Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 01
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 789
________________ अपवग्ग 605 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अपाणय तं०। दुःखविगमः। सर्वशारीरमानसाऽशर्मविरहः, सर्वजीवलोकाऽसाधार- गोणे साणे व्व वते, ओभावण खिंसणा कुलघरे य। णाऽऽनन्दाऽनुभवश्चेति / ध०१ अधि०। णासह खइय लज्जा, सुण्हाए होति दिटुंतो॥ अपवग्गबीय-न०(अपवर्गबीज) मोक्षस्य कारणे, षो०६ विव०। पात्रकमन्तरेण यत्र तत्र समुदेशनीयम्। ततो लोको ब्रूयाद्यथा गौर्यत्रैव अप(प्प)वत्तण-न०(अप्रवर्तन) अप्रवृत्तौ, पञ्चा०४ विव०॥ चारिं प्राप्नोति तत्रैवालेह्य चरति। यथा वा श्वानो यत्रैव स्वल्पमप्याहार अपवाय-पुं०(अपवाद) द्वितीयपदे, निचू०२० उ०। लभते, तत्रैव निस्त्रपो भुङ्क्ते / एवमेता अपि गोश्वानसदृश्यो यत्रैव प्राप्नुवन्ति, तत्रैव भुञ्जते। तथा लोकस्य पुरतः समुद्दिशन्ति-अहो ! अप(प्प)वित्त-त्रि०(अप्रवृत्त) तत्त्वतो व्यावृत्ते, पञ्चा०१४ विव०। आभिर्गोव्रतं श्वानव्रतं वा प्रतिपन्नं, एवं न प्रव्रजना भवति। (खिंसणा अप(प्प)वित्ति-स्त्री०(अप्रवृत्ति) गाढं मनोवाक्कायानामनवतारे, ध०१ कुलघरे य त्ति) तास्तथा भुञ्जाना दृष्ट्वा तदीयकुलगृहे गत्या लोकः अधिक खिंसां कुर्यात् / यथा-युष्मदीया दुहितरः स्नुषा वा, याः पूर्व अप(प्प)संसणिज्ज-त्रि०(अप्रशंसनीय) साधुजनैः प्रशंसां कर्तुमयोग्ये, चन्द्रसूर्यकिरणैरप्यस्पृष्टगात्रास्ताः साम्प्रतं सर्वलोकपुरतो गाव इव चरन्त्यो हिण्डन्ते / एवमुक्ते ते भूयस्ताः स्वगृहमानयन्ति / 'नासढुं' अप(प्प)सज्झ-त्रि०(अप्रसह्य) अप्रधृष्ये, व्य०७ उ०) अत्यर्थं चखादितं भक्षणं लोकस्यपुरतः सर्वासु कुर्वतीषुलोको ब्रूयात् - अप(प्प)सज्झपुरिसाणुग-त्रि०(अप्रसह्यपुरुषानुग) अप्रधृष्ट अहो ! बहुभक्षकाः, अस्तिस्त्रीणांचलज्जा विभूषणं, सा चैतासांनास्तीति / पुरुषानुसारिणि, (व्य०) "गणिणी गुणसंपण्णाऽपसज्झपुरिसा अत्र च लज्जायां स्नुषा दृष्टान्तो भवति। स च द्विधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च / णुगा"। व्य०२ उ०। प्रशस्तं तावदाहअप(प्प)सत्थ-त्रि०(अप्रशस्त)न०ता अशोभने, "अपसत्थे संजमे उचासणम्मि सुण्हा, ण णिसीयइ णावि भासए उच्चं। चयइ" आव०५ अ० विशे० भ० व्या अश्रेयसि, अनादेये,स्था०३ णावि पगासे मुंजइ, गिण्हइ वि य ण णाम अप्पाणं // ठा०३ उ०। बलवर्णादिनिमित्तं प्रतिसेविनि, व्य०१० उ०। यथा- स्नुषा वधूरुचैरासने न निषीदति, नाप्येवं महता शब्देन भाषते, अपसत्थखेत्त-न०(अप्रशस्तक्षेत्र) शरीरादिक्षेत्रे, नि०चू०१० उ०। न च प्रकाशे भूभागे भुङ्क्ते, आत्मीयं च नाम न गृह्णाति, न प्रकटयति, अपसत्थदटव-न०(अप्रशस्तद्रव्य) अस्थ्यादौ अशोभनद्रव्ये, एवं संयतीभिरपि भवितव्यम्। नि०चू०११ उ०। अप्रशस्तस्नुषादृष्टान्तः पुनरयम्अपसत्थलेस्सा-स्त्री०(अप्रशस्तलेश्या) कृष्णनीलकापोतासु तिसृषु अहवा महापयाणिं, सुण्हा ससुरे य इक्कमेक्कस्स। लेश्यासु, उत्त०३४ अन दलमाणेण विणासं, लज्जानासेण पावंति॥ अपसत्थविहगगतिनाम-न०(अप्रशस्तविहगगतिनामन् ) विहा अथवा प्रकारान्तरेण स्नुषादृष्टान्तः क्रियते-महापदानि विकृष्टतराणि योगतिनामभेदे, यदुदयात्पुनरप्रशस्ता गतिर्भवति, यथा खरादीनां, पदानि, स्नुषा श्वशुरश्चैकैकस्य, परस्परं प्रयच्छतो, यथा लज्जानाशेन तदप्रशस्तविहायोगतिनाम / कर्म०६ कर्म०। विनाशं प्राप्नुतः, तथा संयत्यपि निर्लज्जा विनश्यतीत्यक्षरार्थः / अपसारिया-स्त्री०(अपसारिका) पटालिकायाम, बृ०२ उ० भावार्थस्त्वयम्-एगस्स धिज्जाइयस्स भजाए मयाए पुत्तेण से अट्ठिया णिमायत्तिका ओगंगनीयाणि इयरेहिं सुण्हाससुरेहिं हासखिड्डाइयं करेंतेहिं अपसु-पुं०(अपशु) न० ब०॥ द्विपदचतुष्पदादि (परिग्रह) रहिते, “समणे निल्लज्जत्तणओ निस्सेणिआरुहित्ता अतिघायपुव्वगं विगिट्टतराइंपयाई भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोगी"। आचा०२ देंतेहिं एक्कमेक्कस्स सागारियं पडुप्पायं दो वि विणवाणि, एवं निल्लज्जाए श्रु०७ अ०१ उ०॥ विणासो हुन्जा। अपस्समाण-त्रि०(अपश्यत्) अनीक्षमाणे, "अपस्समाणे पस्सामि, देवे द्वितीयपदमाहजक्खे य गुज्झगे"।स०३० सम०। पायस्स वि तेणहिए, झामिएँ छुढे व सावयभए वा। अपहिट्ठ-त्रि०(अप्रहृष्ट) अहसति, दश०५ अ०१ उ०। बोहिभए खित्ता एव, अपाइया हुज बिइयपए। अपहु-पुं०(अप्रभु) भृतकादौ, ध०३ अधि०। पात्रस्याभावे स्तेनकतया हते अग्निभावाद्ध्यामिते दकपूरेण क्षिप्ते पात्रे अपहुव्वंत-त्रि०(अप्रभुवत्) अप्रभाववति, व्य०१० उ०। श्वापदभये बोधिकभये वाशीध्र पात्राणि परित्यज्य नष्टा सती क्षिप्तचित्ता अपाइया-स्त्री०(अपात्रिका) पावरहितायाम् (निर्ग्रन्थ्याम), वा, आदि शब्दाद्यक्षाविष्टा वा अपात्रिका पावरहिता द्वितीयपदे भवेत्। निर्ग्रन्थ्या पात्ररहितया न भवितव्यम् - बृ०५ उ०। नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए हुंतए। अपाउड-त्रि०(अप्रावृत) न विद्यते प्रावृतं प्रावरणं यस्येत्यप्रावृतकः / नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या अपात्रायाः पात्ररहिताया भवितुमिति सत्रार्थः। / स्था०५ ठा०१ उ०। औपक्षिकाद्युपरितनोपकरणरहिते, बृ५ उ०। अथ भाष्यम् अपाणय-त्रि०(अपानक) जलवर्जिते, जं०२ वक्ष० / चतु

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