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[ ३ ] साधना का ध्येय
प्रभु महावीर ने स्वाध्याय के समान सत्संग को भी ज्ञान का बड़ा कारण माना है। जीवन निर्माण में सत्संग का बहुत बड़ा हाथ है। इसके प्रभाव से मनुष्य कोयले से हीरा और कंकर से शंकर बन जाता है। सत्संग की महिमा में किसी संस्कृत के विद्वान ने ठीक ही कहा है
दूरीकरोति कुमति विमली करोति, चेतश्चिरन्तनमघं चुलुकि करोति भूतेषुकिंच करुणां बहुलीकरोति, सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम् ।
सत्संग से कुमति दूर होती है, चित्त निर्मल होता है और चिर संचित पाप क्षय हो जाता है। प्राणिओं पर दयाभाव की वृद्धि होती, इस प्रकार सत्संग से सभी मलाइयां सहज मिल जाती हैं।
सत्संग एक तालाब या सरोवर के सदृश है जिसके निकट पहुँचने मात्र से ही शीतलता, स्फूर्ति तथा दिमाग में तरी आ जाती है। चाहे कितना भी संतप्त और परिश्रान्त तन मन क्यों न हो, जलाशय का चुल्लूभर जल पिये बिना भी बिल्कुल तरोताजा बन जाता है। कल्याण मन्दिर स्तोत्र में कहा है
तीव्रातपोपहतपान्यजनान्निदाघे ।
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ।।
फिर यदि कोई उसका जलपान करे अथवा डुबकी लगाये तो क्या उसकी तृषा और पाप नहीं मिटेंगे ? निश्चय उसके रोम-रोम उल्लास एवं शान्ति से पुलकित हो उठेंगे। ऐसे ही सन्तों के चरणों में पहुंचते ही उनके समागम से मानव-मन को अपूर्व शान्ति मिलती है। यह शान्ति वैभव विलास से मिलने वाले सुख में नहीं मिल पाती। यही कारण है कि साधक वैभव-विलास की अनन्त सामग्रियों को ठुकराकर आध्यात्मिक मार्ग में आने के लिये किसी सन्तचरण की छत्र-छाया में पहुंचते हैं।