Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
द्वादशांगी वाणी
श्रत-साहित्य-आगमों में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि प्रत्येक युग में होने वाले तीर्थंकर द्वादशांगी का उपदेश देते हैं। इस दृष्टि से द्वादशांगी को अनादि-अनन्त भी मानते हैं। फिर भी वेदों की तरह ये अपौरुषेय नहीं हैं। यह एक विचार-परम्परा है कि अनादि काल से होने वाले तीर्थंकर अपने शासनकाल में द्वादशांगी का उपदेश देते हैं और अनागत काल में होने वाले तीर्थंकर इसी का उपदेश देंगे और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में स्थित तीर्थंकर इसका उपदेश दे रहे हैं। इस तरह प्रवाह की दृष्टि से द्वादशांगी-वाणी अनादि-अनन्त है। उसका प्रवाह न कभी विच्छिन्न हुआ है और न होगा। परन्तु व्यक्ति की दृष्टि से विचार करते हैं, तो इसका दूसरा पक्ष भी है। वह यह कि प्रत्येक काल में होने वाले तीर्थंकर इसका उपदेश देते हैं। अतः उस शासन-काल में विद्यमान द्वादशांगी उनके द्वारा उपदिष्ट होती है। जैसे-वर्तमान में द्वादशांगी के उपदेष्टा श्रमण भगवान महावीर हैं। इस तरह द्वादशांगी प्रवाह रूप से अनादि-अनन्त होने पर भी अकृतक नहीं, कृतक है, अपौरुषेय नहीं, पौरुषेय है। क्योंकि, वह वाणी है, शब्दों एवं अक्षरों का समूह मात्र है। और वाणी, शब्द या अक्षर का निर्माता कोई व्यक्ति ही होता है, ईश्वर नहीं। अतः किसी शास्त्र, धर्म-ग्रन्थ एवं वेद-वाक्य या श्रुति स्मृति और श्रुत-साहित्य को ईश्वर-वाणी मानना भ्रम है। क्योंकि ईश्वर शरीर-रहित है और वाणी शरीर का धर्म है। अतः जब ईश्वर के शरीर ही नहीं है, तब वह वाणी का प्रयोग कैसे करेगा? यह स्पष्ट समझ में आने वाली बात है। ___भगवती सूत्र में भगवान की वाणी को द्वादशांगी गणि-पिटक कहा है। वस्तुतः वह ज्ञान का पिटारा अर्थात् ज्ञान-मंजूषा ही है, जिसमें आत्मा, परमात्मा एवं सम्पूर्ण विश्व के यथार्थ रूप का ज्ञान-विज्ञान निहित है। वह द्वादशांगी निम्न प्रकार है1. आचारांग 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4. समवायांग, 5. विवाहपन्नत्ति-भगवती, 6. ज्ञाताधर्मकथांग, 7. उपासकदशांग, 8. अन्तकृत्दशांग, 9. अनुत्तरोपपातिकदशांग, 10. प्रश्न-व्याकरण, 11. विपाक और 12. दृष्टिवाद। वर्तमान में दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है, शेष ग्यारह अंग उपलब्ध हैं।
प्रस्तुत आगम
द्वादशांग में आचारांग का सर्वप्रथम स्थान है। इसलिए आचार्य भद्रबाहु ने