________________ (141) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [सिद्धहेम०] [अ०८पा०४] यथा गिरयस्तथा कोटराणि हृदय ! खिद्यसे कथम् ?||2|| (हे मेरे मन, इस संसार में जैसे सज्जन हैं, वैसे ही क्लेश हैं, जैसी नदियाँ हैं, वैसे ही उसके मोड़ है, जैसे पर्वत हैं, वैसे ही उनके ढलान हैं। हे मन, तू क्यों खिन्न होता है ? जिसकी कोई दवाई नहीं, उसे सहन करना ही दवाई है। 422.2) जे छड्डेविणु रयणनिहि अप्पउँ तडि घल्लन्ति / तहं सनहं विट्टालु परु फुक्किज्जन्त भमन्ति ||3|| ये मुक्ताः रत्ननिधि आत्मनं तटे क्षिपन्ति। तेषां शंखानां संसर्ग केवलं फूत्क्रियमाणाः भ्रमन्ति / / 3 / / (जो शंख रत्ननिधि-सागर का त्याग करके किनारे पर फेंके जाते हैं, ये अश्पृश्य शंख लोगों द्वारा फूंके जाते हुए इधर-उधर भटकते रहते हैं। 422.3) दिवेहि विढत्तउँ खाहि वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु / को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ||4|| दिवसः अर्जितं खाद मूर्ख संचिनु मा एकमपि द्रम्ममू / किमपि भयं तत् पतति येन समाप्यते जन्म|४|| (हे मूर्ख बहुत लम्बे समय से जो धन अर्जित किया है, उसका उपयोग कर / अब और एक दाम भी एकत्र न कर / कौन जाने कोई संकट कब ऐसे आ जाये कि जन्म का ही अन्त हो जाए। 422.4) एकमेक्कउं जइ वि जोएदि हरि सुहु सव्वायरेण तो वि द्रोहि जहि कहिं वि राही। को सक्कइ संवरे वि दड-नयणा नेहिं पलृट्टा / / 5 / / एकैकं यद्यपि पश्यति हरिः सुष्टु सर्वादरेण। तथापि दृष्टिः यत्र कापि राधा। कः शक्नोति संवरीतु नयने स्नेहेन पर्यस्ते॥५॥ (श्री कृष्ण प्रत्येक गोपी पर अच्छी तरह नजर रखे हुए हैं, परन्तु जहाँ राधा है, वहाँ उसकी नजर थोड़ा ठहरती है। स्नेहिल-ज्वलित नयनों को रोकने में कौन समर्थ है ? 422.5) विहवे कस्सु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्सु मरटू / सो लेखडउ पठाविअइ जो लग्गइ निचटू // 6 // विभवे कस्य स्थिरत्वं यौवने कस्य गर्वः। स लेखः प्रस्थाप्यते यः लगति गाढम् // 6 // (वैभव पर स्थिरता कैसी? (लक्ष्मी चंचल है।) यौवन जो अस्थिर है, उस पर गर्व कैसा? यही लेख भेजा जा रहा है, जो गाढ़-अटल है। 422.6) कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बारीहिणु कहि मेहु। दूर-ठिअहिं वि सज्जणहं होइ असड्ढलु नेहु // 7 // कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः कुत्र बहीं कुत्र मेघः / / दूरस्थितानामपि सज्जानानां भवति असाधारणः स्नेहः // 7 // (कहाँ चंद्र और कहाँ सागर ? कितने दूर हैं। कहाँ वन में मोर और कहाँ आकाश में मेघ? अरे भाई, असाधारण सज्जनों का स्नेह भी असाधारण ही होता है। 422.7) कुञ्जरु अन्नहँ तरु-अरहं कडे ण घल्लइ हत्थु / मणु पुणु एक्कहि सल्लइहिं जइ पुच्छह परमत्थु // 8 // कुञ्जरः अन्येषु तरुवरेषु कौतुकेन घर्षति हस्तम्। मनः पुनः एकस्यां सल्लक्यां यदि पृच्छथ परमार्थम् / / 8 / / (हाथी अपनी सँड अन्य-अनेक वृक्षों पर यों ही स्पर्श करता है। सच पूछा जाय तो उसका मन तो केवल सल्लकी को ही ढूँढता रहता है। 422.8) खेड्डयं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयम्पह / अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामिअ IIEI क्रीडा कृता अस्माभिः निश्चयं किं प्रजल्पत। अनुरक्ताः भक्ताः अस्मान् मा त्यज स्वामिन् // 6 // (हे स्वामि, आप ऐसा हृदय विदारक, कथन क्यों कहते हैं कि हमने खेल किया था-मात्र क्रीड़ा की थी? हे स्वामि, आपसे विनती है कि अनुरक्त भक्त जैसा हमारा त्याग न करें। 422.6) सरिहि न सरेहिंन सरवरे हिं न वि उजाण-वणेहिं। देस रवण्णा होन्ति वढ निवसन्तेहि सुअणेहिं // 10 // सरिद्भिः न सरोभिः न सरोवरैः नापि उद्यानवनैः / देशाः रम्याः भवन्ति मूर्ख निवसद्भिः सुजनैः // 10 // (हे मूर्ख, केवल तलावों से, नदियों से, तड़ागों से, उद्यानों से, विशाल वनों से किसी देश की शोभा नहीं होती है,परंतु शोभा बढ़ती है सज्जन लोगों के निवास करने से / समझे ? 422.10) हिअडा पई ऍहु बोल्लिअओ महु अग्गइ सयवार / / फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ढक्करिसार ||11|| हृदया त्वया एतद् उक्तं मम अग्रतः शतवारम्। स्फुटिष्यामि प्रियेण प्रवसता (सह) अहं भण्ड अद्भुतसार॥११॥ (हे हृदय, तूने इस प्रकार मुझसे सैंकड़ों बार कहा है कि यदि प्रियतम परदेश जाएगा तो तू फटकर टूकड़े-टूकड़े हो जाएगा। 422.11) एक्क कुडुली पञ्चहि रुद्धी तहँ पञ्चहँ वि जुअंजुअ बुद्धी। बहिणुऐं तं घरु कहि किवँ नन्दउ जेत्थु कुअम्बउँ अप्पण-छन्दउँ। एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक्पृथक् बुद्धिः।।१२॥ भगिनि तद गृह कथय कथं नन्दतु यत्र कुटुम्बं आत्मच्छ-न्दकम् / / ('एक ही कुटिया है। उसमें पाँच रहते हैं। पांचों व्यक्ति अपनीअपनी स्वतंत्र बुद्धि से चलना चाहते हैं। हे मेरी बहन, अब तू ही सोचकर बता कि जहाँ सब आत्मस्वछंदी हों, वह परिवार कैसे सुखी रह सकता है?'४२२.१२) जो पुणु मणि जि खसफसिहूअउ चिन्तइ देइ न दम्मु न रूअउ / - रइ-वस-भमिरु करग्गुल्लालिउ घरहि जि कोन्तु गुणइ सो नालिउ ||13|| यः पुनः मनस्येव व्याकुलीभूतः चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम्।