Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 01
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 787
________________ अपरिणामग 603 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपरिसाइ(ण) अपरिणामग-पुं०(अपरिणामक) न विद्यते परिणामो यदुक्तार्थ-परिणमनं ___ अनादिको वा सपर्यवसितो भवविशेषः / जी०२ प्रति०। (कायापरीतायस्य स तथा। व्य०१ उ०। उत्सर्गकरुचौ पुरुषे, नं०जी०१ प्रतिका दिव्याख्यानं 'अंतर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे -77 पृष्ठे दृश्यम्) अपरिणामकमाह अपरिमूय-त्रि०(अपरिभूत) अपरिभवनीये, स्था०७ ठा०। जो दव्वखित्तकयकालभावओ जं जहा जिणक्खायं / अपरिभोग-पुं०(अपरिभोग) परिभोगाभावे, स्था०५ ठा०२ उ०। तं तह असद्दहतं, जाण अपरिणामयं साहुं // नि०चू०। यो द्रव्यक्षेत्रकालभावकृतं तद्न श्रद्दधाति तं तथा अश्रद्दधतं जानीहि / अपरिमाण-त्रि०(अपरिमाण) न विद्यते परिमाणं यस्य स तथा / क्षेत्रतः अपरिणामकं साधुम् / बृ०१ उ०पं०व०। ('परिणाम' शब्दव्याख्या- कालतो वा इयत्तारहिते, "अपरिमाणं वि आणाइ, इहमेगेसिमाहियं"। नावसरे अतिपरिणामकस्यापिव्याख्याऽभ्यधायि, तत्रैवास्यापि शब्दस्य सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०नि००। व्याख्या दृष्टान्तश्च द्रष्टव्यः) अपरिमिय-त्रि०(अपरिमित) अपरिमाणे, न परिमितोऽपरिमितः / अनु०॥ अपरिणिव्वाण-न०(अपरिनिर्वाण) परि समन्ताद् निर्वाणं सुखं परिमाणरहिते, "अपरिमियमहिच्छकलुसमतिवाउवेग-उद्धम्ममाणं' परिनिर्वाणं, न परिनिर्वाणमपरिनिर्वाणम्। समन्तात् शरीरमनःपीडाकरे, अपरिमिता अपरिमाणा ये महेच्छा बृहदभिलाषा अविरता लोकास्तेषा "सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं" / आचा०१ कलुषाऽविशुद्धामतिः स एव वायुवेगस्तेन उत्पाद्यमानं यत्तत्तथा। प्रश्न०३ श्रु०१ अ०६ उ०। संव०द्वा०। आव० "अप-रिमियनाणदंसणधरेर्हि' (तीर्थकृभिः ) अपरिणत्त-त्रि०(अपरिज्ञप्त) अज्ञापिते, कल्प०) प्रश्न०१ संव० द्वा०ा बृ०ा दर्श० अनन्ते, औ०। बृहति, "अपरिमियं च अपरिण्णाय-त्रि०(अपरिज्ञात) ज्ञपरिज्ञया स्वरूपोऽनवगते, वसाणे, कव्वं गज्जे ति नायव्वं"।दश०२ अ०॥ प्रत्याख्यानपरिज्ञया चाप्रत्याख्याते, स्था०५ ठा०२ उ०। आचा०। अपरिमियपरिग्गह-पुं०(अपरिमितपरिग्रह) अपरिमितश्वासौ परिग्रहणं अपरितंत-त्रि०(अपरितान्त) अपरितान्ते परिश्रममगच्छति, नं० प्रश्न०। परिग्रहः। परिमाणरहितपरिग्रहे, आव०६ अ०। पं०भा०। 'अपरितन्तो सुत्तत्थतदुभएसु' / पं०चूला अपरिमियबल-त्रि०(अपरिमितबल) अपरिमितं बलं यस्य सोअपरितंतजोगि(ण)-त्रि०(अपरितान्तयोगिन) अपरितान्तोऽ-विश्रान्तो ऽपरिमितबलः / निर्विशेषवीर्यान्तरायक्षयादनन्तबलशालिनि, "तत्तो योगः समाधिर्यस्य सोऽपरितान्तयोगः / स्वार्थिक नन्तत्वाच्चापरि बला बलभद्दा, अपरिमियबला जिणवरिंदा"। विशे०। सूत्र। "अपरिमियबलवीरियजुत्ते" अपरिमितानि बलादीनि, तैर्युक्तो, यः स तान्तयोगी। अन्त०७ वर्ग। अविश्रान्तसमाधौ, अणु०३वर्ग।अपरितान्ता अश्रान्ता योगा मनःप्रभृतयः सदनुष्ठानेषु यस्य स तथा तत तथा। उपा०२ अ०) अपरिश्रान्तसंयमे प्रयते, प्रश्न०१ संव०द्वा०। अपरिमियमणंततण्हा-स्त्री०(अपरिमितानन्ततृष्णा) अपरिअपरितावणया-स्त्री०(अपरितापनता) शरीरपरितापानुत्पादने, भ०५ माणद्रव्यविषया अनन्ता वाऽक्षया या तृष्णाऽविद्यमानद्रव्याश०६ उ०। परितापानुत्पादने, ध०३ अधि०। समन्ताच्छरी ऽऽयेच्छा। अपरिमितवाञ्छायाम, प्रश्न०३ संव० द्वा०। रसन्तापपरिहारे, पा०। अपरिमियसत्तजुत्त-त्रि०(अपरिमितसत्त्वयुक्त) अपरिमित-मियत्तारहितं अपरिताविय-त्रि०(अपरितापित) स्वतः परतो वाऽनुपजातकाय यत्सत्त्वं धृतिबलं तेन युक्तः। अपरिमितधैर्ये, बृ०३ उ०। मनःपरितापे, जी०३ प्रति०। अपरियत्तमाणा-स्त्री०(अपरावर्तमाना) न परावर्तमाना अपरा-वर्तमाना, पं०सं०३ द्वा०ा परावर्तमानप्रकृतिभिन्नासुकर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वा०। अपरित्त-पुं०(अपरीत) न०त०। साधारणशरीरे, स्था०३ ठा०२ उ०। (मूलप्रकृतीनां बन्धादिप्रस्तावे 'कम्म' शब्दे तृतीये भागे 261 पृष्ठे अनन्तसंसारे वाजीवे, भ०६श०३ उ०॥ दर्शयिष्यन्त एताः) अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-कायअपरित्ते य, संसारअपरित्तेय। अपरियाइत्ता-अव्य०(अपर्यादाय) परितः समन्तादगृहीत्वेत्यर्थे, स्था०२ ठा०१ उ०। सामस्त्येनागृहीते, स्था०१ ठा०१ उ०। कायापरीतोऽनन्तकायिकः; संसारापरीतः सम्यक्त्वादिनाऽकृतपरिमितसंसारः / प्रज्ञा०१८ पद / कायापरीतः साधारणः, अपरियाणित्ता-अव्य०(अपरिज्ञाय) ज्ञपरिज्ञयाऽज्ञात्वा प्रत्यासंसारापरीतः कृष्णपाक्षिकः / जी०२ प्रतिका ख्यानपरिज्ञया चाप्रत्याख्यायेत्यर्थे, स्था०२ ठा०१ उ०। तत्र अपरियार-त्रि०(अपरिचार) न० ब०। प्रविचारणा मैथुनो-पसेवारहिते, संसारअपरित्ते दुविहे पण्णत्ते।तं जहा-अणादिए अपज्जवसिए, अप्रविचारे, प्रज्ञा०३४ पद। अणाइए सपज्जवसिए। अपरिवडिय-त्रि०(अप्रतिपतित) स्थिरे, पञ्चा०७ विव०। संसारापरीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि अपरिसा(स्सा) इ (वि) (ण)-पुं०(अपरिस्राविन्) परिस्रवितुंशीलमस्य संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः। परिस्रावी। न परिस्रावी अपरिस्रावी / द्रव्यतः स्राव-रहिते तुम्बकादौ, प्रज्ञा०१८ पद ! अनादिकोऽपर्यवसितो येन जातुचिदपि सिद्धिं गन्ता, | भावतः श्रुतार्थक्षरणाकारकेऽनुयोगदानयोग्ये! बृ०॥

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