Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 01
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 951
________________ अरिडणेमि 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिहंत उज्जंतसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स। रायभीमदेवाऽमिहाणा एगारस नरिंदा / तओ वाघेलाअत्तए तं धम्मचक्कवट्टि, अरिहनेमि नमसामि // 1 // ध०२ अधिक। लूणप्पसायवीरधवलवीसलदेव-अक्षुणदेवसारंगदेवकण्णदेवा (अरिष्ठ ने मिना राजीमतीपरित्यागः, तया प्रव्रजितया कामा- नरिंदा संजाया। ततो अल्लावदीणसुरत्ताणाणं गुज्जरधरित्तीए ऽऽतरथनेभिप्रतिबोधश्च रहनेमि' शब्दे वक्ष्यते) आणा पयट्टा / सो अरिट्टनेमिसामी कोहंडीयपाडिहारो अज्जवि अणहिलपट्टने पूज्यमाने श्रीअरिष्टनेमिदेवे, ती०। तत्कथा चेयम् - तहेव पूइज्जइ ति"। अरिष्टनेमिकल्पोऽयं, लिखितः श्रेयसेऽस्तु वः। पणमिय अरिट्टनेमि, अणहिलपुरपट्टणावयंसस्स। मुखात् पुराविदां श्रुत्वा, श्रीजिनप्रभसूरिभिः ||1|| ती० 26 बंभाणगच्छनिस्सिय-अरिट्ठनेमिस्स कित्तिमो कप्पं / / 1 / / कल्पका दो तित्थगरा नीलुप्पलसमा वन्नेणं पण्णत्ता। तं जहा- मुणिसुव्वए "पुव्वं किर सिरिकन्नउज्जनयरे जक्खो नाम महड्डिसंपन्नो / चेव, अरिहनेमी चेव। स्था०२ ठा०४ उ०। नेगमो होत्था। सो अण्णया वाणिज्जकज्जे महया बइल्लसत्थेण / अरिट्ठा-स्त्री०(अरिष्टा) कच्छविजयक्षेत्रवर्तिराजधानीयुगले, जं०४ कयाणगाणि गणिऊण कन्नउज्जपडिबद्धं कन्नउज्जाहिवसुआए वक्ष०। "दो अरिट्ठाओ' / स्था० 2 ठा० 3 उ०। महणिगाए कंचुलिआसंबाधदिण्णं गुज्जरदेसं पइडिओ, अरिट्ठारि-पुं०(अरिष्टारि)अरिष्टाऽऽख्यवृषभाऽसुरमर्दक श्रीकृष्णे, अधृति आवासिओ अ / कमेण लक्खारामे सरस्सईनईतडे पुट्विं देवकी चक्रे, पृष्टाऽरिष्टारिणा क्षणात्। आ०का अणहिल्लवाडयपट्टणमनिवेसट्ठाणं कारितं आसी। तत्थ सत्थं निवेसित्ता अत्यंतस्स तस्स नेगमस्स पत्तो वासारत्तो / वरिसिउं अरित्ता-स्त्री०(अरिता) सामान्यतः शत्रुभावे, भ० 16 श०५ उ०। पवत्ता जलहरा। अन्नया भद्दवयमासे सो बइल्लसत्थो सव्वो वि अरिदमण-पुं०(अरिदमन) सप्ततितमे श्रीऋषभपुत्रे, कल्प०७ क्ष। कत्थ विगओ, को विन जाणइ, सव्वत्थ गवेसाविओन लद्धो। वसन्तपुरराजनि, यस्य पत्न्याऽभयं दत्त्वा चौरोमोचितः। सूत्र०१ श्रु० तओ सव्वस्स नासे इव अचंतचिंताउरस्स तस्स रत्तीए आगया 6 अ०। (अस्य कथा - 'अभयप्पदाण' शब्देऽस्मिन् एव भागे 708 मृष्ठे सुमिणसि भगवई अंबा देवी। भणियं च तीए - बच्छ ! जगसि, दर्शिता) श्रीप्रभनृपोपद्रावके नृपे, ध० 20 // सुवसि वा? जक्खेण वुत्तं- अम्मो ! कओ मे निद्दा? जस्स अरिरिहो-अव्या पादपूरणे, प्रा०२ पाद। बइल्लसत्थो सव्वस्समूओ विप्पणट्ठो। देवीए साहियं- भद्द! अरिस-न०(अर्शस्) 'हरस' इति लोकप्रसिद्ध गुदाऽकुरेरोगे, तं०जी० एयम्मिलक्खारामे अंबिलिया-थूणस्स हिट्टे पडिमातिगं वट्टए। / जं०। ज्ञा०। विपा०। उपा०। यबलेन वायुर्मूत्रं पुरीषं च प्रवर्तयते, तासां पुरिसतिगं खणावित्ता तं गहियव्वं / एगा पडिमा गुदप्रविष्टानां शिराणां विघातेऽझे रोगो भवति। प्रव० 252 द्वार। अरिट्ठने मिसामिणो, अवरा सिरिपासनाहस्स, अन्ना य अरिसिल्ल-त्रि०(अर्शस) अर्शोरुग्णे, "अरिसिल्लस्स व अरिसा, मा अंबियादेवीए। जक्खेण वायरिअं- तत्थ य अंबिलिआथूणाणं खुम्भं तेण बंधए कमणी" | नि० चू०२ उ०। अर्शोवतः बाहुल्ले सो पएसो कहं नायव्वो ? देवीए जंपिअं-धोउमयं पादतलदौर्बल्यादर्शासिमा क्षुभ्येरन् इति कृत्वा क्रमणिके असौ बध्नाति। मंडलं पुप्फ-प्पयरं जत्थ पाससि,तं चेव ठाणं पडिमातिगस्स बृ०३ उ०। जाणिज्जासि / तम्मि पडिमातिगे पयडीकए पूइजंते अ तुज्झ अरिह-धा०(अर्ह) पूजने, सक० योग्यत्वे, अक० भ्यादि० पर० सेट् / बइल्ला सयमेव आगच्छिहिंति / पहाए तेण उठे ऊण वाचा"ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यास्वित्"||२|१०४ / बलिविहाणपुव्वं तहाकए पयडीहूआ तिणि वि पडिमाओ।। इति सूत्रेण संयुक्तस्याऽन्त्यव्यञ्जनात् पूर्व इकारः। पूइयाओ विहिपुव्वं / खणमित्तेण अतक्कियमेव आगया बइल्ला। अरिहइ-अर्हति। प्रा०२ पद। संतुट्टो नेगमो / कमेणं कारिओ तत्थ पासाओ / ठावियाओ *अर्ह-त्रिका योग्ये, सूत्र०१श्रु०३ अ०२ उ० स्था०ालक्षणोपेततयाऽऽ-- पडिमाओ / अन्नया अइच्छिए वासारते अग्गहारगामाओ अट्ठारससयपट्ट-सालियघरअलंकियाओ बंभाणगच्छ चार्यपदयोग्ये, व्य० 10 उ०। पूज्ये, विशे०। प्रशस्ततया पूज्ये, स० मंडणसिरिजसोभद्दसूरिणो खंभाइतनयरोवरि विहरंता तत्थ अरिहंत-पुं०(अर्हत्) अर्हन्त्यशोकाऽऽद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुराऽआगया। लोगेहिं विन्नविअं- भगवं ! तित्थं उल्लंघिउं गंतुं न सुरविसरविरचितां जन्माउन्तरमहाऽलवालविरूदाऽनवधवासनाजालाकप्पइ पुरओ। तओ तेहिं सूरिहिं तत्थ ताओ पडिमाओ ऽभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्य रूपा मग्गसिर-पुण्णिमाए धयाऽऽरोवो महूसवपुव्वं कओ। अज्जवि एइ निखिलप्रतिपत्तिप्रक्षयात् सिद्धिसौधशिखराऽऽरोहणं चेत्यर्हन्तः। स्था० वरिसं तम्मि चेव दिट्ठो धयाऽऽरोवो कीरइ / सो य धया 2 ठा०१ उ०ा आव० ज०। सूत्र० / अनु० / म०। जी० आ० चू०। ऽऽरोवमहूसवो विक्कमाइचाओ पंचसु सएसु दुउत्तरेसु (502) विशे०। आचा०) तीर्थकृत्सु, आ०म०द्वि०। सम्प्रति प्राकृतशैल्या वरिसाणं अइक्कं तेसु संवुत्तो / तओ अट्ठसएसु दुउत्तरेसु अनेकधा-ऽर्हच्छब्दनिरुक्तसंभव इति दर्शयन्नाह - विक्कमवासेसु (802) अणहिल्लगोवालए परिक्खियपएसे इंदियविसयकसाए, परीसहवेयणाए उवसग्गे। लक्खारामट्ठाणे पट्टणं चाउक्कडवंसमुत्ताहलेण वणरायराइणा एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति॥ निवेसियं / तत्थ वणराया खेमरायतूअड वयरसीहरयणा- इन्द्रियादयः पूर्ववत् / वेदना त्रिविधा- शारीरी, मानसी, उभयऽऽइच्चसामंतसीहना-माणो सत्तचाउक्कडवंसरायणो जाआओ। रूपा च / एए अरिणो हंता० इत्यत्र प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच तत्थेव पुरे चोलुक्कवंसे मूलरायचामुंडरायवल्लभरायदुल्लम- विभक्तिव्यत्ययः / ततोऽयमर्थः - एतेषामरीणां हन्तारोऽर्हन्त इति रायभीमदेवकन्नजयसिंहदेवकुमारपालदेवजयदेववालमूल- पृषोदरादित्वादिष्ट रूपनिष्पत्तिः। स्यादेतत्, अनन्तर

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