Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 01
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 922
________________ अमरदत्त ७३८-अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अमहग्घय नो मह तेसु पओसो, मणयं पिन भत्तिमित्तमवि किंतु। . देवगुरुगुणविओगा, तेसु उदासत्तणं अंब!!१११|| गयरागदोसमोह- तणेण देवस्स होइ देवत्तं / तचरियागमपडिमाण दंसणा देवतं नेयं // 112 / सिवसाहगगुणगणगउरवेण सत्थत्थसम्मगिरणेण। इह गुरुणो वि गुरुत्तं, होइ जहत्थं पसत्थं च / / 113 // ता अंब ! पणमिय जिणं, नमिज्जए तिहुयणे दि कह अन्नो? नहु रोयइ लवणजलं, पीए खीरोहियजलम्मि // 114|| इय तेणं पडिभणिया, जणणी मोणं अकासि सविसाया। अह कुविया कुलदेवी, से दसइ भीसणसयाई।।११५॥ नय तस्स किं पिपहवइ, सत्तिक्कधणस्स धम्मनिरयस्स। वहइपओसं अहियं, तो अमरा अमरदत्तम्मि।।११६|| पच्चक्खीहोउ कयावि तीए सो निठुरं इमं भणिओ। रे कूडधम्मगव्विय!,न पणामं मज्झ वि करेसि।।११७।। ता इण्हि हणेमि तुम, दढधम्मोतं भणेइ अमरो वि। जइ आउयं पि बलवं, तो मारिजइन को वितए॥११॥ अह कह वितं पितुटुं, मरियव्ये इहरहा वि ता जाए। को सदसणममलं, मइलइ भवकोडिसयदुलह ? ||116 / / तो अमरा सामरिसा, तस्स सरीरे विउव्वए पावा। सीसच्छिसवणउदरंतनिस्सिया वेयणा तिव्वा / / 120 / / जा इक्का विहुजीय, हरेइ नियमेण इयरपुरिसस्स। दढसत्तो तह वि इमो, एयं चित्ते विचिंतेइ / / 121 / / रे जीव ! तए पत्तो, सिवपुरपहपत्थिएण सत्थाहो। देवो सिरिअरिहंतो, अपत्तपुव्वो भवअरन्ने / / 122|| ता इमिण चिय हियय-हिएण मरणं पितुज्झ भद्दकरं। एयम्मि पुण विमुक्के, होसि जियंतो वि तमणाहो // 123 / / कित्तियमित्तं च इमं, दुक्खं तुह दंसणे अपत्तम्मि। पाविय अणंतपुग्गल-परियट्टदुहस्सनरएसु॥१२४|| किञ्च - पडिकूला हवउ सुरा, मायापियरो परंमुहा हुंतु। पीडंतु सरीरं वाहिणो वि खिसंतु सयणा य॥१२५।। निवडंतु अवायाओ, गच्छउलच्छी वि केवलं इक्का। मा जाउ जिणे भत्ती, तदुत्ततत्तेसु तित्ती य / / 126|| इयनिच्छयप्पहाणं, तच्चित्तं, नाउ ओहिणा अमरा। तस्सत्तरंजियमणा, भणेइ संहरिय उवसग्गे।।१२७।। धन्नोऽसि तं महासय !, ते चिय सलहिज्जसे तिहुयणम्मि। सिरिवीयरायचरणेसु जस्स तुह इय दढाऽऽसत्ती // 128 / / अज्जप्पभिई मज्झ वि, सुचिय देवो गुरू वि सो चेव। तत्तं पितं पमाणं, जंपडिवन्नं तए धीर ! / / 126|| इय भणिरीए तीए, मुक्का अमरस्स उवरि तुट्ठाए। परिमलमिलिय अलिउला, दसद्धवन्ना कुसुमवुट्ठी // 130 / / तंदठु महच्छरियं, तप्पियरो पुरजणो ससुरवग्गो। अमराए वयणेणं, जाओ जिणदंसणे भत्तो।।१३१।। ससुरेण पहिडेणं, तो धूया पेसिया पइगिहम्मि। तप्पभिइ अमरदत्तो, सकुडुबो कुणइ जिणधम्म / / 132 // सुचिरं निम्मलदसण-सारं पालिय निहत्थधम्ममिमो। . जाओ पाणए अमरो, महाविदेहम्मि सिज्झिहिइ // 133 / / अमरदत्तचरित्रमिदं मुदा, गतमलं परिभाव्य विवेकिनः। भजत दर्शनशुद्धिमनुत्तरां, भवत येन महोदयशालिनः / / 134|| ध००। अमरपरिग्गहिय-त्रि०(अमरपरिगृहीत) देवैः स्वीकृते, बृ०३ उ०। अमरप्पभ-पुं०(अमरप्रभ) विक्रमसंवत्सराणां चतुर्दशशतके विद्यमाने भक्तामरस्तोत्रटीकाकारके कल्याणमन्दिरस्तोत्रटीकाकारकगुणसागरगुरुसागरचन्द्रस्य गुरौ, जै० इ०। अमरवइ-पुं०(अमरपति) देवेन्द्रे,"अमरवइमाणिभद्दे |भ० ३श०५ उ०। प्रज्ञा०। मल्लिनाथेनाऽर्हता सहाऽनुप्रव्रजिते ज्ञातकुमारे, ज्ञा०५ अ०। अमरवर-पुं०(अमरवर) महामहर्द्धिकदेवे, तं०1 अमरसागर-पुं०(अमरसागर) अञ्चलगच्छीये कल्याणसागर-सूरिशिष्ये, अयं च उदयपुरनगरे वैक्रमीये 1664 वर्षे जन्म लब्ध्वा 1705 वर्षे प्रव्रज्य 1714 वर्षे खम्भातनगरे आचार्यपदवी प्राप्तः। ततः 1718 वर्षे भुजनगरे गच्छेशपदंलेभे।ततःसं०१७६२ मितेधवलकपुरे स्वर्ग गतः। जै० इ०1 अमरसुह-न०(अमरसुख) देवसुखे, आव०४ अ० अमरसेण-पुं०(अमरसेन) मल्लिनाथेनाऽर्हता सहाऽनुप्रव्रजिते स्वनामख्याते ज्ञातकुमारे, ज्ञा० 8 अ०। स्वनामख्याते राजा- ऽन्तरे च ।दर्श अमरिस -पुं०(अमर्ष) न / मृष् / घञ्। “शर्षतप्तवजे वा" ||2|| इति संयुक्तस्याऽन्त्यव्यञ्जनस्येकारः / प्रा०२ पाद / मत्सरविशेषे, आ०म०द्वि०। महाकदाग्रहे, उत्त०३४ अ० कोपे, प्रश्न०३ आश्रद्वा० / अमरिसण-त्रि०(अमर्षण) अपराधाऽसहिष्णौ, प्रश्न०४ आश्र० द्वा०॥ अपराधिष्वकृतक्षमे, सा * अमसृण-पुं०। प्रयोजनेष्वनलसे, स० अमरिसिय-त्रि०(अमर्षित) अमर्षः संजातोऽस्याऽमर्षितः / संजातमत्सरविशेषे, आ०म०द्वि० अमल-पुं०(अमल) न विद्यते मल इव मलो निसर्गनिर्मलजीवमालिन्यापादनहेतुत्वादष्ट प्रकारकं कर्म येषां ते अमलाः / सिद्धेषु प्रव०२१४ द्वार / निर्मलमात्रे, त्रि० आ०म०प्र०) ऋषभदेवस्य सप्तमे पुत्रे, कल्प०७ क्ष। अमलचंद-पुं०(अमलचन्द्र) वैक्रमीये 1158 वर्षे भृगुकच्छे विहरति स्वनामख्याते गणिनि, जै० इ०॥ अमलवाहण-पुं०(अमलवाहन) विमलवाहने महापद्मतीर्थकरे, ती०२१ कल्प। अमला-स्त्री०(अमला) स्वनामख्यातायां शक्र ाऽग्रमहिष्याम्, भ० 10 श० 5 उ०। ती०। स्था०। ('अग्गमहिसी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 173 पृष्ठे तत्पूर्वाऽपरभवावुक्तौ) अमहग्घय-त्रि०(अमहार्घक) महती अर्घा यस्य, स महाघः। महाघ एव महाऽर्धकः, न महाघकोऽमहाऽर्घकः / अबहुमूल्ये, उत्त०२० अ०॥

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