________________ [सिद्धहेम.] 111) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] (हे शठ भ्रमर, वन में तू व्यर्थ ही गुनगुन मत कर / उस दूसरी तम्हासमा दिशा की तरफ देख, रो रो मत कर / जिस मालती के वियोग में तू मर रहा है वह तो अन्य वन में हैं। 365.1) जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हइं // 366 / / युष्मदो जस्-शसोस् 'तुम्हे, तुम्हई' च पृथक् पृथक् / जाणइ तुम्हइं तुम्हे, तुम्हे पेच्छइ तुम्हई। यथासंख्यनिवृत्त्यर्थो भेदोऽत्र वचनस्य तु॥ टा-ड्यमा पइंतई // 370 / / 'अम्टा डि' इत्येतैः सार्ध, युष्मदस्तु 'तई पई / 'त्वां त्वया त्वयि' इत्येषां, स्थाने वाच्यं 'तई 'पई। पइँ मुक्काह वि वर-तरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं / तुह पुणु छाया जइ होज कह वि ता तेहिं पत्तेहिं ||1|| त्वया मुक्तानामपि वरतरो विनश्यति (फिट्टइ) न पत्रत्वं पत्राणाम्। तव पुनः छाया यदि भवेत् कथमपि तदा तैः पत्रैः (एव)॥१॥ (हे श्रेष्ठमहान वृक्ष, तुझसे मुक्त होकर भी पत्ते पत्ते ही रहते हैं कहलाते हैं, उनका पत्तापन नष्ट नहीं होता है। और तो और तेरी हर प्रकार की छाया पत्तों के कारण ही है। (आज तक किसी ने पत्तों को यश नहीं दिया कि 'पत्तों की छाँव में / संसार में केवल स्वामी ही टूटता है। सेवक यहां नहीं तो और कहीं फिर सेवक हो जाता है। 370.1) महु हिअउँ तई ताए तुहुँ स वि अन्ने विनडिजइ। पिअ काइँ करउँ हउँ काइँ तुहँ मच्छे मच्छु गिलिज्जइ / / 2 / / मम हृदयं त्वया, तया त्वं सापि अन्येन विनाट्येत। प्रिय किं करोम्यहं किं त्वं मत्स्येन मत्स्यः गिल्यते॥२॥ (मेरा हृदय तूने जीता है, उसने तुझे जीता है, और वह भी अन्य के द्वारा चाही जा रहा है। पीड़ी जा रही है। हे प्रियतम, मैं क्या करूँ? तुम भी क्या करो? वास्तव में एक मछली दूसरी मछली से निगली जा रही है। 370.2) पइँ मई बेहि वि रण-गयहिं को जयसिरि तक्केइ / केसहिं लेप्पिणु जम-धरिणि भण सुहु को थक्केइ // 3 // त्वयि मयि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कयति। केशैर्गृहीता यमगृहिणी भण सुखं कस्तिष्ठति // 3 // (तेरे और मेरे दोनों के ही युद्धभूमि में पहुंचने पर अन्य कौन भला विजयश्री की कल्पना करेगा? यम की पत्नी को केशों से पकड़ने वाला, भला कैसे सुख से रह सकता है? 370.3) पइँ मेल्लन्तिहे महु मरणु मइँ मेल्लन्तहो तुज्झु / सारस जसु जो वेग्गला सो वि कृदन्तहो सज्झु / / 4|| त्वां मुञ्चन्त्याः मम मरणं मां मुञ्चतस्तव / सारसः (यथा) यस्य दूरे (वेग्गला) स कृतान्तस्य साध्यः।।४।। (तुम्हें छोड़ते ही मेरा मरण होगा, मुझे छोड़ते ही तुम्हारा मरण होगा। जो सारस (युगल में से) दूर होगा वह यमराज का शिकार होगा। / (हमारी सारससी बेलड़ी है। 370.4) मिसा तुम्हेहिं // 371 / / युष्मदस्तु भिसा साकं, 'तुम्हेहिं' इति पठ्यते। तुम्हें हि अम्हें हि जंकिअउं दिट्ठउँ बहुअ-जणेण। तं तेवडउ समर-भरु निजउ-एक-खणेण / / 1 / / युष्माभिः अस्माभिः यत्कृतं दृष्ट बहुकजनेन। तत् (तदा) तावन्मात्रः समरभरः निर्जितः एकक्षणेन।।१।। (तुमने और हमने रणांगण में जो युद्ध किया, उसे बहुत लोगों ने आश्चर्य चकित होकर अपनी आँखों से देखा / उस समय इतना बड़ा युद्ध हम लोगों ने क्षण मात्र में जीता था। 371.1) ङसिङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध // 372 / / ङसि-डस्भ्यां सह 'तउ, तुज्झ, तुध्र युष्मदः। 'तव त्वत्' अनयोः स्थाने, 'तुज्झ' 'तुध्र' 'तउ' त्रयम्। तउ गुण-संपइ-तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खन्ति। जइ उप्पत्तिं अन्न जण महि-मंडलि सिक्खन्ति / / 1 / तव गुणसंपदं तव मतिं तव अनुत्तरां क्षान्तिम्। यदि उत्पद्य अन्याजनाः महीमण्डले शिक्षन्ते॥१॥ (हे वीर, भूमण्डल पर जन्म लेकर, अन्य लोग तेरी गण सम्पदा, तेरी मति और तेरी अनुपम सर्वोतम क्षमा करने की रीत को सीखते है। 372.1) भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं ||373|| युष्मदस्तु पदे, साकं भ्यसाम् भ्यां, तुम्हहं मतम्। युष्मभ्यं तुम्हहं वाच्यं, तथा युष्माकमित्यपि / तुम्हासु सुपा // 37 // युष्मदस्तुपदे, साकं सुपा'तुम्हासु' पठ्यते। सावस्मदो हउँ // 375|| अस्मदः सौ परे रूपं, 'हां' इत्यभिधीयते। 'दुल्लह अहो कलजुगि हउंतसु' निदर्शनम्। जस्-शसोरम्हे अम्हइं // 376 / / अस्मदो जस्-शसोर् 'अम्हे अम्हई' च पृथक् पृथक् / अम्हे थोवा रिउ बहुअकायर एम्व भणन्ति। मुद्धि निहालहि गयण-यलु कइ जण जोण्ह करन्ति ||1|| वयं स्तोकाः रिपवः बहवः कातराः एवं भणन्ति। मुग्धे निभालय गगनतलं कतिजनाः ज्योत्स्ना कुर्वन्ति // 1 // (हम थोड़े हैं, शत्रु बहुत है, ऐसा कायर जन कहते हैं। हे मुग्धे, रात्रि को आकाश की ओर देखना, कितने हैं, जो चांदनी प्रदान करते हैं। (तारों भरे आकाश में केवल चांद एक ही है, जो चांदनी फैलाता है, अन्य कोई भी नहीं / 376.1) अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि / अवसन सुअहि सुहच्छिअहिं जिवे अम्हइँ तिवं ते वि॥२॥ अम्लत्वं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि / अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि // // (स्नेह लगाकर जो कोई प्रिय-पथिक परदेश गया है, वे अवश्य ही हमारी तरह की सुख से नहीं सो सकते होंगे। 376.2) टा-ड्यमा मइं // 377|| 'अम्टा डि' इत्येतैः सार्धम्, अस्मदस्तु भवेद् 'मई'। 'मां मया मयि' इत्येषां, स्थाने वाच्यं मई' सदा। मइँ जाणिउँ पिअ विरहिअहं क विधर होइ विआलि। णवर मिअङ्कु वि तिह तवइ जिह दिणयरु खयगालि / / 1 / /