________________ सिद्धहेम.] (143) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] (हे मां, क्या करूँ, मुझे खूब पछतावा हो रहा है। अभी सांयकाल को मुझसे प्रियतम के साथ कलह हो गया है। सच ही कहा है कि विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है / 424.1) तादर्थ्य के हिं-तेहिं-रेसि-रेसिं-तणेणाः ||425 // 'केहि तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणा' इति पञ्च तु / निपाताः संप्रयोक्तव्यास्तादर्थ्य यत्र गम्यते। "ढोल्ला एह परिहासडी अइभ न कवणहि देसि / हउं छिज्जउं तउ केहिं पिअ ! तुहं पुणु अन्नहि रेसि"||१|| नायक ! एषा रीतिः अत्यद्भुता न कुत्राति दृष्टा / अहं क्षीये तव कृते प्रिय ! त्वं पुनरन्यस्यार्थे / / 1 / / (हे मेरे प्रियतम, यह तो बताओ कि ऐसा उपहास किस देश में होता / है कि मैं तुम्हारे लिए झूर रही हूँ और तुम किसी दूसरी के लिए। 425.1) पुनर्विनः स्वार्थे डुः // 426|| 'पुनर् विना' इत्येताभ्यां, स्वार्थे हुः प्रत्ययो भवेत् / पुनरर्थे पुणु ततो, विनाऽर्थे 'विणु' सिध्यति / सुमरिज्जइ तं बल्लहउँ जं वीसरइ मणाउँ / / जहिं पुणु सुमरणु जाउं गउं तहों नेहहोकइँ नाउँ ||1|| स्मर्यते तद् वल्लभं यद् विस्मर्यते मनाक्। यस्य पुनः स्मरणं जातं गतं तस्य स्नेहस्य किं नाम !!1 // (स्मरण होता है और अल्पकाल में बिसर जाता है वह प्रिय स्नेह है। जो फिर स्मरण किया है और चला जाता है उस स्नेह का नाम क्या है? 426.1) अवश्यमो डें-डौ // 427|| अवश्यमः परौ 'डें-डौ,'स्वार्थिको प्रत्ययौ स्मृतौ / तस्माद् अवश्यम् 'अवसें अवस' स्मर्यते बुधैः / जिब्मिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नई / मूलि विणट्ठई तुंबिणिहे अवसे सुक्कहि पण्णइं // 1 // जिह्वेन्द्रियं नायकं वशे कुरुत यस्य अधीनानि अन्यानि। मूले विनष्ट तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ||1|| (जीवन की मुख्य स्वादेन्द्री जीभ को वश में करने से अन्य इंद्रिया भी वशीभूत हो जाएगी। तुम्बड़ी (साधु-समाज का जल-पात्र) के मूल (जड़) के नष्ट होने पर पत्ते अपने आप सूख जाते हैं / 427.1) एकशसोऽडिः // 428|| स्वार्थे डिर् एकशस् शब्दाद्, रूपम् ‘एक्कसि' संस्मृतम् / एक्कसि सील-कलंकिअहं देज्जहिं पच्छित्ताई। जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु तसु पच्छित्ते काई ||1|| एकशः शीलकलङ्कितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि। यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं तस्य प्रायश्चित्तेन किम् // 1 // (जिनका एक बार शील खंडित हुआ उसके लिए प्रायश्चित (आलोचना-क्रिया) का व्यवधान है। परन्तु जो अनुदिन-रोजरोज अपना चरित्र भ्रष्ट करते हैं, उनके प्रायश्चित से क्या लाभ? 428.1) अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च // 426 // नाम्नः परे- 'ऽडड हुल्ल' इत्यमी स्वार्थिकास्त्रयः / तत्सन्नियोगे स्वार्थे क-प्रत्ययश्वेह लुप्यते / "विरहानल-जाल-करालिअउ पहिउ पन्थि जं दिट्ठउ। तं मेलवि सव्वहिं पंथिअहिं सोजि किअउ अग्गिट्ठउ" ||1|| विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः / तत् मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतोऽग्निष्टः / / 1 / / (विरह-अग्नि से जला हुआ कोई मृत पथिक दिखाई दिया तो अन्य पथिकों ने मिलकर उसे अग्नि पर रखा। 426.1) ममस्य 'दोसडा' डुल्लस्य कुडुल्ली निदश्यते। योगजाश्चेषाम् / / 430 // एषाम् अ डड-मुल्लाना, योगभेदेन निर्मिताः। जायन्ते प्रत्यया येऽत्र, तेऽपि स्वार्थे क्वचिन्मताः। [डडअ] 'फोडेन्ति जे हिअमउं' किसलेति [1/266 ] यलुक् मतः। [ मुल्लअ] 'चुन्नीहोइसई चुडुल्लउ' डुल्लडड श्रृणु-| (डुल्लडड) "सामिपसाउ सलअपिउ सीमा-संधिहिं वासु। पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु" ||1|| स्वामिप्रसादः सलज्जप्रियः सीमांसधौ वासः। प्रेक्ष्य बाहुबलं नायिका मुञ्चति निश्वासम्॥१॥ (प्रियतम का अपने प्रति अनुकम्पा भरा व्यवहार, उसका शर्मीला स्वभाव, प्रिय-योद्धा का सीमा पर वास तथा उसके बाहुबल का चिंतन मनन करते-करते प्रियतमा सुख की सांस भरने लगी। 430.1) आमि 'स्यादौ दीर्घ-हस्वौ'-[४/३३० इति दीर्घोऽत्र बुध्यताम्। 'बाहु बलुल्ल डउ' तु. प्रत्ययत्रयसंभवम्। स्त्रियां तदन्ताड्डीः // 431|| पूर्वसूत्रद्वयोक्तप्रत्ययान्ताद् डीः स्त्रियां भवेत्। "पहिआ दिट्ठी गोरडी दिट्ठी मगु निअन्त / अंसूसासेहिं कञ्चुआ तिंतुव्वाण करन्त" ||1|| पथिक ! दृष्टा गौरी, दृष्ट्या मागं पश्यन्ती। अश्रूच्छासाभ्यां कञ्चुकं तेमितोदातं कुर्वती / / 1 / / ('हे पथिक, क्या तुमने मेरी प्रियतमा को देखा है ? 'हां, तुम्हारी प्रतिक्षा करती हुई और अश्रुजल से अपनी कंचुकी को भिगोती हुई तथा उर्वश्वासों से सुकाती हुई देखी गई है।' 430.1) आन्तान्ताड्डाः / / 432 / स्त्रियाम् अप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्ताद् 'डा'ऽस्तु नैव डीः / "पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ / तहो विरहहो नासंतअहो धूलडिण्ण वि न दिट्ठ'||१||