प्रतिषिद्धं तं सेवंतस्स पच्छितं भवति त्ति काउं ।
--निशीथचूणि, भा. १, पृ. ३ ३. पायारे चउसु य, चुलियासू उवएसवितहकारिस्स । पाच्छित्त मिहज्झयणे भणियं अण्णेसु य पदेसु ।।
-निशीथभाष्य ७१ आयारे चउसु य, चूलियासु उवएसवितहकारिस्स । पच्छित्त मिहज्झयणे भणियं अण्णेसु य पदेसु ।।
--निशीथभाष्य ६३८९ सुत्तत्थतदुभयाणं गहणं बहुमाणविणयमच्छरं । उक्कुड-णिसेज्ज-अंजलि-गहितागहियाम्मि य पणामो॥ -निशीथभाष्य सूत्र ६६७३
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