________________ (130) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] संगरशतेषु यो वर्ण्यते पश्य मदीयं कान्तम्। पिय-वयणु अलहन्तिअहे तुच्छकाय-वम्मइ-निवासहे। अतिमत्तानां त्यक्ताकुशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् / / 1 / / अन्नु जु तुच्छउँ तहे घणहे तं अक्खणह न जाइ / (सैकड़ो युद्धों में जिसका वर्णन किया गया है कि जो अत्यंत मत्त कटरि थणंतरु मुद्धडहे जे मणु विच्चि ण माइ ||1|| और अंकुश की भी प्रवाह न करनेवाले हाथियों के गण्ड-स्थल को तुच्छाच्छरोमावल्याः तुच्छारागायाः तुच्छतरहासायाः। चीरने वाला है, उस मेरे प्रियतम को हे सखि, जरा देख तो सही। प्रियवचनमलभमानायाः तुच्छकायमन्मथनिवासायाः / / कितना वीर है मेरा प्रियतम ! 345.1) अन्यद् यत्तुच्छं तस्याः धन्यायाः तदाख्यातुं न याति / पृथग्योगः कृतो लक्ष्यानुरोधार्थोऽत्र सूत्रयोः / आश्चर्य स्तनान्तरं मुग्धायाः येन मनो वर्त्मनि न याति / / 1 / / आमन्त्र्ये जसो होः // 346|| (पतले कटिभागवाली, कम बोलनेवाली,(शरीर पर) नहीं वत् आमन्त्र्येऽर्थे जसः स्थाने 'हो' स्याल्लोपस्य बाधकः / रोमवाली, कम प्रेम दर्शानवाली, कम हँसनेवाली, प्रियतम के समाचार न पाने से दुबले-पतले शरीरवाली, घर के अन्दर ही निवास स्याद् अप्पहो तरुणिहो, तथा तरुणहो यथा / करनेवाली, जिसके कृश शरीर में मदन का निवास है ऐसी उस मुग्धा तरुणहो तरुणिहो, मुणिउ मइँ करहु म अप्पहो घाउया।१।। सुंदरी का सब कुछ अल्प है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, कारण कि हे तरुणाः हे तरुण्यः (च) ज्ञातं मया आत्मनः घातं मा कुरुत या।१।। आश्चर्य यह है कि उसके दोनों स्तनों का अन्तर इतना अत्यल्प है (हे तरुणो, हे तरुणियों, मैं समझ गया हूँ। अब आप आघात न करें। कि उनके बीच के मार्ग से किसी अन्य का मन प्रवेश ही नहीं कर 346.1) सकता। 350.1) मिस्सुपोर्हि // 347 // फोडेन्ति जे हियेडउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवण घृण। भिस्सुपोर् 'हिं' भवेत्, [ सुप् ] मग्गेहिं [ भिस् ] 'गुणेहिं प्रयुज्यते। रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे विसम थण // 2 // भाईरहि जि भारइ मग्गे हि तिहि वि पयट्टइ / / 1 / / स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं तयोः परकीया (परविषये) का घृणा। भागीरथी यथा भारते त्रिषु मार्गेषु प्रवर्तते / / 1 / / रक्षत लोकाः आत्मानं बालायाः; जातौ विषमौ स्तनौ।।२।। (जिस तरह भागीरथी गंगा तीन ओर से (मार्ग से) भारत में प्रवेश (जो स्तन अपना हृदय फोड़कर विकसित होते हैं, उन्हें दूसरों पर क्या दया आयेगी? हे तरुण लोगों, उस तरुणी से अपनी रक्षा करो, करती है / 347.1) जिसके स्तन अभी पूर्ण विकसित हो गये हैं। 350.2) स्त्रियां जस्-शसोरुदोत् // 348|| भ्यसामोर्तुः // 351 // स्त्रियां लोपापवादौ द्वावुदोतौ जस्- शसोः पृथक् / स्त्रियां भ्यसामोः स्थाने हुः, 'वयंसिअहु'गद्यते। यथा- जज्जरियाओ अंगुलिउ स्याद् द्वयं जसः / भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कन्तु / "विलासिणीओ सुन्दर-सव्वङ्गाउ' शसःस्मृतम्। लज्जेज्जन्तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एन्तु ||1|| यथासंख्यनिवृत्यर्थो, भेदोऽत्र वचनस्य तु / भव्यं (साधु) भूतं यन्मारितः भगिनि अस्मदीयः कान्तः। (जसः) अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण // अलजिष्यत् वयस्याभ्यः यदि भग्र गृह ऐष्यत् / / 1 / / (शसः) सुन्दरसव्वङ्गाउ विलालिणीओ पेच्छन्ताण ||1|| (हे बहिनि, अच्छा हुआ जो मेरा प्रियतम युद्ध में मारा गया। यदि सुन्दरसर्वाङ्गी: विलासिनीः प्रेक्षमाणानाम् / / 1 / / भागकर घर आता तो मैं अपनी सखियों के सामने कितनी लज्जित (सर्वांग सुंदर विलासिनियों के दर्शकों का टोटा नहीं है। 348.1) होती? 351.1) ट ए // 34 // डेहि // 35 // स्त्रियां टायाः पदे स्याद् 'ए' चन्दिमए च कन्तिए। स्त्रियां डेहि यथा 'मह्याम्' इत्येतत् 'महिहि स्मृतम्। "नियमुहकरहिं वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्खइ॥ वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठउ सहस त्ति / ससिमण्डल चन्दिमए पुणु काई न दूरे देक्खइ?"||१|| अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तड त्ति ||1|| वायसं उड्डापयन्त्याः प्रियो दृष्टः सहसेति। निजमुखकरैरपि मुग्धा करमन्धकारे प्रत्यवेक्षते। अर्धानि वलयानि मह्यां गतानि अर्धानि स्फुटितानि तटिति॥१॥ शशिमण्डलं चन्द्रिकया पुनः कथं न दूरे पश्यति? ||1|| (कौवा काँउ-काँउ करता है, लेकिन प्रियतम तो आता नहीं, यह (वह मुग्धा सुंदरी अन्धकार में भी अपने मुख के किरणों से अपना सोचकर कौए को उड़ाने लगी तो (कृश काय) उसके हाथ से आधीहाथ देखती है, तो क्या पूर्ण चन्द्र की चाँदनी में वह दूर की वस्तु नहीं चूड़ियाँ जमीन पर गिर पड़ी। इतने में ही उसने प्रियतम को आता देखती होगी? | 346.1 // ) हुआ देखा तो हर्षोल्लास से प्रफुल्लित उसके हाथ की बाकी रही आधी ङस्-ङस्योर्हे // 350 // चूड़ियाँ तड तड् करके टूट गई। 352.1) स्त्रियां 'हे' डस्ङस्योः स्याद्, धणहे बालहे यथा। क्लीबे जस्- शसोरिं ||353|| तुच्छमध्यायाः तुच्छलजल्पनशीलायाः। क्लीबे 'ई' जस्-शसाः स्थाने 'गण्डाई' 'कुलई यथा। तुच्छच्छ-रोमावलिहे तुच्छ-राय तुच्छयर-हासहे। / कमलई मेल्लवि अलि-उलई करि-गण्डाइँ महन्ति। .