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आध्यात्मिक आलोक . का योग नहीं मिलने की स्थिति में स्वाध्याय स्थायी साधन ही सहारा है। क्योंकि योग्य गुरु और साधु तो अंगुली पर गिनने योग्य हैं फिर ऐसे योग्य गुरुओं तथा संतों की वाणी सुनने का हमेशा अवसर भी नहीं मिलता। अतः उनके अभाव में उनकी प्रेरणा का लाभ हमें स्वाध्याय से ही मिल सकता है।
विभिन्न दृष्टिकोणों से स्वाध्याय के अनेक अर्थ होते हैं। स्व-अध्याय, इस अर्थ में दूसरों को पढ़ने की अपेक्षा स्वयं के जीवन का अध्ययन या मनन करना । दूसरा सु+आ+अध्याय, अर्थात् उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन करना होता है । भगवान् महावीर ने उत्तम शास्त्रों का लक्षण यह बतलाया है कि, "जं सुच्चा पडिवज्जति तवं. खतिमहिसये। उ० ३ | जिस शास्त्र को पढ़कर या सुनकर मानव मन को सुप्रेरणा मिले तथा क्षमा-तप और अहिंसा आदि की भावना बलवती हो। जैसे मुझ में लगे काटे मेरे लिये दुःखजनक हैं वैसे काटे दूसरों के लिये भी दुःखद होंगे, ऐसी भावना या उत्तम वृत्तियां जिसके अध्ययन से जगे, वही उत्तम शास्त्र है और ऐसे शास्त्रों के अध्ययन से ही मनुष्य में विमल ज्ञान चमकता है और वह जीवन को उच्चतम बनाता है।
आत्म साधना -
जीवन की समुन्नति या साधना की सफलता के लिये तन की तरह आत्मा का भी महत्त्व समझना आवश्यक है। तन की रक्षा और पोषण के लिये लोग क्या नहीं करते, पर आत्म-पोषण की ओर कोई विरला ही ध्यान देता है। पर याद रखना चाहिये कि तन यदि एक गाड़ी है तो आत्मा उसका चालक है; गाड़ी में पेट्रोल देकर चालक को भूखा रखने वाला धोखा खाता है। आज संसार की यही हालत है । तन के लिये मनुष्य खाता-पीता, सोता, वस्त्र धारण करता और समय पर मल-मूत्र त्यागने को भी जाता है। इनमें से एक काम भी कभी नहीं छोड़ा जाता, लोग मानते हैं कि इनको छोड़ा जाय तो शरीर नहीं चलेगा। कहा भी है-.
खान-पान परिधान पट, निद्रा मूत्र पुरीस ।
ये षट् कर्म सब कोई करें राजा-रक सरीस ।। शारीर रक्षण में इनको आवश्यक माना गया है। इसी प्रकार ज्ञानियों ने आत्म रक्षण के लिये भी देवभक्ति, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दानरूप षट्कर्म का विधान किया है। कहा भी है
देवार्चा गुरु शुश्रूषा, स्वाध्यायः संयमस्तपः । दान चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने-दिने ।।