________________ (145) सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] हृदस्थितो यदि निःसरसि जाने मुञ्ज ! सरोषः // 3 // गत्वा वाराणस्यां नरा अथोज्जयिन्यां गत्वा। (हे मुंज, यदि तुम मेरे हाथ छुड़ाकर जाना चाहते हो, तो जाओ, मृताः (म्रियन्ते) प्राप्नुवन्ति परमपदं दिव्यान्तराणि मा जल्प // 1 // इससे कोई नुकसान नहीं है। लेकिन हृदय से छूटकर जाओ तो मैं (तीर्थराज वाराणसी जाकर अथवा उज्जयिनी जाकर जो नर मरण समयूँ कि मुंज सचमुच क्रुद्ध हुआ है / 436.3) प्राप्त करनेवाले हैं, वे दिव्य परम पद मोक्ष पाते हैं। अन्य किसी दूसरे ( अवि ] "बाह बिछोडवि जाहि तुहुं, हउं तेवइ को दीसु? तीर्थ की बात न करें। 442.1) हिअय-ट्टिउ जइ नीसरइ, जाणउं मुञ्ज ! सरोसु // " [पक्षे ] "गङ्ग गर्मप्पिणु जो मुअइ, जो सिव-तित्थ गमेप्पि। | बाहू विच्छोट्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः? कीलदि तिदसावास-गउ, सो जम-लोउ जिणेप्पि | // 2 // " हृदयस्थितो यदि निःसरसि जाने मुश्च ! सरोवः // ] गङ्गां गत्वा यो मृतः यः शिवतीर्थं गत्वा। एप्प्येप्पिएवेव्येविणवः ||440|| क्रीडति त्रिदशावासगतः स यमलोकं जित्वा / / 2 / / चत्वारःक्त्वः पदे 'एप्पि, एवि एप्पिणुए विणु' / (जो पावनकारिणी गंगा (के तीर्थ को) जाकर तथा काशी तीर्थ सूत्रयोर्यः पृथग्योग उत्तरार्थः स इष्यते। पहुँचकर मरण प्राप्त करता है, वह यमलोक-जीतकर देवलोक में "जेप्पि असेसु कसाय-बलु, देप्पिणु अभउ जयस्सु / आनंदपूर्वक रहता है। 442.2) लेवि महव्वय सिवु लहहिं, झाएविणु तत्तस्सु // 1 // " तृनोऽणअः // 443 / / जित्वाऽशेष कषायबलं दत्त्वाऽभयं जगतः। प्रत्ययस्य तृनः स्थानेऽणआऽऽदेशो विधीयते। लात्वा महाव्रतानि शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् / / 1 / / बोल्लणउ बज्जणउ, तथा भसणउ स्मृतम् / (काम, क्रोध, मान,लोभ आदि सैन्य-शक्ति को नष्ट करके, संसार हत्थि मारणउं लोउ बोल्लणउ पऽहु वज्जणउ सुणउं भसणउ।।१।। को अपनी तरफ से अभय प्रदान करके, (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह हस्ती मारयिता: लोकः कथयिता / आदि) महाव्रत ग्रहण करके साधु भगवंत कल्याण प्राप्त करते हुए, पटहः वादयि शुनकः भाषिता / / 1 / / जन्ममरण से मोक्ष तत्व का ही ध्यान धरते हैं / 440.1) (हाथी मारता है। (हमें बचकर चलना चाहिए)लोग बोलते ही रहते तुम एवमणाणहमणहिं च // 441|| हैं। (यदि हमें नहीं सुनना है तो उनको प्रेरित नहीं करना चाहिए।) 'अणहिं अणहं एवं, अण एप्पिणु एविणु / ढोल बजता है-बजाया जाता है। (यदि हमें न सुनना हो तो अपने एप्पि एवि' अमी अष्टौ, प्रत्ययस्य तुमः पदे / कार्य में मग्न रहना चाहिए।) और कुत्ता भोंकता है। (हमें सावधान "देवं दुक्कर निअय-धणु, करण न तउ पडिहाइ / रहना चाहिए।) इनके स्वाभाविक प्रकृति दत्त गुण है। यह जनमान्य है।४४३.१) एम्वइ सुहु भुजणहं मणु, पर भञ्जणहिं न जाइ // 1 // इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः // 444|| दातुं दुष्करं निजकधनं कर्तुं न तपः प्रतिभाति। अपभ्रंशे 'जणि जणु नाइ नावइ नं नउ'। एवमेव सुखं भोक्तुं मनः परं भोक्तुं न याति // 1 // इत्यमी षट् प्रयुज्यन्ते, इवार्थे कोविदैः सदा। (स्वयं का धनदान करना कठिन लगता है-दुष्कर लगता है। तप [नाइ] "वलयावलि-निवडण-भएण,धण उद्धन्भुअजाइ। करना भी अच्छा नहीं लगता। मन तो यही चाहता है कि यों ही बिना वल्लह-विरह-महादहहो, थाह गवेसइ नाइ // 1 // " किसी कष्ट के सुख भोगा जाता रहे, परन्तु न सुख भोगना आता है वलयावलिनिपतनभयेन नायिका ऊर्ध्वभुजा याति। और न ही भोगा जाता है / 441.1) जेप्पि चएप्पिणु सयल धर, लेविणु तदु पालेवि / वल्लभविरहमहाहृदस्य स्ताघं गवेषयति इव ||1|| (नायिका सुंदरी (प्रियतम के विरह में दुबले हुए हाथ से) कंगन समूह विणु सन्ते तित्थेसरेण, को सक्कइ भुवणे वि?"||२|| गिर पड़ेगा इस भय से हाथ ऊँचे किये हुए चलती है। मानो (लोगों जेतुं त्यक्तुं सकलां धरां लातुं तपः पालयितुम्। को लगता है बेचारी) प्रियतम के विरहरूपी महासरोवर की थाह जानने विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि?||२|| के लिए हाथ ऊँचे किए हुए चल रही है / 444.1) (सकल पृथ्वी को जीतना और जीतकर त्याग कर देना तथा तपव्रत रवि अत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइण्णु न छिण् / धारण करना और उसका पालन करना / ऐसा सब करने में समर्थ चक्के खण्डु मुणालिअहे नउ जीवग्गलु दिण्णु |2|| भगवान तीर्थंकर शांतिनाथजी के सिवाय जगत में दूसरा कौन है? रव्यस्तमने समाकुलेन कण्ठे वितीर्णः न छिन्नः। 441.2) चक्रेण खण्डः मृणालिकायाः ननु जीवार्गलः दत्तः / / 2 / / गमेरेप्पिण्वेप्प्योरेलुंग वा // 442|| (सूर्यास्त होने पर (चक्रवाकी के विरह में) चक्रवाक पक्षी ने गम-धातोः परौ यो स्तः, 'एप्पि एप्पिणु' इत्यम्। मृणालिनी-कमल के डंढल का कंठ में डाला। उसे खाने के लिए चूरा तयोर् एतो लुग अत्रास्तु, विभाषेति विधीयते। भी नहीं किया और गले में कंठ से नीचे उतारा भी नहीं / मानो जीव "गम्प्पिणु वाणारसिहिं नर, अह उज्जेणिहिं गम्प्पि / शरीर से बाहर न निकले इसलिए डंढल का अवरोध लगा रखा है। मुआ परावहिं परम-पउ, दिव्वन्तरई म जम्पि"||१|| 444.2)