________________ [सिद्धहेम०] (126) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [अ०८पा०४] तृण की दो गति है। तीसरी कोई अवस्था नहीं। 336.1) हुं चेदुद्भ्याम् // 340 / / इदुद्भ्यां तु परस्याऽऽमो, भवेतां 'हुं हम्' इत्यम् / सिद्धं 'सउणिहं' तेन, 'तरुहुंच पदद्वयम्। प्रायोऽधिकाराद् हु क्वाऽपि, सुपोऽपि 'दुहुम्' इत्यपि / "दइव घडावइ वणि तरुहुँ सउणिहं पक्क फलाई / सो वरि सुक्खु पइट्ट णवि, कण्णहिं खल-वयणाइं / / 1 / / दैवो घटयति वने तरुणा शकुन्तानां पक्वफलानि / तद् वरं सुखं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खलवचनानि / / 1 / / (दैव ने वन में पक्षियों के लिए वृक्षों पर पक्के फल निर्माण किये यह अत्यंद सुखद और उत्तम कार्य किया,परन्तु दुर्जनों के वचनों का कान में प्रविष्ट करना यह दुःखद है। अच्छा नहीं है। 340.1) धवलु बिसूरइ सामिअहो गरुआ भरु पिक्खेवि / हउँ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसेहिं खण्डइं दोण्णि करेवि ||2|| धवलः खिद्यति (विसूरइ) स्वामिनः गुरुं भारं प्रेक्ष्य / अहं कि न युक्तः द्वयोर्दिशोः खण्डे द्वे कृत्वा // 2 // (आज भी देश के कुछ भाग में खेत जोतने के कार्य में जिसके पास एक ही बैल होता है तो जुताई के समय धूरा के एक छोर पर बैल और दूसरी ओर बैल का स्वामी ही होता है। ऐसे जुताई के समय धवलबैल अपने स्वामी के अत्यंत गुरू भार को देखकर खिन्न दुःखी होता है और प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कहता है कि मेरे दो दुकड़े क्यों न हो गये। दो दुकड़े होकर मैं ही दोनों ओर क्यों न जोता गया ? (मुझसे मेरे स्वामी का दुःख नहीं देखा जाता 340.2) ङसि-भ्यस्-डीनां हे-हुं हयः // 341 / / इदुद्भ्यां तु परेषां भ्यस्-डसि-डीनां 'हि-हुं-हयः'। [इसेहूँ | तरुहे [भ्यसो हुं] तरुहुं रूपं, तथा [ डेहि ] कलिहि सिध्यति // "गिरिहे सिलायलु तरुहे फलु घेप्पइ नीसावन्नु / घरु मेल्लेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुचइ रन्नु ||1|| गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्णाति निःसामान्यः / गृहं मुक्त्वा मनुष्येभ्यः ततोऽपि न रोचतेऽरण्यम् // 1 // (सर्वजन सामान्य किसी भी भेदभाव के बिना अरण्य के पर्वत से शिला आदि और वृक्षों से फल आदि प्राप्त करते हैं। फिर भी सांसारिक स्वार्थी जन को घर छोड़कर अरण्य प्रिय नहीं है। 341.1) तरुहुं वि वक्कलु फलु मुणि वि परिहणु असणु लहंति। सामिहुं एत्तिउ अग्गल आयरु मिच्चु गृहन्ति ||2|| तरुभ्योऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते / स्वामिभ्य इयदर्गलमायं भृत्या गृह्णन्ति // 2 // (मुनिजन वृक्षों से वल्कल वस्त्र के रूप में और फल भोजन के रूप में प्राप्त कर लेते हैं। जबकि सेवकजन अपने स्वामियों से (वस्त्र और भोजन के उपरांत) मान-सम्मान भी (अधिक रूप में) प्राप्त करते हैं। 341.2) अह विरल-पहाउ जि कलिहि धम्मु ||3|| अथ विरलप्रभावः एव कलौ धर्मः // 3 // (अरर ! कलियुग में अब धर्म का प्रभाव भी कम हो गया है। 341.3) आट्टो णानुस्वारो // 342 // अतः परस्याष्टायास्तु, णानुस्वारौ मतौ, पदे / 'दइएं पवसन्तेण, द्वाविमौ सिद्धिमृच्छतः / एं चेदुतः // 343 // इदुद्भ्यां टा-पदे 'ए' चात् णानुस्वारौ, मतास्त्रयः / अतःसिध्यन्ति रूपाणि, 'अग्गिं अग्गिण अग्गिएं'। "अग्गिएँ उण्हउ होइ जगु, वाएं सीयल ते / जो पुण अग्गिं सीअला, तसु उण्हत्तणु केव॑ / / 1 / / अग्निनोष्णं भवति जगत् वातेन शीतलं तथा। यः पुनरग्निनाऽपि शीतलस्तस्योष्णत्वं कथम्?||१|| (सकल संसार के जन अग्नि से उष्णता तथा वायु से शीतलता प्राप्त करते हैं / परन्तु जो अग्नि से भी शीतलता प्राप्त करते हैं, उनकी उष्णता कैसी होगी? (अर्थात् वह व्यक्ति कृद्ध नहीं हो सकता। साधु संत-तपस्वी तप रूपी अग्नि से शीतलता प्राप्त करते हैं / 343.1) "विप्पिअ-आरउ जइवि पिउ, तोवि तं आणहि अज्जुय। अग्गिण दड्डा जइवि घरु तो ते अग्गिं कज्जु // 2 // विप्रियकारको यद्यपि प्रियस्तथाऽपि तमानयाद्य / अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं ततोऽपि तेनाग्निना महत्कार्यम् / / 2 / / (हे सखि, जा। भले ही प्रियतम अप्रिय करने वाला है, फिर भी तू उसे आज लेकर आ / अग्नि कभी घर जला देती है, फिर भी अग्नि से उपयोगी कार्य तो होते ही हैं। 343.2) स्यम् जस्-शसां लुक् ||34|| स्यम्-जस्-शसा लुगत्रास्तु, स्यम्- जसां स्यम्- शसां यथा। "एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग / एत्थु मुणीसिम जाणिअइ जो नवि बालइ वग्ग"||१|| (देखो 330/4) [ अत्र स्यमजसा लुक्] "जिवे जिवे वंकिम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइया तिवें ति वम्महु निअय-सरु खर-पत्थरि तिक्खेइ"|२|| अत्र स्यमशसा लुक् ] यथा यथा वक्रत्वं लोचनानां श्यामला शिक्षते। तथा तथा मन्मथो निजशरान् खरप्रस्तरे तीक्ष्णयति / / 2 / / (जैसे जैसे कोई श्यामा आँखों से कटाक्ष करना सीखती है, वैसे वैसे पुष्पधन्वा-कामदेव खुरदरे पत्थर पर अपने अस्त्र-काम-बाणों को ज्यादा धारदार करता है। 344.2) षष्ठ्याः // 345|| षष्ठ्याः प्रायो लुगत्रास्तु, तदुदाहरणं यथा / "संगर-सअएहिं जु वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कन्तु / अइमत्तहं चत्तङ् कुसहं गय-कुम्भई दारन्तु" ||1||