________________ [सिद्धहेम०] (142) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] रतिवशभ्रमणशीलः कराग्रोल्लालितं गृहे एव कुन्तं गणयति स मूढः // 13 // (जो केवल मन ही मन में व्याकुल होता है, चिंता करता है मगर किसी को आवश्यकता पड़ने पर एक दाम भी नहीं देता वह महामूर्ख है। रति-इच्छा से इधर-उधर भटकेन वाला और घर के अन्दर ही अँगुलियों के भाले नचानेवाला भी एक नंबर का मूर्ख है। 422.13) चले हि चलन्ते लोअणे हि जे तेइँ दिट्ठा बालि। तहि मयरद्धय-दडवडउ पडइ अपूरइ कालि // 14 // चलाभ्यां वलमानाभ्यां लोचनाभ्यां ये त्वया दृष्टाः बाले॥ तेषु मकरध्वजावस्कन्दः पतति अपूर्णे काले // 14 // (हे बाले, चलते-चलते तेरे चंचल नयनों से, जो कोई देखा गया है उस पर अपरिपक्व अवस्था में ही रति का शीघ्र प्रहार होने लगा है। (कामदेव सवार हो जाता है / 422.14) गयउ सु केसरि पिअहु जलु निचिन्तइँ हरिणाई / जसु केरएँ हुंकारडएं मुहुहुँ पडन्ति तृणाई // 15|| गतः स केसरी पिबत जलं निश्चितं हरिणाः। यस्य संबन्धिना हुंकारेण मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि // 15 // (हे मित्र हरिणों , जिसकी गर्जना से, तुम्हारे मुख से तृण गिर पड़ता था, वह केसरी सिंह चला गया है। निश्चिंत होकर जल पान करो। 422.15) सत्थावत्थहँ आलवणु साहु वि लोउ करेइ / आदन्नहँ मम्मीसडी जो सज्जणु सो देइ // 16 // स्वस्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोकः करोति। आर्तानां मा भैषीः इति यः सुजनः स ददाति // 16 // (सुखी लोगों के साथ संसार के लोग बोलते चलते रहते हैं। परन्तु दुःखी लोगों से 'घबराव नहीं' ऐसा बोलनेवाले केवल सज्जन ही होते हैं। 422.16) जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्ध-सहाव / लोहे फुट्टणएण जिवे घणा-सहेसइ ताव ||17|| यदि रज्यसे यद्यद् दृष्ट तस्मिन् हृदय मुग्धस्वभाव / लोहेन स्फुटता यथा धनः (तापः) सहिष्यते तावत्॥१७|| (अरे औ हृदय, जो भी मिलता है, उन सभी पर आसक्त हो जाते हो। इसका परिणाम यह होगा कि फटनेवाले ठंडे लोहे की तरह तुम्हें घन के प्रहार जैसे दुःख उठाने पड़ेंगे। [घडलः "जिद सुपुरिस तिवँ घसलई जित नइ तिवँ क्लणाई। जिवँ डोङ्गर तिर्वं कोट्टरई हिआ विसूरहि काई"। यथा सुपुरुषास्तथा झगटका यथा नद्यस्तथा वलनानि। यथा गिरयस्तथा कोटराणि हृदय ! खिद्यसे कथम् ? 'विट्टाओ' ऽस्पृश्यसंसर्गो, 'द्रवक्को' भयवाचकः / आत्मीयो 'ऽप्पण, इत्युक्तो - 'निचट्टो' गाढ ईरितः / द्रहिर् दृष्टी, रवण्णस्तु रम्ये, खेडुस्तु क्रीड़ने / स्यात् कोडः कौतुके सङ्कलस्त्वसाधारणे तथा / अनुले दारिः, हेल्लिः हेसखि, नवखो नवे। अवस्कन्दे दडवडः, पृथगर्थे जुअजुअः। सम्बन्ध्यर्थे केरतणौ, मूढेऽर्थे वढ-नालिऔ। मा भैषीरिति मम्भीसा, यद्यर्थे छुडुर् इष्यते / 'यद्यद् दृष्ट तत्तद्' इत्यर्थे जाइट्ठिआ स्मृता। हुहुरु-घुग्धादयः शब्द-चेष्टानुकरणयोः / / 423 / / स्युर् हुहुरु-प्रभृतयः, शब्दानुकरणे तथा। चेष्टाऽनुकरणे घुग्घादयः शब्दा व्यवस्थिताः। "मई जाणिउं बुड्डीस हउं पेम्म-द्रहि हुहुरु त्ति / नवरि अचिन्तिय संपडिअ विप्पिय नाव झडत्ति ||1|| मया ज्ञातं बुडिष्यामि अहं प्रेमहदे हुहुरुरिति। केवलमचिन्तित्वा संपतिता (संप्राप्ता) विप्रियनौः झटिति / / 1 / / (अरे, मैने तो सोचा था कि 'हुहरु' बोलते हुए प्रेमसागर में डुबकियाँ लगाने लगूंगी। परन्तु मैने कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे अकस्मात् ही विरह-नौका मिल जाएगी। 432.1) अज्जवि नाहु महुज्जि घरि सिद्धत्था वन्देइ / ताउंजि विरहु गवक्खेहि मक्कड़-घुग्घिउ देइ" ||2|| अद्यापि नाथो ममैव गृहे सिद्धार्थान् वन्दते। तावदेव विरहो गवाक्षेषु मर्कटचेष्टाः ददाति / / 2 / / (मेरा स्वामी जिनवर-बिम्ब वंदन करके आज दिन में घर पर ही है। फिर भी उससे रहा नहीं जाता और विरह में गवाक्ष में बैठकर बंदर जैसी चेष्टाएँ कर रहा है। 423.2) खज्जइ नउ कसरक्के हिं पिज्जइ नउ घुण्डे हि / एम्वई होइ सुहच्छडी पिएँ दिढे नयणेहि // 3 // खाद्यतेन कसरत्कशब्दं कृत्वा, पीयते न छुट्शब्द कृत्वा। एवमपि भवति सुखसिका प्रिये दृष्टि नयनाभ्याम् / / 3 / / (प्रियतम के नयनपथ में आते ही न जमकर खाया जाता है और न ही ढंग से पानी पिया जाता है, लेकिन फिर भी प्रियतम के दर्शन लाभ से सुखद अनुभव होता है। 423.3) सिरि जर-खण्डी लोअडी गलि मणियडा न वीस / तो वि गोट्ठडा कराविआ मुद्धएँ उट्ठ-बईस // 4 // शिरसि जराखण्डितालोमपुटी (कम्बल) गले मणयः न विंशतिः। तथापि गोष्ठस्थाःकारिताः मुग्धया उत्थानोपवेशनम् // 4 // (उस महिला के शिर पर जीर्ण-शीर्ण कमली थी और उसके गले में मणकों की कोई माला भी नहीं थी, फिर भी उसने मंडली के सदस्यों से उठक-बैठक करवाई। 423.4) घइमादयोऽनर्थकाः // 424|| 'घइम्' इत्यादयः शब्दाः, निपाताः परिकीर्तिताः। वेद्या अनर्थकास्तेऽत्र, 'घई खाई' निदर्शनम् / अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि / घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि / / 1 / अम्ब पश्चात्तापः प्रियः कलहायितः विकाले / नूनं विपरीताः बुद्धिः भवति विनाशस्य काले // 1 //