________________ (134) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] मया ज्ञातं प्रिय विरहितानां कापिधरा भवति विकाले। घुघराले बालों की लटें ऐसे शोभायमान हैं जैसे ये अंधकार में बच्चे मानो केवलं (-परं) मृगाङ्कोऽपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले // 1 // एकत्रित होकर क्रीड़ा कर रहे हों। 382.1) (हे प्रियतम, मैंने अनेक बार कहा है कि संध्या के समय विरहीजनों मध्यत्रयस्याद्यस्य हिः // 383|| को कुछ आधार (चन्द्र से) मिल जाता है, परन्तु चन्द्र तो शीतलता त्यादीनां तु विभक्तीनां, यन्मध्यत्रिकमुच्यते। प्रदान करने के बदले ऐसा तप रहा है मानो प्रलयकाल का सूर्य तप तदाद्यवचनस्येह, हिरादेशो विकल्प्यते। रहा हो / 377.1) 'बप्पीहा ! पिउ पिउ भणवि, कित्तिउ' 'रुअहि' हयास ! अम्हेहिं भिसा // 378| तुह जलहें महु पुणु वल्लहें, बिहुं वि न पूरिअ आस / अस्मदस्तु भिसा साकम्, 'अम्हेहिं' इति पठ्यते। (बप्पीह ! प्रिय प्रिय भणित्वाऽपि कियत्रोदिषि हताश ! महु मज्झु ङसि-उस्भ्याम् // 376 / / तव जलधरेण मम पुनर्वल्लभेन द्वयोरपिन पूरिता आशा।।१।। ङसिङस्भ्यां सह 'महुमज्झु' स्तोऽत्राऽस्मदःपदे। (हे चातक, "पिउ-पिउ'-पीऊँगा-पीऊँगा ऐसा बोल बोल कर अरे 'मत् ममेत्यनयोः स्थाने, ' 'महु मज्झु' यथाक्रमम्। हताश मेरे भाई तू कब तक-कितना रोएगा? अरे, हम दोनों की ही महु कन्तहों वे दोसडा हेल्लि म झहि आलु / दशा-एक सी है। तेरी जल-विषयक और मेरी वल्लभ-विषयकदेन्तहों हउँ पर उव्वरिअ जुज्झन्तहों करवालु ||1|| आशा पूरी नहीं हुई है। 383.1) मम कान्तस्य द्वौ दोषौ सखि मा पिधेहि अलीकम्। (आत्मनेपदे) बप्पीहा ! कई बोल्लिएण, निग्धिण वारइ वार। ददतः परं अहं उर्वरिता युध्यमानस्य करवालः / / 1 / / सायरि भरिअइ विमलि-जलि, 'लहहि'न एकइ धार ||2|| (मेरे प्रियतम के दो दोष है? हे सखि, झूठ न मानना और इस बात बप्पीहक! किं कथनेन निघृण ! वारं वारम्। को छुपाना मत / एक यह कि दान देते समय मात्र मैं बचती हूँ और सागरे भृते विमलजलेन लभसे नैकामपिधाराम्॥२॥ जब वह युद्ध करता है तो हाथ में केवल तलवार बचती है। 376.1) (अरे, बेहया चातक, तुझे बार-बार कहने से क्या फायदा? कितनी जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण / ही बार मैंने तुझसे कहा कि सागर से तुझको निर्मल जल की एक बूंद अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण // 2 // भी नहीं मिलने वाली है। 383.2) आयहि जम्महि अन्नहि वि गोरि सु दिजहि कन्तु। यदि भग्नाः परकीयाः तत्सखि मम प्रियेण / गय मत्तहँ चत्तकुसहं जो अभिडइ हसन्तु // 3 // अथ भग्ना अस्मदीयाः तत्तेन मारितेन ! अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि तं दद्याः कान्तम् / (से सखि, यदि शत्रुओं का पराभाव हो गया होगा, तो वह मेरे प्रियतम गजानां मत्तानां त्यक्तांकुशानां य संगच्छते हसन्॥३॥ से ही, और यदि हमारे पक्षवाले पराभूत हो गये होंगे, तो मेरे प्रियतम के मरने के बाद / 376.2) (हे वर दायिनी गौरि, इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में भी मुझे ऐसा ही प्रियतम देना कि जो हँसते-हँसते मदमत्त तथा अंकुश-प्रहार की अम्हहं म्यसाम्भ्याम् // 380|| परवाह न करने वालो हथियों से भिड जाए और उनके गण्डस्थल को अस्मदस्तुपदे, साकं भ्यसाम्भ्याम्, 'अम्हह' मतम्। चीर डाले। 383.3) अस्मभ्यम् 'अम्हह' वाच्यं, तथा चास्माकमित्यपि। एवं 'दिजहि रूपं स्यात्,रुअसीत्यादि पाक्षिकम्। सुपा अम्हासु // 381|| बहुत्वे हुः ||384 // अस्मदस्तुपदे, साकं सुपा 'अम्हासु' पठ्यते। त्यादीनां तु विभक्तीना, यन्मध्यत्रिकमुच्यते। त्यादेराद्यत्रयस्य बहुत्वे हिं नवा // 32 // तद्रहुत्वस्य हुर्वा स्याद्, यथा-'इच्छहु इच्छह'। त्यादीनां तु विभक्तीनां, यदाद्यं त्रिकमुच्यते। बलि-अब्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोइ। तबहुत्वस्य 'हिं' वा स्याद्, धरन्ति-'धरहिं स्मृतम्। जइ इच्छहु वडुत्तणउंदेहु म मग्गहु कोइ।।१।। मुह-कबरि-बन्ध-तहें सोह धरहिं। बलेः अभ्यर्थने मधुमथनो लघुकीभूतः सोऽपि। नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु करहिं। यदिइच्छथमहत्त्वं (वडुत्तण) दत्त, मा मार्गयतकमपि॥१॥ तहें सहहिं कुरल भमर-उल-तुलिअ। (बलि से याचना करते समय विष्णु भी छोटे हो गए। इसलिए यदि नं तिमिर-डिम्भ खेल्लन्ति मिलअ॥१॥ बड़ा बनना चाहते हो, तो दान दो, किसी से माँगो मत / 384.1) मुखकबरीबन्धौ तस्याः शोभां धरतः अन्त्यत्रयस्याद्यस्य उं // 38 // ननुमल्लयुद्धं शशिराहू कुरुतः। त्यादीनां तु विभक्तीना, यदन्त्यं त्रिकमुच्यते।। तस्याः शोभन्ते कुरलाः भ्रमरकुलतुलिताः 'उ' तदाद्यस्य वाऽऽदेशो, यथा-'कड्ढामि कडउं'। ननु भ्रमरडिम्भाः क्रीडन्ति मिलिताः॥१॥ विहि विणडउ पीडन्तु गह मंधणि करहि विसाउ। (उस मुग्धा के मुख और केशकलाप ऐसी शोभा धारण करते हैं मानो संपइ कड्ड वेस जिवे छुड अग्धइ ववसाउ ||1|| चन्द्र और राहु मल्ल युद्ध कर रहे हैं। भ्रमरों के समूह के समान उसके विधिर्विनाटयतु ग्रहाः पीडयन्तु मा धन्ये कुरु विषादम्।