________________ (146) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु / शौरसेनीवत् // 446|| नावइ गुरु-मच्छर-भरिउ जलणि पवीसइ लोणु ||3|| अपभ्रंशे शौरसेनीवत् कार्यं प्रायशः स्मृतम् / प्रेक्ष्य मुखं जीनवरस्य दीर्घनयनं सलावण्यम् / सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदु ननु गुरुमत्सरभरित ज्वलने प्रविशति लवणम् // 3 // खणु कण्ठि पालंबु किदु रदिए / (जन्म-मरण से तारने का घाट-तीर्थ दर्शनावाले भगवान तीर्थंकर विहिदु खणु मुण्डमालिऐं जं पणएण जिनवर के मुख-मंडल और दीर्घ आयतलोचन का लावण्य माधुर्य तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्डु कामहो ||1|| युक्त सौन्दर्य देखकर अत्यंत ईर्षालु बने (लावण्य) ने आघात सहन शीर्षे शिखरः क्षणं विनिर्मापितम्। न करने के कारण जलनिधि-समुद्र में प्रवेश कर लिया-समा गया। तभी से समुद्र जल नमक के स्वाद से युक्त हो गया। 444.3) क्षणं कण्ठे प्रालम्बं कृत रत्याः। चम्पय-कुसुमहो” मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ / विहितं क्षणं मुण्डमालिकायां / सोहइ इन्दनीलु जणि कणइ बइठ्ठउ // 4 // तन्नमत कुसुमदामकोदण्ड कामस्य / / 1 / / चम्पककुसुमस्य मध्ये सखि भ्रमरः प्रविष्टः / (कामदेव ने पुष्प-धनुष्य को आनंद में आकर क्षणभर के लिए शेखर शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशितः // 4 // के गजरा के स्वरूप में रखा, क्षणवार रति के कंठ पर लटकते हुए (हे सखि, देख तोसही, चम्पा के फूलों के बीच में भ्रमर ने प्रवेश किया | रखा, फिर क्षणभर अपने गले में डाला। कामदेव के उस पुष्पधनुष्य है। मानों सोने में जड़ा हुआ नीलमणि हो, ऐसा शोभायमान हो रहा है। को नमस्कार करो।४४८.१) 444.4) व्यत्ययश्च / / 447 // लिङ् गमतन्त्रम् // 445 / / भाषाणां प्राकृतादीनां, लक्षणानि तु यानि हि / अत्र लिङ्ग व्यभिचारि, प्रायो भवति तेन हि। तेषां च व्यत्ययः प्रायो, भवेदित्युपदिश्यते। स्त्रीपुंनपुंसकं लिङ्गं, यथेष्टं संप्रवर्तते। तिष्ठश्चिष्ठति [ 4268] मागध्यां, यथा कार्य प्रदर्शितम् / "अब्मा लग्गा डुङ्गरिहिं, पहिउ रउन्तउ जाइ। तत् पैशाची-शौरसेनी-प्राकृतेष्वपि जायते / जो एहा गिरि-गिलण-मणु, सो किं धणहे धणाइ॥१॥" अपभ्रंशे तु रेफस्याधो वा लुक् स्यादितीरितम्। अभ्राणि लग्नानि पर्वतेषु पथिको रटन् याति / मागध्यामपि तत् कार्य , भवतीति निदर्शनम् / य इच्छति गिरिगलनमनाः स किं नायिकायाः धृणानि?।।१।। न केवलं हि भाषालक्षणानां व्यत्ययः कृतः / (मेघ पर्वत को स्पर्श कर रहे हैं। पथिक आंसू बहाते हुए जा रहा त्याधादेशानामपि तु, व्यत्ययो दृश्यते यतः / है। वह देखता और सोचता है- पर्वतों को निगलने की इच्छा करने वर्तमाने प्रसिद्धा ये, ते भूतेऽपि भवन्ति तु। वाले ये मेघ क्या उसकी प्रियतमा के प्राणों पर दया करेंगे? (यह भूतकाले प्रसिद्धास्तु, वर्तमानेऽपि वीक्षिताः / सोचकर पथिक अत्यंत दुःखी है। 445.1) यथा 'पेच्छई' इत्येतत्, 'प्रेक्षाञ्चक्रे' क्वचिन्मतम् / पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउं खन्धस्सु / 'आभासई' 'आबभाषे,' इत्यर्थे क्वापि दृश्यते। तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउँ कन्तस्सु // 2 // एवं 'सोहीअ' इति तु, शृणोतीत्यर्थक क्वचित् / पादे विलम्नं अन्नं शिरः स्रस्तं स्कन्धात्। शिष्टप्रयोगतः सर्व, बोद्धव्यं सूक्ष्मदर्शिभिः / तथापि कटारिकायां हस्तः बलिः क्रियते कान्तस्य / / 2 / / शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् // 448|| (अंतड़ी पेट से निकलकर पैरों पर पड़ी है। शिर कंधे से अलग होकर गिर पड़ा है। फिर भी प्रियतम का हाथ कटारी पर है। ऐस प्रियतम प्राकृताहिषु भाषासु, यत् कार्य नेह दर्शितम् / की मैं पूजा करती हूँ। 445.2) सप्ताध्यायीनिबद्धेन, संस्कृतेन समं हि तत् / सिरि चडिआ खन्ति प्फलई पुणु डालई मोडन्ति / "हेट्ठ-ट्ठिय-सूर-निवारणाय, छत्तं अहो इव वहन्ती। तो वि महहुम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति // 3 // जयइ ससेसा वराह-सास-दूरुक्खुया पुहवी"||१|| शिरसि आरूढाः खादन्ति फलानि पुनः शाखाः मोटयन्ति / अधःस्थितसूरनिवारणाय छत्रमध इव वहन्ती। तथापि महाद्रुमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति / / जयति सशेषा वराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी // 1 // (वृक्ष के सिर पर चढ़कर फल खाते हैं और डालियों को तोड़ते-- (नीचे स्थित सूर्य के ताप को दूर करने के लिए मानो छत्र नीचे धारण मरोड़ते हैं, फिर भी महान वृक्ष पक्षियों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं | करती हुई और वराह (विष्णु के अवतार) के श्वास से दूर फेंकी गई पहुँचाते हैं / वृक्ष महान सत्पुरुष-सूरि समान है। 445.3) ऐसी, शेष सहित पृथ्वी विजयी है। 448.1) अत्र अन्भेति पुंस्त्वं हि, क्लीबस्य प्रतिपादितम् / यद्यप्यत्र चतुस्तुि , नादेशो दर्शितः क्वचित् / एवमन्यासु गाथासु, स्वयं बुद्ध्या विचार्यताम् / तथाऽपि सोऽतिदेशेन, सिद्धः संस्कृतवत् खलु /