________________ [सिद्धहेम०] (137) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] वासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइ-सत्थु परमाणु / मायहं चलण नवन्ताहं दिविदिवि गङ्गा-हाणु ||1|| व्यासो महर्षिरतद्भणति यदि श्रुतिशास्त्र प्रमाणम्। मातृणां चरणौ नमतां दिवसे दिवसे गङ्गास्नानम् // 1 // (महर्षि व्यास कहते हैं -यदि वेद और शास्त्र प्रमाण रूप हैं तो माताओं के चरण में नमन करनेवालों को हर रोज गंगास्नान समान है। 366.1) कृचिदिति किम्? 'बद्ध वासेण वि भारह खम्भि' च / / आपतिपत्संपदां द इः // 400|| विपदापत्संपदा स्याद्, दस्येकारः क्वचिद्, यथा-1 रूपम् 'आवई' 'संपइ' तथा 'विवइ' इत्यपि // प्रायोऽधिकाराद् 'गुणहिं न कित्ति पर संपइ'। अणउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ / अनयं कुर्वतः पुरुषस्य आपद् आयाति। (बुरा कर्म करनेवाले पुरुष पर आपत्ति अवश्य आती है। 400.1) कथं यथा-तथां थादेरेमेमेहेधा डितः / / 401 / / 'कथं यथा तथा' एषां थादेवयवस्य तु। 'इह इध एम इम' इत्यादेशा डितः पृथक् / अतः 'कथ' 'किह किध' किम केम' निगद्यते। 'यथा' जिह जिधेत्यादि, तथा तिह तिधादि च / केम समप्पउ दुछ दिणु किध रयणी छुड होइ। नव-वहु-दसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ||1|| कथं समाप्यतां दुष्ट दिन कथं रात्रिःशीघ्रं (छुडु) भवति / नववधूदर्शनलालसकः वहति मनोरथान् सोऽपि // 1 // (नव परिणीत पुरुष सोचता है-दीर्घ दुष्ट दिन कैसे जल्दी समाप्त हो? रात कैसे शीध्र आए ? अपनी नववधू को देखने को उत्सुक नायक ऐसे मनोरथ दौड़ता है। 401.1) औ गोरी-मुह-निजिअउ वद्दलि लुक्कु मियकु / अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किवँ भइ निसकु // 2 // ओ गौरीमुखनिर्जितकः वार्दले निलीनः मृगाङ्कः। अन्योऽपि यः परिभूततनुः स कथं भ्रमति निःशङ्कम / / (मुझे लगता है कि प्रिया के मुख से पराजित यह चंद्र बादलों के | पीछे छिपता है। जिसका शरीर-सौंदर्य पराभूत हुआ है ऐसा दूसरा कोई भी निःशंक भाव से कैसे घूमेगा? 401.2) बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरिआणन्द / निरुवम रसु पिएं पिआवे जणु सेसहो दिण्णी मुद्द / / 3 / / बिम्बाधरे तन्व्याः रदनव्रणः कथं स्थितः श्रीआनन्द / निरुपमरसं प्रियेण पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा // 3 // ('हे, श्रीआनंद, प्रियतमा के बिम्बअधर पर दांत के निशान कैसे हैं?' 'ये तो मानो प्रियतम द्वारा अधर रसपान कर लेने पर शेष भाग पर मानों मुहर लगी दी हो। 401.3) भण सहि निहुअउँ तेवँ मई जइ पिउ दिछ सदोसु / जे न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअं तासु ||4|| भण सखि निभृतकं तथा मयि यदि प्रियः दृष्टः सदोषः / यथा न जानाति मम मनःपक्षपातितं तस्य / / 4 / / (हे सखि, तू निश्चित होकर मुझे बता कि क्या मेरा पति मेरे साथ किसी दोष से युक्त है? इसलिए कि मेरा मन प्रियतम के प्रति पक्षपात युक्त होने से सच्चा कुछ भी निर्णय नहीं कर पाता है। 401.4) मइँ जाणिवे प्रिय विरहिअहं क वि धर होइ विआलि। नवर मिअकु वि तिह तवइ जिह दिणयरु खयगालि // 5 // देखो गाथा 377/1 यादृक्-तादृक्-कीदृगीदृशां दादेर्डेहः / / 402 / / 'याटतादृक्-कीदृगीदृग्' इत्येतेषां तु योऽस्ति दः। तदाद्यावयवस्येह, डेहादेशो विधीयते / मइं भणिअउ बलिराय ! तुहु केहउ मग्गण एहु / जेहु तेहु नवि होइ वढ ! सई नरायणु एहु // 1 // मया भणितो बलिराज ! त्व कीदृग मार्गण एषः / यादृक् तादृग नाऽपि भवति मूर्ख ! स्वयं नारायण ईदृक् / / 1 / / (शुक्राचार्य राजा बलि से कहते हैं- हे राजा बलि, मैने तुझे पहले ही कहा था कि यह याचक किस प्रकार का है। अरे मूर्ख यह जैसावैसा याचक नहीं है, यह तो स्वयं नारायण है। 402.1) अतां डइसः ||403|| ईदृश-कीदृश-यादृश-तादृशशब्देषु दादिवर्णस्य। डइसाऽऽदेशो, जइसो तइसो कइसोऽइसो च यथा। यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्य्वत्तु // 404|| 'एत्थु अत्तु' डितौ त्रस्य, शब्दयोर्यत्र-तत्रयोः / 'जत्तु तत्तु जत्थु तेत्थु' सिद्धं रूपचतुष्टयम् / जइ सो घडदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु / जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सदिक्खु // 1 // यदि स घटयति प्रजापतिःकुत्राति लात्वा शिक्षाम्। यत्रापि तत्रापि अत्र जगति भण तदा तस्याः सदृक्षीम् // 1 // (यदि जग-विधाता ने कहीं से प्रशिक्षण प्राप्त करके जगत का निर्माण किया है, तो जरा जगत में ढूंढकर बताओ तो सही कि प्रिया के समान दूसरी कोई है ? 404.1) एत्थु कुत्रात्रे 1405|| कुत्राऽत्रयोस् त्रशब्दस्य, पदे 'एत्थु' डिदिष्यते। केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु, एत्थु जेत्थु वि तेत्थु वि। यावत्तावतोर्वाऽऽदेर्म उं महिं // 406 / / यावत्तावदित्यनयोर्, वाऽऽदेवयवस्य तु। म, उं, महिं चेत्येते स्युर्, आदेशास्तु त्रयो यथा। जाउं ताउं, जाम ताम, जामहिं तामहिं तथा / जाम न निवडइ कुम्भ-यडि सीह-चवेड-चडक्क / ताम समत्तहँ मयगलहं पइ पइ वज्जइ ढक्क ||1||