Book Title: Samay ki Chetna
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ समय की चेतना SHAD Jan Education international For Personal & Private Use Only te verjamelere gone Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय की चेतना श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय की चेतना : श्री चन्द्रप्रभ प्रेरक गरिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी सम्पादक माणक मोट 'मरण' सहयोगी श्रीमती कमलादेवी बंशीलालजी, सुनील, तनुज, अभिषेक गांधी, जोधपुर प्रकाशक श्री जितयशा फाउंडेशन, 9 सी - एस्प्लनेड रो ईस्ट, कलकत्ता - 69 मुद्रक भारत प्रिण्टर्स (प्रेस), जोधपुर प्रकाशन वर्ष : जनवरी, 1995 For Personal & Private Use Only मूल्य : 15/- रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक समय किसी का इंतजार नहीं करता। हम उसके अधीन हैं, लेकिन इसके बावजूद हम समय का महत्व नहीं समझते । एक शायर ने क्या खूब कहा है-'पाने वाला पल तो जाने वाला है। हो सके तो इसमें जिन्दगी सजालो, पल ये भी जाने वाला है।' हर पल हमें नई सीख देकर जाता है । विरले ही लोग होते हैं जो इसकी चेतना को समझते हैं, उसका उपयोग करते हैं और जीवन को संवार लेते हैं । प्रसिद्ध विचारक महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ने 'समय' को समझा है, जिया है और उसकी चेतना के सहारे अपना जीवन धन्य किया है । उनकी नजर में जीवन में समय सबसे कीमती चीज है । उनका चिंतन इस बारे में बिलकुल मौलिक और असाधारण है । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ ने समय को आत्मा का भी वाचक माना है और सिद्धांत का भी। सृष्टि के सर्जन, संचालन अथवा परिवर्तन में भले ही समय सबका सूत्रधार रहा हो, पर श्री चन्द्रप्रभ ने समय को फिर भी साक्षी ही माना है। समय और उससे सम्बद्ध विषयों पर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा दिये गये ये उद्बोधन वास्तव में आत्मोत्सव के लिए आह्वान हैं। हम अपने जीवन में इन अमृत वक्तव्यों को उतारकर समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलें। हमें बीती को बिसार कर आने वाले पलों का भरपूर उपयोग करना है। जीवन को स्वर्ग की विभूति बनाना है। 'क्या हुअा मुरझा गया जो एक फूल, फूल ये सभी, एक दिन मुरझाएंगे । यही तो सबसे बड़ा सच है, पुराने जाएंगे और नए आएंगे ।।' -मणि For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानें नहीं, जानें जीवन एक खोज है। एक महान खोज। इस खोज को हम नाम कुछ भी दे दें। चाहे उसे जीवन कहें, चाहे महाजीवन । सत्य, आत्मा या परमात्मा कहें। हम उसे भले ही सुख या आनन्द कह लें, लेकिन एक बात तय है, जीवन एक खोज है। खोज का पर्याय है। ___मैं जीवन को खोज इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जहां-जहां जीवन है, वहां-वहां खोज के प्रयास होते हैं । सोते, उठते-बैठते, खोज तो हर पल जारी रहती है। सोते समय सपने में खोज जारी रहती है, तो जागते में नित्य कर्मों के दौरान खोज चलती रहती है । For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का तत्व कुछ ऐसी विशेषता लिये होता है कि बिना खोज यह अस्तित्व में रह ही नहीं सकता । एक वैज्ञानिक से अगर विज्ञान का अर्थ पूछो तो वह कहेगा - 'नवीनता की खोज ही विज्ञान है ।' राजनेता से राजनीति का अर्थ बताने को कहा जाएगा तो उसका उत्तर होगा— 'कुर्सी की खोज ही राजनीति है ।' समाजशास्त्री समाज को संगठित व विकसित करने के आयामों की खोज को ही समाजशास्त्र कहेंगे । किसी आध्यात्मिक व्यक्ति से पूछो तो वह अध्यात्म का अर्थ - आत्मा की खोज, सत्य की खोज, तत्व की खोज बताएगा । जहां-जहां खोज है, वहां-वहां मनुष्य का जीवन है । जिस दिन मनुष्य के हृदय से खोज की भावना समाप्त हो जाएगी, उस दिन वह चलताफिरता मुर्दा हो जाएगा । धर्म और अध्यात्म में यही तो फर्क है । इस फर्क को जरा समझने का प्रयास करें । धर्म का अर्थ है कुछ करते रहना और अध्यात्म का अर्थ है खोजते रहना । इसलिए क्रिया-कांड धर्म है जबकि सम्यक् दर्शन अध्यात्म है । शास्त्रों को पढ़ना धर्म है किन्तु ग्रात्म-चिंतन करना जीवन का अध्यात्म है । किसी तरह का बाना पहनकर चारित्र्य का पालन करना धर्म है, लेकिन अपनी अनुभूतियों में जीते रहना, स्वयं में विहार करना अध्यात्म है । जीवन में धर्म की जरूरत होती है, क्रिया-कांड भी चलता है, लेकिन जीवन में अध्यात्म का अभ्युदय परम सौभाग्य की बात है । ताब मंजिल, रास्ते में मंजिलें हर कदम एक मंजिल था, मगर ( २ ) For Personal & Private Use Only हजारों थीं, मंजिल न थी । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जीवन-यात्रा में मंजिलें तो बहुत आई हैं, हम मंजिल के करीब भी पहुंचे हैं, लेकिन हमें मंजिल मिली नहीं। हम मंजिल पर जाकर भी लोगों से पूछने लग गए कि अमुक मकान कहां है ? जिस मकान के नीचे खड़े हैं, उसी का पता पूछ रहे हैं । जिस मंजिल को पाना है, उसी पर खड़े हैं लेकिन हमें मंजिल कभी मंजिल नहीं लगती। हमें तो मंजिल ही रास्ता लगती है। और होता यह है कि मंजिल की खोज कभी पूरी नहीं हो पाती। एक आदमी पैसा कमाने निकला। उसने हजारों कमाए, फिर लाखों कमाए, मगर उसकी खोज पूरी नहीं हुई। वह और कमाना चाहता है। पहले सोचता था हजारों कमा ल, फिर सोचा लाखों कमा लू। लाखों भी कमा लिए मगर नीयत नहीं भरी । अब भी उसे लगता है कि लाखों और कमाने हैं । बाह्य समृद्धि और बाह्य खोज के अपने अर्थ हैं, पर प्रांतरिक समृद्धि और आंतरिक खोज के बगैर हर उपलब्धि अपूर्ण है। पाकर भी और त्यागकर भी। सूरज आसमान में उगता है मगर उसकी खुली धूप नहीं बरस पाती। आइने के सामने जाते हैं तो वह भी आपको सही चेहरा नहीं दिखा पाता । पाइने भी झूठे होने लग गए हैं। उसकी सच्चाई भी संदिग्ध हो गई है। कोई आइना तो ऐसा होगा जो आपका मुह बड़ा दिखा देगा। कोई प्राइना आपकी टांगें छोटी कर देगा। यहां तक कि आपने कपड़े पहन रखे हैं लेकिन ऐसा आइना भी आता है जो आपको नंगा दिखा देगा। बदलते दौर में सिर्फ इन्सान ही झूठा नहीं हुआ है। इन्सान के सामने जो दृष्टांत थे, उपमाएं थीं, वे भी झूठी पड़ गई हैं। अब तो मनुष्य के जीवन में झूठ इस तरह समा गया है कि सच तो किसी परदे के पीछे जा छिपा है। झूठ के बिना आदमी का काम For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नहीं चल रहा। राजा हरिश्चन्द्र की कथा सुनते हैं तो सहसा विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा सच्चा पुरुष भी कोई हुआ होगा । बेईमानी इस कदर हावी हो गई है कि ईमानदारी से धन कमाने की नीति ही गलत होती जा रही है। ईमानदार रूखी-सूखी में जी रहा है, बेईमानी महल-महराब रच रही है । बेईमान को आगे बढ़ते देख, एक बार तो ईमानदार के पांव भी ठिठक जाएंगे। वह कहेगा-बेईमानी का फल आज, ईमानदारी का फल स्वर्ग में, ऊपर वाले के घर में । धन हमारी जरूरत है, पर ईमानदारी हमारी नीति । ईमान इल्म है, बेईमानी जुल्म है। जो लोग बेईमानी पर उतरे हैं, उन्हें पूछो यह सब तुम किसलिए कर रहे हो ? रोटी के लिए ? रहने के लिए ? अोढने-पहनने के लिए ? धन रोटी के लिए चाहिये, तो वह रोटी तो कम-से-कम ईमानदारी की खायो। बेईमानी के धन की रोटी खाकर तुम विश्व में कौन-से कीर्तिमान स्थापित करना चाहते हो ? सिकन्दर जिसने इतने युद्ध लड़े; आखिर किसके लिए ? रोटी क्या उसे अपने देश में नहीं मिलती थी, जो दूसरों की रोटियां छीनने को निकल पड़ा ? पता नहीं, आखिर हम किस गतानुगतिक चल रहे हैं । बेईमानी के मक्खन से तो ईमान की छाछ पीनी बेहतर है । वह व्यक्ति नासमझ है, जिसके जीवन में कोई उसूल नहीं है, कोई मूल्य नहीं है। जीवन निश्चित तौर पर खोज है, पर नश्वर की खोज में, नश्वर को बटोरने में अनश्वर दांव पर लगा है। कहीं ऐसा न हो कि आप जो काम करें वह अंधानुकरण साबित हो जाए। जीवन कोई अंधानुकरण नहीं है। वह तो अनुसंधान की वस्तु है। कहीं ऐसा न हो कि आप तो आंखों वाले हैं मगर एक अन्धा आपका हाथ पकड़कर आपको लिए जा रहा हो । ( ४ ) For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह अंधा आपका मित्र, गुरु, संत कोई भी हो सकता है । इसलिए खोज लाजिमी है | यदि आपको विश्वास नहीं है कि आप जिसके नक्शे कदम पर चल रहे हैं, उसने सत्य को पाया है या नहीं, तो बेहतर यह होगा कि आप जो कुछ करें, पहले उसे जान लें । ज्ञात सत्य का आचरण और आचरण का ज्ञात सत्य, दोनों जरूरी हैं । आपने जिसे जान लिया है, वह करो और जो कर रहे हो, उसे पहले जानो । आपने जान लिया मगर उसे जीवन में नहीं जिया तो वह 'जानना' अर्थहीन रहेगा । और किया मगर जाना नहीं तो अधूरे ही रहोगे । हम जानें और जियें । देखें और सोचें । यह सोचना ही खोज है । दर्शन के बाद जो चिन्तन होगा, जो मनन होगा, वही हमारी चेतना में रूपान्तरण घटित करेगा, वह मनन हमें मनुष्य बनाएगा, जीवन का कायाकल्प करने में सहायक होगा । तुम जितना जगत् को देखोगे, जीवन की गहराई में जियोगे, तुम्हारी खोज उतनी ही गतिमान् होगी । तुम सत्य के उतने ही करीब पहुँचोगे । मनुष्य, मनुष्य होकर अगर अस्तित्व को उपलब्ध न हो पाया, तो प्रभु नहीं, पशु की भूमिका में ही जी जाएगा । मेरे देखे, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो खोज कर सकता है, सत्य की खोज उसी के बस का काम हैं । जीवन भी सत्य है और जगत् भी, पर इस सत्य की अन्तरात्मा का स्पर्श कर लेना न केवल हमारा आध्यात्मिक पहलू है, अपितु वैज्ञानिक पहलू भी है । जीवन तो वनस्पति में भी होता है, जानवर में भी होता है । जीवन मनुष्य में भी होता है । मनुष्य का ज्यों-ज्यों मनोवैज्ञानिक विकास होता जाएगा, वैसे ही जीवन में खोज की संभावनाएँ भी ( ५ ) For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढ़ती जाएँगी | संभावनाएँ और भी सम्भावित हैं । तुमसे महावीरबुद्ध का, कृष्ण क्राइस्ट का पुनर्जन्म सम्भावित है । जरूरत है जिज्ञासा को जगाने की, प्यास को पनपाने की | तीन वर्ष का बच्चा पापा से हर चीज के बारे में सवाल करता है - पापा ! ये क्या है ? वो क्या है ? ये कैसे होता है ? वो कैसे होता है ? किसी भी नई चीज को देखकर उसके मन में जिज्ञासा पैदा होती है । जिज्ञासा का यह जन्म शुभ है । अगर आपने बच्चे की जिज्ञासा को दबाने का प्रयास किया तो इसके दुष्परिणाम होंगे । यह उस बच्चे के विकास की हत्या होगी । उसके मस्तिष्क की हत्या होगी । जिस जीवन से जिज्ञासा, आश्चर्य की मृत्यु हो गई, समझो इस जीवन की ही मृत्यु हो गई । जीवन में हर कदम पर जिज्ञासा और कौतूहल होना चाहिए । जिज्ञासा से ही आप जान पाएँगे कि सत्य क्या है और झूठ क्या है ? तभी दूध का दूध और पानी का पानी अलग नजर आएगा । किसी के कहने पर मत कहो कि ये सत्य और ये असत्य है । खुद जानो फिर कहो, तुम्हारी बात में वजन आएगा ? जिसने असत्य को नहीं जाना वह सत्य को भी नहीं जान सकता । खुद जानकर कहो कि यह सत्य है और यह सत्य है । हमने अज्ञान को जान लिया तो समझो ज्ञान को भी जान लिया । स्वयं के अज्ञान को जानना अपने भीतर ज्ञान को प्रकट करने का प्रथम सूत्र प्राप्त करना है। ज्ञान को पाने का प्रयास बाद में करना, पहले अपने अज्ञान को जान लेना । मनुष्य के लिए जो सबसे कठिन है, उनमें अपने अज्ञान का ज्ञान होना है । 'ज्ञान' का ज्ञान तो सबको होता है पर अज्ञान का ( ६ ) For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान, चेतना के परिवर्तन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम है। तुम ज्ञानी होकर, पंडित होकर अपने को उतना उपलब्ध नहीं कर पात्रोगे, जितना अपने अज्ञान को पहचान कर उपलब्ध हो सकते हो | तुम किताबों, ग्रन्थों और शास्त्रों को पढ़कर मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हो, पांडित्य का तिलक कर सकते हो, पर तुम्हारे लिए उन किताबों का अर्थ और अभिप्राय उस दिन होगा, जब तुम उनसे, उनके ज्ञान से अपने अज्ञान को पहचान लोगे । तब एक सरलता स्वयं में घटित होगी, एक ऐसी सरलता जो 'मैं- शून्य' हो । एक बार बहुत से लोग एकत्र होकर सुकरात के पास पहुँचे और उनसे कहने लगे कि आप ज्ञानी हैं । सुकरात कुछ देर चुप रहे । बाद में बोले – 'आज से दो साल पहले तक मैं भी यही समझता था, मगर जब से मैंने अपने अज्ञान को पहचाना है, उसी दिन से मैंने जान लिया है कि दुनिया में मेरे जैसा प्रज्ञानी कोई नहीं है । 'मेरा ज्ञान मेरी मूर्खता और मूढ़ता पर व्यंग्य है ।' मैं भी आपको कोई ज्ञान नहीं दे रहा हूँ। मैं आपको आपके भीतर के अज्ञान की पहचान करवा रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि आप उस अज्ञान में से ही ज्ञान की खोज प्रारम्भ करें। तभी ग्राप खुद जान पाएँगे कि ज्ञान और सत्य का तत्त्व-बोध क्या है । अंधानुकरण में मेरा विश्वास नहीं है । अगर अंधानुकरण ही ज्ञान प्राप्ति का मार्ग होता तो महावीर कभी तीर्थंकर नहीं बन पाते । वे भी पार्श्वनाथ के मार्ग पर चलते । लेकिन उन्होंने अपना मार्ग अलग चुना । हमें खोजना है | सबका ज्ञान अलग-अलग होता है । कृष्ण ने कहा कि तुम ईश्वर के अंश हो । इसके विपरीत महावीर ने कहा कि तुम किसी के अंश नहीं हो, अपने आप में एक स्वतंत्र आत्मा हो । सत्य हो, नित्य हो, सनातन हो । अपने को आत्मा मानो । ( ७ ) For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान बुद्ध का ज्ञान महावीर से भिन्न है । वे कहेंगे कि यदि तुमने अपने आपको एक आत्मा मान लिया, नित्य सनातन तत्त्व मान लिया तो इससे बड़ा तुम्हारा मिथ्यात्व दूसरा न होगा। कृष्ण के लिए जो भक्ति है, महावीर के लिए वही सम्यक् दर्शन है । और बुद्ध के लिए वह मिथ्यात्व है, अविद्या है। आप किसे मानेंगे ? हर एक अपने अनुभव से कहता है । बेहतर होगा, हम उस अभिव्यक्ति को अपनी अनुभूति न मानें । पहले अपने अनुभव की कसौटी पर कसें । हम यह जानने का प्रयास करें कि मैं कौन हूँ, मैं कहाँ मे आया हूँ, कहाँ जाना है ? मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है ? जगत् से मेरे सम्बन्धों का क्या अर्थ है ? इसलिए मै कहता हूँ, अंधानुकरण नहीं होना चाहिए, आत्म-अनुसंधान होना चाहिए । एक बंजारे ने किसी फकीर की सेवा की। फकीर ने प्रसन्न होकर उसे एक गदहा भेट में दे दिया। बंजारा प्रसन्न हुआ कि चलो सामान ढोने में आसानी हो जाएगी। कई माह बीत गए । एक बार वह बंजारा गदहे पर माल लादे जंगल से गुजर रहा था । एकाएक न जाने क्या हुआ कि गदहा मर गया । बंजारे को गदहे से काफी लगाव हो गया था। उसने सोचा कि इसकी 'मिट्टी' खराब क्यों की जाए । उसने एक गड्ढा खोदा और और उसे दफना दिया। ऊपर मिट्टी डालकर उसने एक अगरबती जला दी । जंगल से फल तोड़कर उस पर चढ़ा दिए । उसी समय एक और बंजारा वहाँ से गुजरा । उसने पहले बंजारे की देखादेखी गदहे की कब्र पर अगरबती लगाई और दो रुपये चढ़ा दिए । बंजारे पाते रहे और अगरबती जलाते रहे। वे आगे जाकर चर्चा करते कि जंगल में एक पहुँचे हुए संत की समाधि है। उधर For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले बंजारे के मजे हो गए। गदहा तो मरने के बाद उसे ज्यादा कमाई का रास्ता बता गया। उसने तो गांव-गांव घूमना छोड़कर वहीं ठिकाना बना लिया। धीरे-धीरे वहाँ अच्छा धार्मिक स्थान बन गया। धर्मशाला बन गई । राहगीर ठहरते । समाधि पर दो रुपये चढ़ाते और विश्राम के बाद गंतव्य की ओर निकल पड़ते। एक दिन वही संत वहाँ से गुजरा तो उसने अपने शिष्य को पहचान लिया। उसने पूछा- यह क्या गोरख धंधा है ? बंजारे ने कहा, गुरुजी आपसे क्या छिपाना । आपने जो गदहा दिया था, यह उसकी कब्र है । आज तक किसी ने नहीं पूछा कि यह किसकी कब्र है, लोग आते हैं, भेंट चढ़ाते हैं और चले जाते हैं । संत ने जोरदार कहकहा लगाया। थोड़ी देर बाद जब उसकी हँसी थमी तो उसने कहा-'यह दूसरी बार हुआ है। मैं जहाँ बैठता हूँ, वहाँ जो समाधि है, वह इस गदहे की माँ की कब्र है। लोग तो अंधानुकरण करते हैं, प्रात्म-अनुसंधान कोई नहीं करता। आप गदहे नहीं हैं, आप इंसान हैं । विडम्बना की बात यह है कि आज का इंसान अपनी इंसानियत को भूल चुका है। वह गदहे की हरकतें कर रहा है। एक इंसान गदहे की ही भांति बोझ लादे घर से दूकान, दुकान से घर चक्कर लगाते-लगाते जिन्दगी पूरी कर लेता है। ऐसे में विचार आता है कि आदमी और गदहे में कहाँ फर्क है। ___मैं नहीं चाहता कि आप इंसान होकर गदहे का जीवन जीयें । इंसान में इंसान की खोज ही इंसानियत को अपने भीतर पैदा करने का पहला सबक है । इंसानियत को पैदा करना ही स्वयं का ईश्वर से साक्षात्कार है । जिस दिन इंसान के भीतर का जानवर मर जाएगा For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और भीतर सोया इंसान जाग जाएगा, वह दिन उसके लिए परम पुण्य का दिन होगा। जीवन का परम प्रसाद पाने का दिन होगा। मनुष्य के आन्तरिक जीवन से पशु की मृत्यु हो, तो ही प्रभु होने के द्वार खुल सकते हैं। मनुष्य ने स्वयं के सत्य को खोज लिया तो समझो वह अपना जीवन तक बलिदान कर सकता है। आपने आज किसी शास्त्र को पढा, आप उस किताब के लिए अपने आपको कूरबान नहीं कर सकते, लेकिन किसी सत्य को आपने जान लिया तो समझो आप अपने को कुरबान करने की क्षमता भी प्राप्त कर लेंगे। अध्यात्म को जानं लेना अलग बात है और अध्यात्म को ढूढ कर उपलब्ध हो जाना दूसरी बात है। आप जब तक किसी किताब के सहारे चलते रहोगे, तब तक सिर्फ धार्मिक कहलाओगे, आध्यात्मिक नहीं हो पायोगे । जब तक किसी वाणी के सहारे चलोगे, यही स्थिति बनी रहेगी। जिस दिन आपने प्रात्म-तत्त्व खोज लिया, उस दिन आध्यात्मिक हो जाओगे । जैन साधु को 'ढढिया' कहा जाता है। इसका अर्थ है : जो ढूढता है, खोजता है । जिसकी खोज समाप्त हो गई, उसकी जिन्दगी भी समाप्त हो गई समझो । जब तक खोज है, तभी तक विज्ञान है, अध्यात्म है। इसलिए आप अपने आप को 'टू ढिया' बना सको तभी जीवन की सार्थकता मानना । 'टूढिया' होने का अर्थ केवल साधु या संत बन जाने से नहीं है। जो ढूढ रहा है, वह ढूढिया। शेष सब भेड़-धसान । जीवन भेड़-धसान नहीं, जीवन स्वयं एक विज्ञान है। हम में मानी हुई श्रद्धा नहीं, जानी हुई श्रद्धा हो । मानने और जानने में For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काफी अंतर है । आप मानो मत, जानो । जो जान लिया उसे फिर मानना ही पड़ेगा । केवल मानने से आपने जान लिया, यह जरूरी नहीं है । इसके तीन क्रम हैं - पहले खोजो, फिर जानो और तब मानो । इस क्रम से किसी चीज को खोजोगे तो वह मौलिक ज्ञान होगा | क्रांति का अर्थ क्या है, यही कि हमने माना नहीं, पहले जाना है । सभी लोग महामहिम नहीं हो सकते, लेकिन आप जो करते हैं, उसे जानते हुए करें। अगर ऐसा हुआ तो आप सत्य के लिए कुरबान हो सकते हैं । तुम जो सच्चाई कहते हो, उसे गलत मान लो । हम मृत्यु दण्ड माफ कर देंगे, ऐसा कहने पर जिसने गलत मान लिया, उसे सजा मिलकर रहेगी । जिसने सत्य को जान लिया वह अपने को कुरबान कर देगा मगर सत्य के खिलाफ नहीं जाएगा । सुकरात को इसीलिए जहर पीना पड़ा क्योंकि उन्हें सत्य के खिलाफ जाना मंजूर नहीं हुआ । जीसस क्राइस्ट को इसीलिए क्रूस पर झूलते रहना पड़ा कि उन्होंने ईश्वर के सत्य से पीछे हटने से इंकार कर दिया । पर मरते वक्त भी क्राइस्ट ने अपने शिष्यों से कहा, अपनी तलवारें अपनी म्यान में रख लो । जो तलवार उठाएँगे, वे तलवार से ही मरेंगे । समय आ गया है कि कष्ट सहते हुए मैं अपना बलिदान करूँ । और जब क्राइस्ट को सूली पर चढ़ाया गया, तो उन्होंने यही कहा, हे मेरे ईश्वर, इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं । मेरे देखे, जीवन एक महान् सत्य है । जीवन को उसकी गहराई से जीना, आनन्द से जीना, आध्यात्मिक होकर जीना, सत्य का उत्सव मनाना है । तुम्हें अपनी आत्म-मनीषा को जागृत करना चाहिये । ( ११ ) For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का अपना एक विज्ञान है । विज्ञान हमेशा सार्वजनिक होता है । विज्ञान की भाषा में जिसे प्रयोग कहते हैं, अध्यात्म की भाषा में उसे अनुभव कहते हैं । जब तक कोई चीज प्रयोग में खरी नहीं उतरती, वैज्ञानिक उसे नहीं मानते । इसी तरह जब तक कोई चीज अनुभव की कसौटी पर खरी नहीं उतरती तब तक एक आत्ममनीषी यह नहीं मानेगा कि यह चीज आविष्कृत हो चुकी है । आप सामान्य आदमी हैं, आपकी खोज अधिक सार्थक होगी। आदमी चल सकता है, स्वयं सक्रिय हो सकता है । इसलिए वह खोज भी कर सकता है । पेड़ में भी जान होती है लेकिन वो सक्रिय नहीं हो सकता। जानवर भी खोजी है, लेकिन मनुष्य की खोज उससे भी आगे होती है । जानवर की खोज पेट से आगे नहीं जाती। उसे शिकार मिल गया तो समझो उसकी खोज भी समाप्त हो गई । आदमी चूकि जानवर नहीं है इसलिए उसे यदि किसी चीज की उपलब्धि नहीं हुई तो वह परिश्रम करेगा, उसे खोजेगा । खोज की संभावनाएँ अनन्त हैं। डार्विन ने मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में खोज की, मगर वे कई मायनों में मनुष्य पर लागू न हो सकी। उसका सिद्धांत 'विकासवाद' का है। मनुष्य का विकास नहीं होता, वह खुद अपना विकास करता है । वनस्पति का विकास होता है। होने और करने में अन्तर है। होना स्वभाव है, करना क्रांति है । विकास प्रकृति का होता है, मनुष्य अपना विकास स्वयं करता है । आपने कभी कौव्वे को नहाते देखा है ? जो है, ठीक है । मनुष्य ने इसे बदला है । जैसा है, उसे वैसा नहीं रहने दिया । यह प्रकृति पर मनुष्य की विजय है। खोज तो जारी रहती है । महावीर के जीवन की खास बात यह है कि उन्होंने सोच लिया कि जंगल में जंगल के स्वभाव से रहेंगे । ( १२ ) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका अर्थ यू लिया कि जंगल में जानवर नंगा रह सकता है तो मैं क्यों नहीं रह सकता। अगर पेड़ को जंगल में खड़े-खड़े ही भोजन मिल सकता है तो मुझे क्यों नहीं । महावीर का यह स्वभाववाद है । जो जैसा है, ठीक है। लेकिन महावीर तो महावीर थे, हम महावीर नहीं हैं। हम व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझे। हर व्यक्ति कुछ-न-कुछ प्राप्त करना चाहता है। आपके पास हजार रुपये हैं, तो लाख की इच्छा पैदा होती है । लाख रुपये कमा लिए तो करोड़ की चाह में मन मचलने लगता है । हम कुछ-न-कुछ करते रहते हैं। इतने सारे आविष्कार हो गए, लेकिन दुनिया के वैज्ञानिक अब भी प्रयत्नशील हैं । खोज इसलिए जारी है क्योंकि संभावनाएँ कभी नहीं मरती । संभावनाएँ तो असीम हैं। संभावनाएँ हैं, इसीलिए तो मैं आपको आमंत्रित कर रहा हूँ। मैं तो सिर्फ एक ग्रामन्त्रण हूँ, आह्वान हूँ मनुष्य में छिपी दिव्यता की सम्भावना को आत्मसात् करने के लिए । व्यक्ति की खोज हमेशा दो दिशा में होती है । एक मार्ग बाहर की ओर जाता है जबकि दूसरा भीतर जाता है। आदमी जब भीतर की ओर चलने लगता है तभी उसकी यात्रा शुरू होती है। बाहर की खोज विज्ञान की है लेकिन भीतर की खोज अध्यात्म की है । इन दोनों को एक करने की कोशिश मत करना । विज्ञान का सम्बन्ध बाहर से है, लेकिन अध्यात्म का सम्बन्ध भीतर से है । जहाँ विज्ञान परास्त होगा, वहीं अध्यात्म की शुरुआत होगी। विज्ञान शरीर का रेशा-रेशा आपकी आँखों के सामने खोलकर रख देगा मगर उस शरीर में जो स्पंदन है उसका स्रोत वह नहीं बता सकेगा। इसके लिए आपको अध्यात्म की शरण में ही आना होगा। उस 'अज्ञात' तक विज्ञान की पहुंच नहीं है, जहां विज्ञान की सीमा समाप्त होती है, वहीं से अध्यात्म की सीमा प्रारम्भ होती है । For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंसतीन बहुत बड़ा वैज्ञानिक हुआ है । जब वह मरने लगा तो डाक्टरों ने उससे पूछा कि अगले जन्म में क्या बनना चाहोगे ? उसने नजर इधर-उधर घुमाई । कुछ क्षरण बाद बोला - मरने के बाद मैं कहां जाऊँगा, यह तो नहीं जानता, लेकिन अगर कोई शक्ति है तो मैं उससे मांग करता हूँ कि मुझे अगले जन्म में वैज्ञानिक न बनाना । रों को रोशन किया, औरों का आविष्कार किया, पर दीये तले अंधेरा रह गया । मृत्यु उसी अंधकार का नाम है । औरों को रोशनी देकर तुम औरों के लिए अमर हो जाओगे, पर वह अमरता और विजय क्या अर्थ रखती है, जब व्यक्ति स्वयं से हार जाता है । जीवन को अगर बाहर जिओगे, तो बढ़ते-बढ़ते सिकन्दर हो सकते हो । अगर भीतर जिओगे तो भीतर के साम्राज्य के महावीर हो सकते हो । जीवन के सूत्र और स्रोत न केवल बाहर हैं और न ही सिर्फ भीतर । जीवन देहरी है, जिसका सम्बन्ध बाहर से भी है और भीतर से भी । भौतिक समृद्धि के साथ प्रांतरिक समृद्धि आवश्यक है । भिखारीपन न भीतर का हो, न बाहर का प्रांतरिक समृद्धि तुम्हारे लिए है, बाह्य समृद्धि जगत् के लिए है । जीवन जगत् का प्रतिबिम्ब है । हमें समृद्धियों को आत्मसात् करना है । अपने को, धरती को, स्वर्ग बनाना है । हमें स्वयं को ऐसा रूप देना है, जिससे अस्तित्व हम पर हर ओर से अमृत बरसा सके । रोशनी की बौछार कर सके । । ( १४ ) For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागें, और जीयें बहुत पुरानी घटना है। मगध देश में राजा के पास बद्धरेक नामक एक हाथी था । देश भर में उसके शौर्य व पराक्रम की बड़ी चर्चाएं थीं। शायद ही ऐसे किसी हाथी की कथा आपने सुनी हो, जिसने सौ युद्धों में जीतने का गौरव पाया हो । बद्धरेक ऐसा ही एक हाथी था। लोग बड़े गर्व के साथ उस हाथी का नाम लेते थे । देवताओं में जैसे ऐरावत हाथी था, यह बद्धरेक ऐसा ही हाथी था। समय बीता, बद्धरेक बूढ़ा हो गया। अब वह अपने जंगले में पड़ा रहता। काफी अशक्त हो गया था। एक दिन उसकी इच्छा हुई और वह सरोवर की तरफ चला गया। उसकी आँखें भी कमजोर हो चुकी थी, इसलिए वो नहीं देख पाया कि उस सरोवर में अब पानी ( १५ ) For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम और दलदल अधिक हो गई थी । दलदल में उसके पांव धंसने लगे तो वह चिवाड़ने लगा। वह दलदल से निकलने में जितना जोर लगाता, उसके पांव उतने ही और धंसते जाते । थोड़ी ही देर में बद्धरेक की चिंघाड़ों से सैकड़ों लोग वहां जमा हो गए । बद्धरेक को दलदल से निकालने के लिए सभी संभावित प्रयास कर लिए गए मगर वह दलदल से बाहर न निकल सका । सभी के मन में इस बात को लेकर दुःख उमड़ने लगा कि क्या ऐसे महान हाथी की मौत इतनी दर्दनाक होगी ! कोई उपाय न बचा तो मगध के सम्राट ने अपने बूढ़े महावत को बुलाया, जो बद्धरेक की भांति ही अपने अंतिम दिन काट रहा था । महावत वहां आया और हाथी को दलदल में फंसा देखा। उसके झरीदार चेहरे पर एक क्षीण मुस्कान पाई। सरोवर के किनारे खड़े लोगों की नजरें अब महावत पर थी। वे यह जानने को बैचेन थे कि महावत हाथी को कैसे बाहर निकालेगा। महावत ने किसी को भेजकर रणभेरी मंगवाई और उसे बजाना शुरू किया। कुछ ही क्षणों में, लोगों की आँखें हैरत से खुली रह गई जब उन्होंने देखा कि हाथी एकाएक उछला और किनारे पर आकर चिंघाड़ने लगा। इस बार की चिंघाड़ पहले जैसी नहीं थी। राजा ने महावत से पूछा कि यह कैसे संभव हुआ। रणभेरी में ऐसा क्या था जो यह चमत्कार हुअा। महावत कहने लगा, यह हाथी रणभेरी की आवाज से परिचित है। इसने रणभेरी सुनी तो सोचा कि युद्ध में जीता है और इसी भावना ने इस में इतनी शक्ति भर दी कि यह दलदल से बाहर आ गया। जब यह घटना घट रही थी, भगवान के कुछ शिष्य उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने वहां रुक कर सारा घटनाक्रम देखा। उन्होंने ( १६ ) For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान के पास जाकर पूरा वाकया सुनाया और इसका अर्थ पूछा । भगवान ने उन्हें समझाया कि बूढ़ा होने के बावजूद बद्ध रेक की देशभक्ति और शौर्य की भावना नहीं मरी थी। यह कारण रहा कि रणभेरी सुनते ही उसमें शक्ति का संचार हुआ। पूरी बात कहने के बाद भगवान ने कहा मैं भी तो कब से रणभेरी बजा रहा हं, मगर तुम लोगों की नींद नहीं उड़ रही है। प्रमाद से छुटकारा नहीं मिल रहा है । बद्धरेक तो जानवर था, तुम लोग मनुष्य होकर भी नहीं जाग पा रहे हो । परमात्मा का सामीप्य पाकर भी संसार-चक्र से नहीं छूट सके, इससे ज्यादा पीडाजनक स्थिति और क्या हो सकती है । तुमसे तो वो हाथी ही अच्छा है जो रणभेरी सुनकर जाग्रत हो गया। मेरे पास इतने आदमी आते हैं मगर गौतम कोई-सा ही बन पाता है । अधिकांश गौशालक बनकर रह जाते हैं । परमात्मा के समीप पहुंचकर भी कोई व्यक्ति गौतम न बन पाए तो इसमें परमात्मा का क्या कुसूर ? मैं भी तो रणभेरी बजा रहा हं । जागो, अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करो। सारी दुनिया बद्धरेक की तरह दलदल में फंसी है। प्रादमी दलदल से निकलने का प्रयास करता भी है, मगर वह प्रयास ऊपरी ही होता है । इसलिए वह दलदल में और धंसता चला जाता है। किसी ने थूका। एक मक्खी उस पर आकर बैठी। बाद में उसके पांव के साथ पंख भी उसमें धंसते चले गए। उसका प्रयास बाहर निकलने का होने के बावजूद वह नहीं निकल पाती और वहीं दम तोड़ देती है । आदमी की भी हालत ऐसी ही है। वह सोचता है कि मजा कहीं और से आ रहा है । शरीर में खुजली हुई । मनुष्य को खुजाने में मजा आने लगा मगर जब शरीर से खून निकलने लगा, तब उसे समझ में आया कि थोड़े से मजे की कितनी बड़ी कीमत उसने चुकाई है । सारी जिन्दगी खुजाने में ही गुजर जाती है । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार के दलदल में ऐसा प्रानन्द कदम-कदम पर मिलता है । आदमी को अगर यह अहसास हो जाए कि मैं जो खुजा रहा हूं, उसमें आनन्द नहीं, पीड़ाएं मिलेंगी तो वह खुजाना बंद ही कर दे । खुजली न करोगे तो दर्द तो होगा, मगर वह धैर्य की परीक्षा होगी । प्राप उस परीक्षा में पास हो गए तो साधुत्व का प्रथम द्वार आपके लिए खुल गया समझो । आत्म-ज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है कि बाहर से कोई आएगा और हमें दे जाएगा । जीवन में जहां पीड़ाएं हैं, कष्ट हैं, उन्हें हमने जान लिया यही प्रात्म-ज्ञान की प्राप्ति का पहला पाठ है । जिसने यह जान लिया कि खुजाने में पीड़ा है वह नहीं खुजाएगा। आपने कुत्ते को हड्डी चबाते देखा होगा । चबाते - चबाते उसके मुंह में खून निकलने लगता है । कुत्ता समझता है यह खून किसी और का है । उसे आनन्द आने लगता है । जब उसे पता लगता हैं कि खून उसी का है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है । मनुष्य का प्रानन्द, आनन्द नहीं, जीवनऊर्जा का विनाश है । हम सब परमात्मा के पास जाते हैं। उनसे भव-सागर पार करवाने की प्रार्थना करते हैं, मगर हमारे ही लिए परमात्मा द्वारा बजाई जा रही रणभेरी की आवाज हमें सुनाई नहीं देती । किसी को सुनाई देती भी है तो वह अनसुनी कर देता है । धार्मिक और धार्मिक लोग हर युग में रहे हैं । राम और कृष्ण के युग में भी ऐसे लोग होते थे । अब परमात्मा का सानिव्य पाकर भी कोई अपना जीवन धन्य नहीं मान पाता तो यह उसी का दुर्भाग्य कहा जाएगा । अहंकार ने भी हमारा बहुत नुकसान किया है । प्रभु की कृपा आप पर भी हो सकती है अगर आप अहंकार को तिलांजलि दे सकें । ( १८ ) For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप अपना पहले का ज्ञान वहां छोड़कर पाएं जहां आपने जूते उतारे हैं। मेरे मन-मन्दिर की सभा में प्रवेश करें तो बिल्कुल कोरा कागज बनकर आएं । तभी आपके रिक्त मन में मेरी बातें स्थान पा सकेंगी, अन्यथा आप तर्क-वितर्क की माया में फंस जाएंगे। तब आप श्रोता नहीं 'सरोता' हो जाएंगे और सरोता सिर्फ काटता है, उसे जोड़ना नहीं आता। मेरी बातें न किसी को काटने की है, न कटने की है, सिर्फ अपने आप से जुड़ने की हैं। जो लोग पूर्व के तर्क-वितर्क के आधार पर मेरी बातों को लेंगे तो वे परमात्मा के इस ज्ञान की अनुभूति नहीं कर सकेंगे। सरोता मत चलाइए। मैं आपको सौ बातें कहूंगा। हो सकता है कि उसमें से कोई दो बातें आपके मन में भीतर तक उतर जाए। मैं समझूगा मेरा वे बातें कहना और आपका सुनना सार्थक हो गया । परमात्मा ने रणभेरी बजाई। मैं भी रणभेरी बजा रहा हूं। रणभेरी बजाने का उद्देश्य यही है कि तुम जैसे-तैसे भी जाग जायो । भगवान इससे अधिक कुछ और नहीं चाहते । जो जाग गए, समझो उनका जीवन सार्थक हो गया। परमात्मा को पाने का यही रास्ता है कि आप नींद से जाग जाएं । आप या तो परमात्मा के प्रति स्वयं को समर्पित कर दें, या फिर स्वयं परमात्मा होने के लिए कृत संकल्पित हो जाएं। दो ही मार्ग हैं । एक मार्ग भक्ति का है, दूसरा ध्यान का। एक मार्ग समर्पण का, दूसरा संकल्प का। जिस तरह नमक पानी में घुलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेता है, ठीक उसी तरह अपने अहम् को विगलित करना होता है। और तब गंगा भी गंगा नहीं रहती। सागर में जाकर वो भी सागर हो जाती है । तब मीरा, मीरा नहीं रहती, वह भी सरिता की तरह सागर में मिलकर विराट हो जाती है। मीरा ही कृष्ण बन जाती है। सागर में मिलने के बाद पानी की हर बूद में सागर का ही स्वाद समा जाता है। बूद को ( १६ ) For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर सागर होना है, तो सागर में खोना होगा। मिटाना होगा स्वयं को। अहं को मिटाकर ही सर्व को आत्मसात् किया जाता है । यह पहला मार्ग हुअा। यानी पहला गंगा सागर से गंगोत्री तक और दूसरा गंगोत्री से गंगासागर तक । पहला मार्ग भक्ति है और दूसरा मार्ग ध्यान है । विराटता तो दोनों की परिणति है। विराटता को तो दोनों ही मार्गों से उपलब्ध कर जानोगे, मगर फर्क है । भक्ति का सम्बन्ध परमात्मा से है, ध्यान का सम्बन्ध प्रात्मा से है, स्वयं से है। हमारा पहला धर्म परमात्मा को पाना नहीं है, स्वयं को पाना है । जो आत्मवान् नहीं है, वह परमात्मा की साकारता से भी वंचित ही रहेगा। अपने को उपलब्ध करके ही तुम औरों को पा सकते हो। आत्मा का क्रम पहला है, परमात्मा दोयम है। आपकी मानसिक तैयारी कैसी है, अन्तर की अभीप्सा कैसी है परमात्मा पाने की या परमात्मा होने की ? ___ श्राप परमात्मा के श्रीचरणों में जाकर समर्पित होना चाहते हो तब भी पहुंच जाओगे और स्वयं परमात्मा बनते हो, तब भी पहुंच ही जानोगे । परमात्मा हमारा स्वभाव है और यह मार्ग उस स्वभाव में वापसी का है। जो लोग भक्ति करेंगे वे भी पहुंच जाएंगे और जो ध्यान करेंगे, वे भी पहुंच जाएंगे। मूल बात मूल स्रोत तक पहुंचना है। गंगोत्री तक पहुंचना है। गंगासागर से गंगोत्री तक की यात्रा आसान नहीं है। यहां भी दो रास्ते हैं। पहला तो यह कि अपने आपको गंगासागर में आत्मसात् कर लो। सूर्य की ऊष्मा से भाप बनो, बादल बनो और गंगोत्री पर जाकर बरस जाओ। यह तो एक मार्ग हुआ। दूसरा मार्ग जरा कठिन है। जब हम स्वयं परमात्मा बनने का प्रयास करेंगे तभी गंगोत्री की ओर हमारी यात्रा शुरू हो जाएगी, गंगासागर से गंगोत्री तक, तलहटी से शिखर की अोर । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्टे चलना है, बहना नहीं वरन् तैरना है। साधना मूल उत्स की ओर बढ़ने और तैरने का ही उपनाम है । एक मार्ग राम-कृष्ण का है, सूरदास का है, दूसरा बुद्ध, महावीर और पंतजलि का है। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं - मां, मुझे तो बेहोशी चाहिए । तुम्हारे चरणों का सहारा चाहिए । यह मार्ग मीरा, चैतन्य महाप्रभु का है । भक्ति का मार्ग है। इस मार्ग में ही अहोभाव उत्पन्न होता है, जब परमात्मा हमारे में स्वयं में साकार होने लगता है। इसके साथ ही हमारे पाँव खुद-ब-खुद थिरकने लगते हैं। बिना घुघरू ही छनक पैदा होने लगी है। प्रेम की झील में हमारा मानस अपने आप तैरने लगता है। स्पर्शातीत के स्पर्श से पुलकित होने लगता है। आदमी मंदिर जाता है। पांच मिनट मूर्ति के आगे खड़ा होकर वापस चला पाता है। इससे काम नहीं चलेगा। परमात्मा के प्रति समर्पित होना है तो मीरा बनना पड़ेगा । मीरा की भावना से ही प्रभु अपने में विलीन कर लेते हैं। तब पत्थर की प्रतिमा में भी भगवान प्रकट हो जाते हैं। मीरा जहर का प्याला पी लेती है। एक नारी महलों का राज-पाट छोड़कर कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो जाती है तो सोचिएगा, उस नारी में कितना अहोभाव जाग्रत हो गया होगा । कितना परम प्रसाद होगा उस अमर आत्मा के लिए। ऐसे लोगों को ही परमात्मा मिलते हैं। और इतना ही नहीं, ऐसे लोग स्वयं परमात्मा हो जाते हैं। परमात्मा ऐसे ही लोगों में जीते हैं। दुनिया की नजरों में यह भले ही पागलपन या दीवानापन हो लेकिन वह 'पागल' जानता है कि यह पागलपन नहीं, परमात्मा द्वारा पिलाया गया अमृत है । ( २१ ) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन । वो तो गली-गली हरि गुन गाने लगी । महलों में पली बनके जोगन चली, मीरा रानी दीवानी कहने लगी कैसी लागी लगन ऐसा होता है । दूसरा मार्ग महावीर, बुद्ध और पंतजलि का है, वहां शरण का क्या काम ? वे तो कहते हैं 'अशरण भावना' । फिर किसकी शरण में जानोगे ? इस दुनिया में तुम्हारा पिता शरणभूत नहीं है, माता शरणभूत नहीं है । पत्नी, बच्चे, रिश्तेदार कोई भी शरणभूत नहीं है फिर परमात्मा भी शररणभूत कैसे होगा ? अशरण यानि किसी की शरण नहीं । यदि परमात्मा शरण होते तो गौतम को रोना नहीं पड़ता । महावीर के रहते ही उन्हें परम ज्ञान प्राप्त हो गया होता । 1 किनारे को भी पार परमात्मा ने गौतम को जाते-जाते एक ही सीख दी कि तुम सारे सागर पार कर चुके हो तो अब मेरे किनारे आकर क्यों बैठे हो ? अगर तुम्हें अपने आप को प्राप्त करना है तो इस कर जाओ । तुम जैसे भी हो, अगर तुम्हें 'तुम' बनना है तो तुम्हें परमात्मा को भी छोड़ना होगा । मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता, राम या कृष्ण नहीं बनना चाहता, मैं तो वह होना चाहता हूं, जो मैं हो सकता हूं। मुझमें जो सम्भावना है, सिर्फ वही होना चाहता हूं । आत्मा को पाने के लिए 'परमात्मा' को भी पार करना पड़ता है । तुम अगर स्वयं को उपलब्ध हो रहे हो और उस समय अगर परमात्मा भी आ जाए, तो उसे भी दर किनार कर दो। तुम्हारे लिए 'तुम' ही सर्वोच्च मूल्य हो । दुनिया में महावीर एक ही पैदा हो ( २२ ) For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है । तुम जैसे स्वयं हो, वैसे ही बन सकते हो। दूसरा महावीर नहीं बन सकते । हम जैसे हैं, वैसे ही बनने का प्रयास करें, मुखौटा चढ़ाने से बचें। महावीर कहते हैं कि मेरे मार्ग पर चलना है तो जागरूकता पैदा करो। ध्यान, होश और संबोधि पाओ। मैने स्वयं को आत्मसात् किया है इसी जागरूकता और ध्यान के माध्यम से । इस मार्ग में बेहोशी का क्या काम ? महावीर का मार्ग तो जिनत्व का मार्ग है। अपने आपको जीतने का मार्ग है । वह जैनत्व का नहीं, जिनत्व का मार्ग है। अनुशासन का नहीं, आत्मशासन और आत्म-विजय का मार्ग है। यह अरिहंत का मार्ग है और अरिहन्त तो खुद को ही होना होता है । इसलिए जब मन्दिर जाते हो और वहां भगवान की पूजा करते हो तो इसका मतलब यह होता है कि उनके गुणों को हम अपने में प्रात्मसात् कर पाएं। भगवान ने किस तरह अपने आप को जीता। उन्हीं तरीकों से हमें अपने आपको जीतना होगा। स्वयं को अपराजेय करना होगा। मन्दिर में रखी मूर्ति का आलंबन इसलिए है ताकि हमें अपने अरिहंत स्वरूप की याद आ जाए। हमारा. कोई भी कदम हो. आत्म-विजयी जागरूकता के साथ हो । बैठो तो सोये-सोये मत बैठना। जाग्रत बैठना । बोलो तो भी जाग्रत रहना । सोमो तो भी जागे रहना। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम अपनी आँखें खोलकर सोना । सोप्रो तो भी अपना बोध मत खोना। स्वयं को सदा कायम रखना। बाहर भी और भीतर भी। चेतन में भी और अवचेतन में भी। जब अवचेतन में, सुषुप्ति में भी स्वयं का बोध कायम रहे, तो यही सम्बोधि है स्वयं का बोध, सम्यक् बोध । सोये-सोये ही अपने 'फूल' को मत मुरझा देना। जीवन का यह फूल बड़ी मुश्किल से और एक ( २३ ) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार ही खिलता है । फिसलन भरे मार्ग में भी जागरूक व्यक्ति के फिसलने की संभावना कम रहती है । आत्म-बोध को विस्मृत कर जीने में मनुष्यत्व का क्या अर्थ ? अपने को भुलाकर जीने वाले तो जानवर हैं । हम पशु नहीं, मनुष्य हैं । फूल की तरह खिले बिना, अपने आपको उपलब्ध हुए बिना चले जाना स्वयं की स्वयं से ही पराजय है । सोना भी जाग्रत अवस्था में जरूरी है । कुछ लोग सोने के बाद ऐसे हो जाते हैं मानो मुर्दा हो गए हों । उनके साथ कुछ भी कर लो, उन्हें पता ही नहीं चल पाता । अगले दिन प्रांख खुलेगी तो फिर पैदा हो जाएंगे, नया जीवन शुरू करेंगे । कुछ लोग इस तरह सोते हैं कि आप उनके नीचे से बिस्तर निकाल लो, उन्हें पता ही नहीं चलता । उनके कपड़े तक उतार लो, तो कोई खबर नहीं । ऐसे आदमी को अपना भान कहां से होगा। उसकी मूर्छा गहरी है । भीतर का दलदल गहरा है । भीतर के बंधन सुदृढ़ हैं । तुम चाहे जो भी काम करो जागे-जागे करना । एक दफा तो अगर अशुभ भी करना हो, तो भी जागरूकता के साथ, द्रष्टाभाव के साथ, मात्र गवाह बनकर । क्रोध करो तो भी जागरूक रहना । कहीं ऐसा न हो कि अज्ञान की दशा में आपका क्रोध प्रकट हो जाए । क्रोध को भी जागरूकता के साथ, बोधपूर्वक प्रकट करना । वो क्रोध भी सार्थक होगा । वो क्रोध कर्म की निर्जरा में सहायक होगा । हमारा हर कदम जागरूकता के साथ उठना चाहिए । के साथ उठने वाले कदम में अगर कुछ अनुचित भी हो जाये, पहली बत तो होगा ही नहीं, फिर भी हो जाये, तो इससे तुम्हारी ग्रात्मदशा में, अन्तर-अवस्था में कोई फर्क नहीं प्रायेगा । तुम्हारी चेतना स्वस्थ रहेगी । जागरूकता ( २४ ) For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतजलि के अनुसार चित्त की तीन अवस्थाएं होती हैं। पहली सुषुप्ति, दूसरी जाग्रति और तीसरी स्वप्नावस्था। सुषुप्ति का अर्थ सोना, जाग्रति माने जागना और स्वप्नावस्था का मतलब स्वप्न देखना होता है । आदमी पूरी तरह से एक स्थिति में रहे । या तो वह जाग जाए, या सो जाए। या तो वह भक्ति का मार्ग अपना ले, या फिर ध्यान का मार्ग अपना ले। बीच का मार्ग कभी सार्थकता नहीं दे पाएगा। स्वप्न में खाए लड्डू से पेट न भरेगा। कोई भी सपना हमारा अपना नहीं होता । सपना मन की चंचलता का मात्र छायांकन होता है । न जाने कैसे सपने पा जाते हैं। सपने में बड़ा मजा आता है। आदमी जो चीज जागते हुए नहीं पा सकता है उसका सपना देखता है। लेकिन यह झूठा मजा है। सपने क, प्रानन्द कोई आनन्द नहीं होता। सपने में चाहे जो मौज मना लो, जब आँख खुलती है तो अतृप्ति ही महसूस होती है। सारा संसार एक सपना ही तो है। कुछ खुली आंख का सपना है तो कुछ बंद अांख का सपना है। जिस आदमी ने यह जान लिया कि संसार सपना है, उसके जीवन में संन्यास के अलावा और कोई विकल्प शेष रहेगा ही नहीं। जब तक आप संसार को सत्य समझोगे, तब तक जीवन में संन्यास घटित नहीं होगा । जिस दिन यह संसार एक सपना लग गया, एक प्रवंचना लग गया, उस दिन निश्चित तौर पर जीवन में मुनित्व घटित हो जाएगा। प्रात्मा संसार का अतिक्रमण कर जाएगी। कहते हैं : एक देश का राजकुमार बीमार हो गया । इतना बीमार कि मरण शय्या पर पड़ गया। सम्राट, राजमाता, सभासद सभी राजकुमार को घेरे बैठे थे। किसी भी क्षण राजकुमार की जीवन-डोर टूट सकती थी। ऐसे में सम्राट को नींद आ गई । सम्राट ( २५ ) For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने देखा कि वह सोने के महल में बैठा है, उसके सात रानियां हैं । सभी से एक-एक राजकुमार हैं। सम्राट ने सातों राजकुमारों को अपने पास बुलाया। जब वे पास आ गए तो सम्राट ने उन्हें गले लगाना चाहा, लेकिन यह क्या ? सम्राट की अांख खुल गई। सभी गायब, महल, राजकुमार । उसने देखा राजरानी रो रही हैं। राजकुमार चल बसा था। राजा की प्रांख राजरानी का रुदन सूनकर ही खुली थी। सभी रो रहे थे । राजा हतप्रभ । सभी ने राजा से कहा, आप क्यों नहीं रो रहे हैं। राजकुमार के मरने का आपको दुःख नहीं हुआ क्या ? राजा हंसने लगा। किसके लिए रोऊं। इस एक राजकुमार के लिए या उन सात राजकुमारों के लिए जो अभी मेरे पास थे, अब गायब हो गए। राजरानी ने समझाया कि वो तो सपना था, यह असली है। राजा ने कहा कि दोनों ही स्वप्न थे। एक बंद आंख का सपना था, एक खुली आंख का ।। यह संसार भी तो स्वप्न ही है । सपने से आंख खुल गई और साथ ही इस संसार रूपी सपने से भी अांख खुल गई। भाक्त का, संन्यास का मार्ग मिल गया। लम्बी नींद से जाग गए। संसार के दलदल से निकलने का मार्ग ढूंढ लिया । अंतर्दृष्टि खुल गई । हकीकत में अहसास होने पर ही जीवन में रूपान्तर घटित होता है । जब आदमी को लगेगा कि संसार सपना है, वीराना है, तभी जीवन में संन्यास सम्भव होगा । कदम आत्मोन्मुख होंगे, मूल्य पर केन्द्रित होंगे। स्वप्न, स्वप्न है। स्वप्न अगर दो हैं, तो सत्य दो सौ हैं । स्वप्न कितने भी लुभावने क्यों न हों, पर बन्द आंखों के सपनों के चलते खुली आंखों के सत्य को ठुकराया नहीं जा सकता। 'प्रांख में हो स्वर्ग लेकिन पांव पृथ्वी पर टिके हों ।' बेहतर होगा हम स्वप्न की For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजाय जीवन की वास्तविकता के धरातल पर आएं। अांख के भीतर की आंख खोलें, अपने में जागें । संसार तो पहले भी था, अब भी है, आगे भी रहेगा। मैं उस संसार को सपना कहता हूं, जिसका निर्माण हमने किया है । ये अपना है, वो पराया है। ये मित्र है, वो शत्रु है। उसी संसार को मैं सपना कहता हूं। ये संसार तो है ही, रहेगा भी । मैं तो उस संसार की बात कर रहा हूं जिसका निर्माण हमने, हमारे मन ने किया है, सीमाओं में बांधा है । आज जो मित्र है, कल शत्रु बन जाता है। पत्नी आपकी सेवा करती है, लेकिन कल उसका मन बदल सकता है, आप निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकते। आने वाले कल की भविष्यवाणी आप नहीं कर सकते। इसीलिए कहता हूं संसार एक सपना है। जरूरत एक बार इस संसार को सपना समझने की है। जिसने जीवन में एक बार जान लिया कि 'मृत्यु' है, और मुझे भी मरना है, वही व्यक्ति जीवन में क्रांति घटित कर पाएगा। अभी तो ये लगता है कि कोई और मर रहा है । किसी और की मृत्यु हो रही है। किसी की भी मृत्यु है, वह हमें हमारी मृत्यु की सूचना देती है। सब लाइन में लगे हुए हैं, जाने कब किसका नम्बर या जाए। कुछ चले गए, कुछ जा रहे हैं, हम भी जाएंगे। जिसने मृत्यु का सत्य जान लिया, उसने संन्यास प्राप्त कर लिया। मौत जब भी आए, उसका स्वागत करना है। पर जब तक जीएं, सुध-बुध के साथ, सम्बोधि के साथ जीएं। अभी हमें भरपूर जीना है, लेकिन अपनी छाया के कारा में नहीं, अंधियारा में नहीं। हमारा हर कदम सधा हो। हम अपने प्रति, अपने विचारों के प्रति, अपने चिंतन के प्रति सजग-जागरूक हों। परमात्मा हमारी प्राप्ति नहीं, वरन् हमारी परिणति हो । जो पल-पल ध्यान और बोध के साथ जीता है, वह ( २७ ) For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन्त है, चैतन्य है । परमात्मा आत्मा का ही परम रूप है, चेतना की ही पराकाष्ठा । चिर सजग प्रांखें उनींदी, प्राज कैसा व्यस्त बाना | जाग तुझको दूर जाना । पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना । तू न अपनी छांह को, अपने लिए कारा बनाना । जाग तुझको दूर जाना । यात्रा लम्बी है, बाधाएं अनगिनत हैं, जाग्रति और सम्बोधि अगर साथ है तो तुम संसार के नश्वर-पथ पर भी अपने अनश्वर पदचिह्न छोड़ कर जा सकते हो। हमारे कदम हो जागरूक, जीवन की इसी में सार्थकता है । जागो और जिओ । जिओ और मुक्त हो जाओ । ( २= ) For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभले सो समझदार घटना राजधानी की है। बीच बाजार लोगों का आवागमन जारी है। कोई आ रहा है, कोई जा रहा है। हर व्यक्ति अपनी जरूरत की चीज खरीदकर आगे बढ़ रहा है। वहीं एक कसाई की दुकान है । वहां एक टोकरी में मुर्गे भरे पड़े हैं। वह टोकरी उन मुर्गों के लिए थोड़ी देर का ही ठिकाना है। छोटी-सी टोकरी में इतने मुर्गे हैं कि वे ठीक से सांस तक नहीं ले पा रहे हैं । दुकान का मालिक एक मुर्गे को बाहर निकालता है, उसकी गर्दन काट देता है। वह एक-एक कर मुर्गों की गर्दन काटता चला जा रहा है । अपने साथी को कटता देखकर भी किसी मुर्गे के मन में दया नहीं आती । उसकी ओर ध्यान तक कोई नहीं देता। अपने में ही मगन हैं ( २६ ) For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब । वे इस बात से बेखबर हैं कि अगली बारी उनकी भी हो सकती है । हर-एक यही सोच रहा है कि कोई दूसरा मर रहा है । थोड़ी देर में सभी मुर्गों का एक ही हाल होता है। चारों तरफ निस्तब्धता छा जाती है। यह कोई कहानी मात्र नहीं है । यह जिदगी है । उन मुर्गों की तरह हमारी भी जिन्दगी हलाल होती जा रही है। आज दायीं तरफ वाले मकान का मालिक गया। परसों बायीं तरफ वाले ने दुनियां छोड़ी थी, कल हमारी भी बारी आयेगी। इसलिए यह घटना जीवन का सत्य उजागर करती है। एक जिन्दगी कैसे इतने रूप बदल लेती है। इसी जिन्दगी में आनन्द है, खुशियां हैं। और यही जिन्दगी मुसीबतों का भी कारण है । जो जिन्दगी अभी परेशानी है, कुछ क्षण बाद ही वह आनन्द बन जाती है । जो आनन्द है, थोड़ी देर में परेशानी में बदल जाता है। __मछुआरे ने कांटा डाला। मछली आई, उसे आटा नजर अाया। आटे के लालच में वह कांटे की तरफ बढ़ी। जब कांटे में उसका मुह फंस गया, तब उसे होश आया कि वह तो कांटा था, आटा तो दिखावटी था । यही तो जिन्दगी की कहानी है। दो मिनट पहले जो आनन्द था, कुछ ही देर में वह कष्ट का कारण बन गया। मेरे देखे, जीवन के ताने-बाने में कोई अन्तर नहीं है। जीवन की राह से गुजरते तो सभी हैं। सभी का जीवन एक ही चेतना, स्नायुतन्त्र से बना है । कहीं कोई फर्क नहीं है । सबकी जिन्दगी एक जैसी है । सुख-दुःख सबकी जिन्दगी में आते हैं । जिस मार्ग से महावीर, गाँधी जैसे महापुरुष पाए, उसी मार्ग से चंगेजखान, हिटलर जैसे आततायी शासक भी पाए । आकाश से कोई नहीं टपका। अवतार भी मां की कोख से आए और तीर्थंकर के आने का मार्ग भी वही है । For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबका जन्म-मार्ग एक ही है। फिर फर्क कहाँ पैदा हो जाता है। यह बात ही तो समझने की है। जीवन मार्ग पर सफर करते समय कौन किस तरह के अनुभव बटोरता है, यह खास बात है। सिकन्दर ने इसी मार्ग पर अनुभव बटोरे और महावीर और बुद्ध ने भी यही मार्ग अनुभवों को बटोरते तय किया। मगर दोनों में रात-दिन का फर्क रहा । अापके पिता के अलग अनुभव हैं तो आपके दूसरे अनुभव हैं । आपके पिता ने बहुत प्रभाव देखे । छोटा-सा काम शुरू कर बड़ा व्यवसाय खड़ा किया। आपको उन अभावों का सामना नहीं करना पड़ा । अनुभवों से ही आपके पिता जीवन का निचोड़ निकालेंगे । पिता अपने पुत्र को कोई गलती करते देखता है तो तुरन्त डांट देता है, लेकिन एकांत में बैठकर पुत्र को यह नहीं समझाता कि देख बेटा ! यह गलती मैंने भी की और समय पर इसमें सुधार नहीं कर सका । मेरे जीवन में अमुक कमी रह गई। इसलिए मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ, उन गलतियों से बचाना चाहता हूँ। विवाह हो या व्यवसाय, पिता को चाहिए कि वह अपने पुत्र को इनमें खुद को हुए अनुभवों से अवगत करा दे। अपने अनुभव अपने वंशजों को बतायो जरूर, लेकिन उन्हें लकीर का फकीर मत बनायो । तुम्हारा काम उसे सही या गलत की जानकारी देना है। आपने देखा होगा, एक वकील अपने पुत्र को वकील बनाना चाहता है। आपका पुत्र जो बनना चाहता है, उसे वैसा बनने का प्रयास करने दीजिए। उसके लक्ष्य की प्राप्ति में मदद कीजिए, उसकी टांग मत खींचिए कि, यह नहीं, वह करो। अनुभव आपको जीने का ढंग बताते हैं। एक बूढ़ा आदमी होटल में ठहरा । जब वह लौटने लगा तो नीचे रिसेप्शन काउण्टर पर उसे याद आया कि वह अपनी तीन चीजें कमरे में ही छोड़ आया । ( ३१ ) For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमरा तीसरी मंजिल पर था। उसने समीप खड़े होटल के एक कर्मचारी से कहा कि मेरी घड़ी, चश्मा और रूमाल कमरे में ही रह गए हैं । कर्मचारी ऊपर कमरे में गया और उस बूढ़े की तीनों चीजें लेकर कमरे की बालकनी में आया, जो रिसेप्शन में खुलती थी। उसने ऊपर से ही पहले घड़ी फेंकी, जो बूढ़े के हाथ में न पाकर नीचे गिर गई और टूट गई। तब बूढ़े ने कहा-'चश्मा जरा सँभाल कर फेंकना !' लेकिन चश्मा भी बूढ़े के हाथ में न आ सका और धरती पर गिरकर टूट गया । वह होटल कर्मचारी रूमाल भी फेंकने लगा तो बूढ़े ने कहा-'उसे मत फेंकना ।' चश्मे और घड़ी की तरह कहीं वह भी........। जो आदमी गर्म दूध से जल जाता है, वह छाछ भी फूंक-फ़क कर पीता है क्योंकि एक नजर में दोनों एक जैसे नजर आते हैं । आप जिन्दगी में जहां चूक गए, जहां आपको ठोकर लगी, वे सारी बातें अपने पुत्र को बताइएगा। अपने अनुभव उसके साथ बाँटिएगा। इससे पुत्र आपके और समीप आएगा. अन्यथा वह आपसे हमेशा दूरी रखेगा और दूरी कई तरह की गलतफहमियों को जन्म देती है। मगर हकीकत यह है कि अपनी कमजोरी कोई किसी को नहीं बताना चाहता। आप जहाँ चूक रहे हैं, अपने पुत्र को, मित्रों को जरूर बताइए। ____जीवन के अपने अर्थ हैं। कहते हैं जीवन पहेली है। आसानी से समझ में नहीं आती। जीवन का अर्थ किताबों में नहीं मिलेगा। जो लोग जीवन को समस्या मानते हैं, वे गलती कर रहे हैं। जीवन समस्या नहीं है, रहस्य है । रहस्य को जितना जिप्रोगे वह उतना ही खुलता चला जाएगा। किताबों में आपको एक-दो बिन्दु मिल जाएंगे, लेकिन अर्थ नहीं मिल पाएगा। ( ३२ ) For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं यह सब इसलिए कहता हूँ क्योंकि हमारे पास जीवन ही एक ऐसी सम्पत्ति है, जिसे हम अपना कह सकते हैं । जन्म हमारी इच्छा से नहीं हुआ । मृत्यु भी हमारी इच्छाओं से परे की चीज है । एकमात्र जीवन ही हमारा है । उस पर हमारा अधिकार है । 'हम' अपनी मौलिक देन नहीं हैं । हमारा जन्म किसी और की इच्छा से हुआ है । इसे आप ईश्वर की इच्छा, कुदरत या हमारे माता-पिता के संयोग का फल कह सकते हैं । मगर, एक बात तो तय है कि हमें यह जीवन पुरस्कार के रूप में मिला है । इस पुरस्कार को परम आनन्द के साथ स्वीकार कीजिए । आपको जीवन का पुरस्कार भले ही किसी ने दिया हो, मगर आपको यह पुरस्कार मिला है, यह तो अटूट सत्य है । इसलिए जीवन एक महोत्सव होना चाहिए । ग्राप मन्दिरों में जाकर उत्सव करवाते हैं, महाजाप करवाते हैं । लेकिन इस जीवन से महान उत्सव दूसरा कोई नहीं है । आदमी बाहर उत्सव इसलिए करवाता है, क्योंकि उसने अपने जीवन को नर्क बना लिया है । मगर आप इसे ही अन्तिम सत्य मत मान लीजिएगा । जीवन एक उत्सव हो सकता है । उसे उत्सव बनाया जा सकता है । जीवन स्वर्ग का पर्याय हो सकता है । जीवन आपको मिला परमपिता का प्रसाद है । आप मन्दिर जाते हैं, प्रसाद लेते हैं । वैसे ही जीवन भी महाप्रसाद है । इस महाप्रसाद को अहोभाग के साथ स्वीकार करें। इससे महान प्रसाद दुनियां में जितनी चीजें हैं, उनका हर लेकिन जीवन ही एक मात्र ऐसा है दूसरा कोई हो नहीं सकता । रूप में कुछ-न-कुछ मूल्य है, जिसका मूल्य केवल 'जीवित' होने से है । आप किसी धर्म - स्थान पर जाते हैं । है जब तक लोग वहां जाते रहें । लोगों ने वह तभी तक धर्म - स्थान जाना बन्द कर दिया तो ( ३३ ) For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस स्थान का क्या मूल्य रह जाएगा। एक मन्दिर का महत्व तभी तक है, जब तक वहां पुजारी है, श्रद्धालु आते हैं। जब कोई नहीं जाएगा तो वह खण्डहर मात्र रह जाएगा। ___ तुम जीवित हो। तुम्हारे जीवित होने से ही सभी चीजों का महत्व है। तुम मर गए तो तुम्हारे लिए तो सब कुछ अर्थहीन हो जाएगा। तुम खुद मिट्टी हो जाओगे मिट्टी में मिल जानोगे । तुम दौलत कमाते हो, पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करते हो, वह सब इस जीवन के कारण ही है। माल रखा है और मालिक चला गया तो माल की क्या कीमत ? रिश्तेदार, परिवार, धन-सभी का अर्थ जीवन के कारण ही है। एक बात हमेशा याद रखें-किसी भी चीज का मूल्य तभी तक है, जब तक जीवन है । जीवन तभी तक है जब तक हम जीते हैं। जब तक हम जीते हैं तब तक हमें जीवन को उत्सव बनाकर, स्वर्ग बनाकर जीना होगा। जिन्दगी हकीकत है, इसे आनन्द बनाकर जियो । मरोगे तब मरोगे, मृत्यु पर तुम्हारा अधिकार नहीं है लेकिन जब तक जी रहे हो तब तक उत्सव मनाकर जियो । मृत्यु पर हमारा अधिकार नहीं है। जन्म हाथ में नहीं है । फिर हम स्वयं के कितने हैं ? इस एक बिन्दु पर सोचें, तभी जीवन का एक मूल्य हमारी समझ में आयेगा। उस मूल्य को हम अपने में आत्मसात् कर पायेंगे। आज का जमाना विज्ञान का जमाना है। सुख-सुविधाओं का जमाना है। आज हमारे पास बेशुमार सुख-सुविधाएँ हैं । इतनी सुखसुविधाएँ पहले किसी को उपलब्ध नहीं थी। संसार सिकुड़ कर छोटा हो गया है। दूरियां कम हो गई हैं। विज्ञान ने आदमी को सुखसुविधाएँ तो बहुत जुटा दी हैं, लेकिन आदमी भीतर से कितना टूट ( ३४ ) For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है, यह कोई वैज्ञानिक नहीं समझ पाया है। वायुयान बनाकर विज्ञान ने संसार की दूरियां तो कम कर दी मगर इन्सान-इन्सान के बीच की दूरी वह नहीं मिटा माया । हमारे लिए अमरीका दूर नहीं है लेकिन हमारे पड़ौसी का घर दूर हो गया है । अमरीका में क्या हो रहा है, यह तो हम बता देंगे लेकिन हमारे घर में क्या हो रहा है, यह बताना हमारे लिए मुश्किल हो गया है। जमीनों की दूरियां घट गई हैं लेकिन दिलों की दूरियां विस्तार पा चुकी हैं। गांव-गांव में स्कूलें खुल रही हैं । आदमी ने किताबों में पढ़ा कि सुबह उठकर मां-बाप को प्रणाम करना चाहिए। हमने पढ़ा है कि झूठ न बोलें, पाप न करें, लेकिन क्या हम इस पाठ को जीवन में उतार पाये हैं ? हमने एम० ए० कर लिया है लेकिन अभी तक तो हम पहला पाठ भी अमल में नहीं ला पाये हैं । एम० ए० की सार्थकता एम. ए. एन. होने से है। आपने डिग्रियां तो खूब प्राप्त कर लीं, लेकिन केवल डिग्रियां सीने पर लगाकर कोई तीर नहीं मार लिया। विडम्बना तो यह है कि जितने अधिक शिक्षालय खुलते जा रहे हैं, मनुष्य और अधिक अज्ञानी होता चला जा रहा है । एक अनपढ़ आदमी गलती करता है, बात समझ में आती है। लेकिन अनेक डिग्रियाँ प्राप्त आदमी भी गलतियां करता चला जाए तो सोचना पड़ता है । आदमी जानता है कि तम्बाकू खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । गुटखा खाने से कई गम्भीर बीमारियां घेर सकती हैं, लेकिन जानते-बूझते भी हम वही काम करते चले जाते हैं जिनसे हमारा भला नहीं होता। वो तो मिथ्यात्वी है ही, जिसे ज्ञान नहीं है, लेकिन जिसे ज्ञान है मगर फिर भी वह विपरीत आचरण करता है, तो यह इससे बड़ा मिथ्यात्वी नहीं हो सकता । For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं : वनवास के दौरान पांडव कुती के साथ जंगल में भटक रहे हैं । एक जगह माँ को प्यास लगती है। एक भाई पानी की तलाश में जाता है । उसे एक तालाब दिखाई देता है । वह जैसे ही पानी पीने झुकता है, एक आवाज आती है-'पहले मेरे सवालों का जवाब दो, फिर पानी पीना, अन्यथा जीवित न बचोगे ।' वह पाण्डव इस चेतावनी को दरकिनार कर पानी पी लेता है। दूसरा, तीसरा, यहां तक कि चौथा भाई भी वहां पहुंचता है लेकिन वह भी वहां मरे पड़े अपने भाइयों की हालत देखकर नहीं चेतता, फलतः वे भी वहां गिर पड़ते हैं । अन्त में धर्मराज युधिष्ठिर जाते हैं और सभी प्रश्नों का जवाब देते हैं। ___यक्ष पूछता है -अज्ञान क्या है ? युधिष्ठिर ने जवाब दिया -- जानते-बूझते भी जो कुएं में गिरे, ठोकर खाए, इसी का नाम अज्ञान है । इसका सटीक उदाहरण मेरे भाई हैं जो एक को मरा हुआ देखकर भी नहीं संभल सके । ठोकर खाकर भी जो न संभले, वही अज्ञानी है । अज्ञान दशा में ही पाप नहीं होता। पाप तभी होता है जब उसे परिस्थितियों का ज्ञान हो, मगर वह फिर भी न संभले और गलती कर जाए। इसलिए मैं आग्रहपूर्ण स्वर में कहता हूँ कि आप शिक्षालयों में जाकर जो शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उसे अपने जीवन में जीने का भी यत्न करिए। आजकल छात्र कक्षा में छुरा लेकर परीक्षा देने बैठता है । ऐसे में गुरु भी पहले जैसा नहीं रहा। जब छात्र और गुरु दोनों ही पहले जैसे छात्र व गुरु नहीं रहे तो ज्ञान भी पहले जैसा कैसे रह पाएगा? मनुष्य रोजाना प्रतिक्रमण करेगा। पाप की आलोचना करेगा मगर उस ओर से अपने कदम नहीं हटायेगा। पाप और प्रतिक्रमण ( ३६ ) For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों साथ चल रहे हैं। आप पाप से नहीं हट पाते तो सामायिकप्रतिक्रमण की सार्थकताएं कैसे प्रात्मासात् हो पाएंगी। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। पाप करो तो पाप ही, और पुण्य करना है तो इन्तजार न करो, पुण्य कर डालो । आप धर्म करते हैं, अच्छी बात है, लेकिन कभी सोचा है ? धर्म तो करते हो एक घण्टा और क्रोध-कषाय करते हो २३ घण्टे । सामायिक का, प्रतिक्रमण का अपना विशिष्ट मूल्य है, लेकिन वह तभी मूल्यवान होगा जब अधर्म का पलड़ा हलका हो जाए और धर्म का पलड़ा भारी । धर्म का मूल्य अधर्म से होना चाहिए। हम जीवन के हर कदम पर छल करते हैं, धर्म-सभा में जाकर धार्मिक हो जाते हैं । बाहर आए, तो बिल्ली वैसी ही चूहों पर झपट रही है। हमारा धार्मिक होना, होना नहीं है, कलाना भर है । हम धर्म नहीं, धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं। धर्म के बरगद की डालियां बहुतेरों के हाथ में हैं, पर किसी को यह नहीं पता कि उस बरगद की जड़ें कहाँ हैं । सब ऊपर-ऊपर हो रहा है, राख पर लीपा-पोती की जा रही है । इसलिए मैं कहता हूँ जीवन में हर किसी को सत्य का पूरा अनुभव नहीं हो पाता, सत्य का पूरा साक्षात्कार नहीं हो पाता। मनुष्य ने जीवन के दो रूप बना रखे हैं । हम कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं । मुख्य चेहरे पर मुखौटा लगा लेते हैं और भीतर, भीतर-ही-भीतर विस्फोट की, एक-दूसरे को पीछे पछाड़ने की तैयारी चलती रहती है । उड़ाते हैं शान्ति के कबूतर और बनाते हैं बम । बात करते हैं अहिंसा की और उद्घाटन करते हैं कसाईखाने का । जीवन के साथ यह साफ तौर पर दोहरापन है। एक लड़का आम के बगीचे में गया। उसने देखा वहां कोई न था । वह पेड़ पर चढ़ गया और आम तोड़कर अपने झोले में भरने लगा । एकाएक वहाँ माली आ गया। उसने उसे आवाज लगाई। ( ३७ ) For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लड़का नीचे आया । माली ने पूछा ग्राम क्यों तोड़ रहे थे ? लड़के ने मैं तो यहां से गुजर रहा था, देखा कि मैं तो उन टूटे हुए आमों को वापस कहा ग्राम तोड़ कौन रहा था । कुछ आम जमीन पर पड़े हैं। चिपका रहा था । हम भी ऐसा ही कर रहे हैं । चोरी करते पकड़े जाते हैं तो तुरन्त गिरगिट की तरह रंग बदलने लगते हैं । हमारा धर्म तो अधर्म को ढकने का बाना भर हो रहा है । तुम्हारा पुण्य या तो कृत पापों का प्रायश्चित है या फिर पाप को छिपाने- दबाने का उपक्रम भर है । भीतर अपवित्रता हो तो बाहर की पवित्रता उसे नहीं छिपा सकेगी । कोढ़ को आप कपड़ों से भले ही ढंक लें, मगर मवाद बाहर आ जाएगा । कभी बैठकर विचार किया कि जीवन हमारा अपना कितना है । दूसरों की आंखों में धूल झोंकी जा सकती है लेकिन अपनी आँखों में धुल कैसे झोंक पात्रोगे। तुम समझते हो दुनिया को वेफकूफ बना रहे हो ! गलत सोचते हो । दुनियां तो तुम्हें बेवकूफ बना रही है । इसलिए कहता हूं जीवन में दोहरापन न आने दो। कहीं ऐसा न हो कि बुद्ध बनाने के चक्कर में तुम्हीं बुद्धू बना दिये जाओ । जीवन को दर्पण की तरह रखा, तो पाओगे कि जीवन में कुछ किया । परमात्मा हर किसी को उसकी जरूरत का देता है । उसके पास भीख मांगने मत जाओ । उसके पास तो इस बात की कृतज्ञता प्रकट करने जाओ कि हे ईश्वर ! तुमने मुझे जो कुछ भी दिया, वह मेरी क्षमताओं, आकांक्षाओं से भी अधिक है, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ । वो कृतज्ञता जीवन में और बदलाव लाएगी । मनुष्य की चेतना में रूपान्तरण होना चाहिये । जीवन का अर्थ रूपान्तरण में है । जीवन पहेली है, सुख-दुःख की सहेली है । ( ३८ ) For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर जीवन के कदम सार्थक में बढ़ जायें, दृष्टि ऊर्ध्वमुखी हो जाये, तो तुम जीवन में सत्य को तो आत्मसात् करोगे ही, आनन्द के आकाश से भी भर उठोगे। अपने अांचल को फैलायो, सौगातें खुद-ब-खुद अांचल भरेंगी। मंजिलें भले ही दूर हों, रास्ते जीवन के भले ही मुश्किल हों, कांटों से गुजरकर भी तुम फूलों तक पहुँच सकते हो। तारों भरी रात न भी मिले, तो परवाह नहीं, तुम स्वयं दीप बनो, दिल का दीप जलायो । 'अप्प दीवो भव' । खुद को रोशन करो। अन्धकार भले ही कितना भी क्यों न हो, जहां भी, जब किरण प्रगट होगी, अन्धकार को चीर डालेगी। अन्धकार पर हावी हो जाएगी। क्रांति हो प्रकाश की, विकास की। ( ३६ ) For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलें, चांद से सूरज तक अाज गुरु पूर्णिमा है । और चातुर्मास वर्षावास का स्थापना दिवस भी है । आज का दिन उन सभी लोगों के लिए मंगलकारी और शुभ है जिनके मन में धर्म और अध्यात्म के प्रति प्रेम और श्रद्धा का भाव है । वे सभी लोग बड़े भाग्यवान हैं जिनकी अन्तश्चेतना में धर्म, अध्यात्म और जीवन-मूल्यों के प्रति निष्ठा और ललक है । धर्म को उपलब्ध हो जाना, अध्यात्म को आत्मसात कर लेना या स्वयं में परमपिता परमात्मा की ज्योति को ज्योतिर्मय कर लेना जीवन की महान उपलब्धि कही जा सकती है। इसके विपरीत जिनके हृदय में धर्म के लिए रुचि है, अध्यात्म के लिए ललक है और परमात्मा के प्रति प्रेम भरी प्रार्थना है, वे भी कम धन्य नहीं हैं। ( ४० ) For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिन्हें धर्म से कोई मतलब नहीं होता, ऐसे लोगों से आप बेहतर हैं जिनके पास परमात्मा के लिए प्रार्थना है, धर्म के प्रति प्यास है । किसी भी मनुष्य के लिए धर्म और अध्यात्म उतना ही गहरा और जीवन्त होता है, जितनी इन चीजों के लिए उसके भीतर प्यास होती है । आत्मा की प्यास होती है । हमारे जीवन के लिए पानी के स्रोत बहुत महत्वपूर्ण हैं, अमूल्य हैं । लेकिन उसका मूल्य तभी है जब हमें प्यास हो । प्यास जितनी प्रखर होगी पानी का मूल्य उतना ही अधिक होगा। कोई आदमी तृप्त है और आप उसके द्वार तक पानी पहुंचा देते हैं, तो उसके लिए उस पानी की कीमत विशेष नहीं है। दूसरी ओर कोई आदमी प्यास से तड़फ रहा है और किसी ने उसके सूखे कण्ठ तक पानी की चन्द बूदें ही पहुँचा दी, तो उसके लिए तो वह पानी अमृत जैसा हो जाएगा । प्यासे के लिए पानी ही अमृत बन जाया करता है। मरुस्थल के लिए सावन ही मरूद्यान का कारण बन जाता है। इसलिए पानी कितना मूल्यवान है, इसका निर्धारण आदमी की प्यास ही कर सकती है। ___चातुर्मास के दौरान आप मुझसे प्रवचन सुनकर अपने आपको धन्य करना चाहेंगे, लेकिन कोई भी आपको बहुत ज्यादा नहीं दे पाएगा, जब तक कि स्वयं हमारे भीतर इसके लिए प्यास नहीं होगी। हम उतना ही दे पाएंगे जितनी आपकी प्यास होगी। मेरा उद्देश्य न तो ज्ञान देना है और न ही उपदेश । मेरी मंशा है कि आपके भीतर एक प्यास जगे। मैं जानता हूँ प्यास होगी, तो पानी की तलाश तो आप खुद कर लेंगे। प्रायः लोगों का दुर्भाग्य यही रहता है कि उन्हें पानी पिलाने वाले तो सैकड़ों लोग मिल जाते हैं, लेकिन असली प्यास के अभाव में वो पानी व्यर्थ ही चला जाता है । ( ४१ ) For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए मेरे पास पहले प्यास जगाने का प्रयास है, ताकि जब आपको पानी मिल जाए तो उसका मोल पहचान सको। धर्म-सभा में आने वाले लोग वास्तव में भाग्यशाली हैं, जिनके मन में प्यास जगाने की उत्कंठा है। जहां प्यास है, वहां पानी की खोज के रास्ते भी खोज लिए जाते हैं। इसलिए गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर मैं तो बस आपके मन में प्यास जगाने का प्रयास करूंगा। इसलिए गुरु-पूणिमा के अवसर पर मैं उस प्यास की लौ जगाने का निमन्त्रण देता हूँ। पानी प्यास तक पहुंचने के लिए आतुर है । मैं उस हृदय तक जाने के लिए आतुर हूँ, जिसको मेरी जरूरत है, जिसमें मेरी प्रतीक्षा है । ऐसा नहीं है कि प्यासा ही केवल पानी को तलाशता हो, पानी भी तृषातुर कण्ठ तक जाने के लिए उतना ही उत्सुक है । प्यासा तो पानी को पाकर कृतार्थ होगा ही, पानी भी सही पात्र में जाकर, किसी की प्यास बुझाकर स्वयं को धन्य ही समझेगा। बदली पूरी भर चुकी है । उसे माटी की पुकार सुनाई दे रही है । बदली जी भर चाहती है कि वह माटी की प्यास बुझाए । माटी को परितृप्त करे। जिन्हें आत्मा की प्यास है, वे उषाकाल में ही पहुंच गये। सब अपनी ओर से अचित-समर्पित हो रहे थे। उनकी अर्चना का मैं सम्मान करता हूं, उनके भावों का आदर करता हूँ। प्रभातकाल में, आज का ध्यान उनके मूलाधार को जाग्रत करने वाला हा । वे और ऊपर चढ़े। प्रभु करे आप सब बहत शीघ्र ज्योतिर्मय हो उठे । पूर्णिमा का चांद उनको, सबको रोशनी से, पूर्णता से भर दे । गुरु चांद है, परमात्मा सूरज है। चांद सूरज का ही प्रतिबिम्ब है । 'गुरु दीवो, गुरु चन्द्रमा ।' गुरु दीप है, गुरु चांद है । गुरु-पूर्णिमा का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति एक प्रतिमा की तरह गुरु की पूजा कर ले । उसे माला पहना दे, श्रीफल और दक्षिणा ( ४२ ) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेंट कर दे । गुरु-पूर्णिमा का अर्थ यह है कि गुरु का चांद पूर्णिमा की तरह खिला हुआ है और व्यक्ति को अपने आपको उसी तरह पूर्ण चन्द्रमा बनना है। इसके लिए डूबना जरूरी है। प्रायो और डूबो । डूबो और सिर्फ डूबो। इतने गहरे....आखिरी सांस तक, शून्य तक । खुद को गुरु को समर्पित करो ताकि गुरु अपनी ज्योति से आपके अन्तर्मन को ज्योतिर्मय कर सके। आज पूणिमा है और इससे पहले अमावस्या थी। पूर्णिमा और अमावस्या के बीच में पन्द्रह दिन का फासला होता है। लेकिन मैं जिस पूर्णिमा और अमावस्या की बात कर रहा हूँ, उसके मध्य एकदो कदम का ही फासला है। अमावस्या का अर्थ है अहंकार का अन्धकार । और इस अहंकार को छोड़ दो तो पूर्णिमा आपका इन्तजार करती मिलेगी । जरूरत सिर्फ समर्पण की है । शुक्ल की ओर, समर्पण की ओर दो कदम बढ़ाने की है। इधर अमावस्या, उधर पूर्णिमा । मात्र एक कदम का फासला।। जब तक आदमी अहंकार का दामन नहीं छोड़ेगा, अंधेरे में भटकता रहेगा और जहां इससे अलग हुआ, खुद को समर्पित किया, उसके जीवन में पूर्णिमा प्रवेश कर जायेगी। थोड़ी ही सही, पर प्रवेश कर जाएगी। दूज ही सही, चांद का कुछ अनुपात तो हाथ लग ही जाएगा। जीवन के अध्यात्म में, क्षितिज में अमावस और पूनम में फासले नहीं हैं, आपको एक कदम बढ़ाना है । अब महत्वपूर्ण बात यह है कि आपका कदम किस ओर बढ़ता है। __ मनुष्य के पांच फीट लम्बे शरीर में पूर्णिमा और अमावस्या दोनों समाई हुई है । बाहर तो पूर्णिमा और अमावस्या इसलिए बारबार आती है ताकि मनुष्य अपने भीतर की पूर्णिमा और अमावस्या को समझ सके। ( ४३ ) For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु ने कहा है कि व्यक्ति को ऐसे लोगों का सत्संग करना चाहिए जो अपने दीपक को जलाकर भीतर से ज्योतिर्मय कर चुके हैं और अब अपने दीप से दूसरों का दीप जलाने में जुटे हैं । व्यक्ति जितनी देर ज्योति के सत्संग में बैठेगा, उसका अन्तर्मन उतना ही ज्योतिर्मय हो जाएगा । जिसकी प्यास मिट चुकी है, जिन्होंने अमृत पान कर लिया है, उनके सानिध्य में बैठो, उनके सान्निध्य में जियो, तुम स्वतः ज्योतिर्मय हो जाओगे । आप गुरु के पास जाइये, वे बोलें तब भी ठीक और न बोलें तब भी ठीक | उनकी चुप्पी से कोई गलत अर्थ मत लगा लेना । गुरु कुछ न कहकर भी आपके जीवन को आलोकित कर सकता है । हो सकता है कि गुरु ने जो जाना, उसे प्रापको न बता सके, लेकिन उसमें इतनी क्षमता है कि भीतर-ही-भीतर अपना ज्ञान आप में स्थानान्तरित कर देगा । | गुरु कुछ नहीं कहकर भी बहुत कुछ कह देगा । कुछ नहीं बता - कर भी बहुत कुछ बता देगा आपको पता ही नहीं चलेगा और जीवन में रोशनी आ आएगी । गुरु का तो काम ही यही है कि वह चुपके से आपके भीतर को आलोकित कर दे । प्रापके भीतर ज्ञान की ललक जगा दे । गुरु का अर्थ केवल प्रवचन देना या पीला वस्त्र पहन लेना ही नहीं है । ऐसा सोचना ही अज्ञान है । एक व्यक्ति साधु बन गया और वह प्रवचन कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह गुरु हो गया । गुरु तो अचेतन से चैतन्य की अनन्त यात्रा है । यह तो खुद पहुँचकर औरों को पहुंचाने का उपक्रम है । सिद्ध तो बहुत हो सकते हैं, लेकिन सद्गुरु विरले लोगों के ही भाग्य में और बस में होता है । नमो सिद्धाणम् की सम्भावना तो हर युग में रहेगी, लेकिन नमो अरिहंताणम् की सम्भावना तो कभी-कभी ही होगी । ( ४४ ) For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध वह है जिसने अपनी ज्योति को जगाया और वह ज्योति अनंत ज्योति में समा गई लेकिन सद्गुरु वह है जिसने पहले अपने भीतर ज्योति जलाई और बाद में दूसरों की ज्योति जलाने में जुट गया । सिद्ध तो पाकर चले जाते हैं, लेकिन गुरु पाकर बांटने में लग जाता है | वास्तविक प्रभावना भी यही है कि जब व्यक्ति को कुछ मिले और वह उसे बांटने में जुट जाए । कार्ल गुस्ताव जुंग ने एक सिद्धान्त दिया 'सिन क्रोनिसिटी' | उसकी मूल भावना यही है कि जिस व्यक्ति के भीतर की वीणा झंकृत हो गई, तुम उसके पास जाकर बैठो। तुम देखोगे कि तुम्हारी अंगुलियां अपने आप चलने लगेगी। किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तुम गाने लगोगे, झूमने लगोगे, तुम्हारे पांव थिरकने लगेंगे, प्रानन्द घटित होने लगेगा | सद्गुरु की असली पहचान यही है कि जिसके पास जाने से तुम्हारे भीतर कुछ घटित होता सा लगे । बिना कहे तुममें कथ्य प्रगट हो जाये । बिना बताये सत्य साकार हो जाये । मुनि या साधु हो जाना सद्गुरु होना नहीं है । प्रवचन तो एक पण्डित भी दे देगा, लेकिन सद्गुरु कोई पण्डित नहीं है । शास्त्रार्थ नहीं है । सद्गुरु वह है जो अपने आपको जान गया । अपने आप में जी रहा है । अगर कहने वाला स्वयं ही कही गई बात के प्रति प्राश्वस्त नहीं है तो उस बात को कहने का अर्थ ही क्या है ? प्रवचन करने वाला 'ज्ञाता' नहीं है, तो वह प्रवचन अर्थहीन है । ऐसा प्रवचनकार तो एक माध्यम है जो किताब का पन्ना पढ़कर आपको सुना रहा है, वह खुद किताब बने तभी उसकी सार्थकता है । किताबों में लिखे शब्द तब तक 'शब्द' ही रहेंगे, जब तक व्यक्ति उन्हें अपने आचरण में नहीं उतारेगा । शब्दों को प्राचरण में ( ४५ ) For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतारते ही वह शास्त्र बन जाएगा । ऐसा नहीं है कि महावीर ने कुछ यूं ही कह दिया और वह बात शास्त्र बन गई। कहने से पहले महावीर ने उसे अपने आचरण में उतारा। जीवन में परखा और फिर दिया, लोगों में लुटाया । तुम भी ऐसा करोगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि तुम्हारी बात भी शास्त्र बन जाए। सब केवल महावीर की वाणी ही आशीर्वचन नहीं होगी । यह तो निश्चित है कि महावीर परमात्मा है, ऋषभदेव परमात्मा है लेकिन जिस दिन हम परमात्मा हो जायेंगे वो दिन सुनहरा होगा । हमारे लिए तो वही श्रेष्ठतम है, जो हममें उजागर हो सकता है । व्यक्ति परमात्मा हो सकता है । प्रयास शुरू करने की देर है । महावीर ने यह कभी नहीं कहा कि तुम महावीर के भक्त बनो । तो कहते हैं – तुम स्वयं महावीर बनो । केवल भक्त होने से ही आदमी महावीर नहीं बन जाएगा । 'महावीर' होने से ही व्यक्ति महावीर बन सकेगा । वह आपने जैन कुल में जन्म लिया है तो इसे सोचकर गौरवान्वित होना चाहिए कि हम उनके वंशज हैं जो महावीर थे । हम तीर्थंकरों के वंशज हैं । छाती ठोककर दमखम के साथ यह बात कहनी चाहिए । हम जैन कुल में केवल जैन कहलाने के लिए पैदा नहीं हुए हैं । हम जन्म लिया है जिन होने के लिए। जैनी होना तो बहुत आसान है, मुश्किल काम तो जिन होना है । हम परमात्मा की पूजा करते हैं, लेकिन क्या हमारा जन्म मात्र पूजा करने के लिए हुआ है ? वास्तव में हमारा जन्म परमात्मा बनने के लिए हुआ है । केवल पूजा करते रह जाओगे तो वह नहीं बन सकोगे, जो वास्तव में बनना है । जैन ही रह जाओगे । जीवन भर शिष्य बने रहोगे, गुरु कभी नहीं बन सकोगे । ( ४६ ) For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा पहला चरण है । समर्पण से शुरूआत करोगे तभी उपलब्धियां तुम्हारे कदम चूमेगी । अन्तिम उपलब्धि तब होगी जब तुम्हारी पूजा ही समर्पण बन जाएगी । तब पूजा तुमसे नहीं होगी, वरन् तुम ही पूजा बन जाओगे । तुम, तब तुम न रहोगे। तुम पूजा के पर्याय होगे । मेरे देखे, सद्गुरु का काम यही है कि वह व्यक्ति के भीतर उस ज्योति को जगा दे, जो खुद उसके भीतर जगी हुई है । असली गुरु वही है जो खुद में जगी ज्योति औरों में भी प्रकट कर दे । गुरु यानी जो अन्धकार दूर करे । सच्चा गुरु कभी नहीं सोचेगा कि शिष्यों की संख्या बढ़ाऊँ, भीड़ एकत्र करू । शिष्य की तमन्ना रखने वाले और शिष्य को अपने जैसा बना लेने वाले में काफी फर्क है । अगर महावीर को भी केवल शिष्य ही बनाने होते तो और उन्हें शिष्य ही बनाकर रखना होता तो वे कभी नहीं कहते - गौतम ! परमात्मा का राग भी एक राग ही है, तुम्हें तो इस राग से भी पार चलना है । इसलिए गुरु पूर्णिमा पर मैं यह संकेत दे रहा हूं कि अहंकार रूपी अन्धकार जब तक तुम्हारे सामने रहेगा, सद्गुरु तक पहुंचने के सारे द्वार बन्द मिलेंगे । जिस दिन अहंकार का अन्धकार हट गया, आदमी का चित्त विनम्र हो गया तो समझो गुरु तक जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया । वह अहोभाव का स्वामी हो गया । व्यक्ति की एक सबसे बड़ी दुविधा यह है कि उसे अपना अहंकार समाप्त करना आसान नहीं लगता । वह गुरु के पास जाता है, उसके चरणों में शीश भी झुका देता है लेकिन भीतर का अहंकार जिन्दा रखता है । आप गुरु के पास कुछ पाने जाते हैं । पाने की पहली शर्त ही विनम्र होना है। जब तक अहंकार नहीं जाएगा, आप कोरे ही रहेंगे, गुरु का रंग प्राप पर नहीं चढ़ पाएगा । ( ४७ ) For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु के पास जाने से पहले आपको प्रतिज्ञा करनी होगी कि जैसा गुरु है, हमें भी वैसा ही बनना है। लेकिन हमारी परेशानी यह है कि हम जैसे हैं, वैसे भी बने रहना चाहते हैं और गुरु जैसा भी बनने की तमन्ना रखते हैं। . कई बार गुरु परीक्षा लेता है । वह शिष्य को कठोर बात कह देता है । अब बहुत से लोग तो ऐसे भी मिल जायेंगे जो कठोर बात सुनकर गुरु का ही गला पकड़ लेते हैं। कई लोग धर्म सभा में आकर तो गुरु के आगे शीश झुका देंगे, प्रवचन भी सुन लेंगे लेकिन बाहर जाकर उसी गुरु की आलोचना करने से भी नहीं चूकेंगे। आप क्या समझते हैं कि हमने गुरु को दो रोटी खिला दी तो हमें उसकी आलोचना का अधिकार मिल गया ? गुरु तो हर हाल में गुरु ही रहेगा। गुरु ने यदि हमारे द्वारा अजित धन का उपयोग कर लिया तो, यह तो हमारा परम सौभाग्य है । अनेक बार लोग गुरु की कमियों का जिक्र करते मिल जाते हैं । जरा गहराई में जानो तो पता चलेगा कि गुरु आपकी परीक्षा ले रहा था । गुरु अपनी अन्तश्चेतना से कुछ देता है तो परीक्षा भी लेता है । वह कसौटी पर कसता है और सन्तुष्ट होता है, तभी कुछ अवदान देता है। मैंने देखा है कि लोग गुरु के पास जाते हैं और पुत्र की कामना करते हैं । जैसे गुरु न हुआ, पुत्रदान की मशीन हो गया । गुरु का काम कोई पुत्र देना नहीं है । गुरु का अर्थ है जो आपकी मूर्छा तोड़े, आपको नींद से जगाये । यह विचार करोगे तभी गुरु के पास जाना सार्थक होगा। संसार को लेकर गुरु के पास गये, तो वहां तुम संसार और सांसारिकता को ही ढूढ़ोगे और खुद भी वही पाना चाहोगे । गुरु के पास जाप्रो, गुरु जैसा होने की तमन्ना लेकर । ( ४८ ) For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चातुर्मास के दौरान लोग संतों के पास जाते हैं । प्रवचन सुनते हैं, सामायिक भी करते हैं और चार महीने गुजार देते हैं। कुछ लोग तो लोक दिखावे के लिए आ जाते हैं जबकि कुछ कुतूहल वश अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो वास्तव में अपनी मूर्छा तोड़ने में सफल हो पाते हैं। प्रादमी खुद ही अपनी मूर्छा नहीं तोड़ना चाहता, फिर रूपान्तरण कैसे घटित होगा। प्रवचन सुनते-सुनते वर्ष पर वर्ष बीत जाते हैं लेकिन हम वहीं रहते हैं जहाँ से शुरूपात करते हैं। कहते हैं : दशरथ के सिर में एक बाल सफेद दिखाई देने पर उन्होंने तुरन्त संन्यास लेने की घोषणा कर दी थी, लेकिन हमारे तो सारे बाल सफेद हो जाते हैं, पर हम उसी छल-प्रपंच से चिपके रहते हैं । बार-बार कहा जाता है कि क्रोध मत करो, लेकिन आदमी इस पर नियन्त्रण नहीं कर पात।। जहां कहीं उसके मन माफिक काम नहीं हुआ, उसे गुस्सा आ जाता है। कहां गया आपका प्रतिक्रमण और सामायिक ? रोज प्रतिक्रमण करते हो, पापों की आलोचना करते हो, लेकिन उनसे पीछा नहीं छुड़ाते । यहाँ सामायिक करोगे और घर जाकर सब्जी में तेज नमक देखकर तुम्हें गुस्सा आ जाएगा। रोज प्रतिक्रमण करके पापों का प्रायश्चित करते हो, पर हर नये रोज उन्हीं गलतियों को दुहराते हो । धर्म स्थानों में की गई सामायिक या प्रतिक्रमण तो मात्र अभ्यास है, घर जाकर शांत रहे तभी उसकी वास्तविक सिद्धि होगी। सामायिक के दौरान मुहपत्ती रखते हो, घर जाते ही भूल जाते हो। एक घण्टे तो सामायिक की लेकिन शेष तेईस घण्टे उससे विपरीत काम किया, बोलो ! कहां से मिलेगी शाँति ? कहाँ रखा संतुलन ? ( ४६ ) For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन की शुरूआत करने की देर है, फिर देखो कैसे जीवन में संन्यास घटित होता है । एक प्रयोग करके देखो । दिन भर के काम से निवृत्त होकर जब सोने लगो तो मात्र पाँच मिनट विचार करने बैठ जायो । दिन भर की अच्छी-बुरी बातों को याद करो। जो बुरा किया उसे दुबारा न करने का प्रण करो और जो अच्छा किया उसे फिर करो । देखना, कितना अन्तर आ जाता है। आदमी केवल सूत्र बोलता है । तोता रटंत पर जीवन गुजार देता है । इससे रूपान्तरण नहीं होगा। आप भले ही दिन भर प्रतिक्रमण न करें लेकिन पूरे दिन की दिनचर्या को एक बार याद कर उस पर विचार कर लें, फिर देखिये, जो आपके जीवन में परिवर्तन आता है। केवल ऊपर की लीपा-पोती से काम नहीं चलेगा। जागरूकता जरूरी है । हर काम के प्रति सोच में सतर्कता चाहिये । एक सम्राट किसी सद्गुरु के पास पहुंचे और उनसे कहा - 'प्रभु ! मैं समाधि को आत्मसात करना चाहता हूं। आप मुझे कुछ सिखाएँ ।' सद्गुरु ने कहा- 'आ जाओ ! मैं तैयार हूं।' सम्राट ने पूछा --'कितना समय लग जाएगा ?' गुरु ने बताया-२०-२५ साल तो लग ही जाएँगे ।' 'ये तो बहुत ज्यादा है, कुछ कम नहीं हो सकता ?' गुरु ने संशोधन किया-१० साल में हो जाएगा।' 'यह भी ज्यादा है ।' सम्राट हिचकिचाया। '५ साल ।' 'यह भी बहुत है।' ( ५० ) For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तो भाई, तीन साल तो लगेंगे, इससे कम नहीं हो सकता ।' गुरु ने अन्तिम सीमा तय कर दी । 'मुझे मंजूर है ।' अन्ततः सम्राट राजी हो गया । और सम्राट गुरु की कुटिया में रहने लगा। गुरु ने उससे कहा कि मैं क्या सिखाता हूं, कैसे सिखाता हूं, इस पर कोई टिप्पणी नहीं करनी होगी। जो काम मैं दूंगा, वो चुपचाप करते चले जाना । सम्राट ने मंजूर कर लिया । गुरु ने सम्राट से कहा कि रोज सुबह-शाम मेरे लिए खाना बनायो । अब सम्राट लगा चूल्हा फूंकने । 'आये थे हरिभजन को, प्रोटन लगे कपास ।' एक दिन गुरु ने कहा कि आज से तुम खाना बनाने से पहले जंगल जाकर लकड़ियाँ लाओगे । तीन माह बीत गए । एक दिन गुरु ने पानी भरने की जिम्मेदारी भी सौंप दी। दो वर्ष बीत गए । सम्राट परेशान कि यह कैसा गुरु है जो समाधि नहीं सिखा रहा । रोटियाँ बनवाता है, पानी भरवाता है । फिर भी वह चुपचाप यह काम करता रहा । एक दिन गुरु सम्राट के कमरे में गया और एक लाठी का वार उसकी पीठ पर किया । वह असावधान था, इसलिए भौंचक्क रह गया । ये क्या गुरु है ? समाधि देना तो दूर रहा, लठ्ठ और मारता है । लेकिन तीन साल का वादा किया था इसलिए चुप रहा। करीब एक पखवाड़ा बीत गया । सोलहवें दिन जैसे ही गुरु ने लठ्ठ मारना चाहा, सम्राट ने हाथ से रोक दिया। गुरु हंसा और वापस चला गया। एक बार गुरु प्राधी रात को पाया और लठू मारा। अब सम्राट की रातों की नींद हराम । वह तो परेशान हो गया। अब रात्रि में नींद के दौरान भी वह सजग रहने लगा। इधर गुरु के कदमों की आहट सुनी, उधर उसकी आँख खुली। ( ५१ ) For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोचा - 'रोज पास ही बैठा है ।' सम्राट तब गुरु ने कहा - 'सम्राट ! अब तुम वास्तव में समाधि पाने के योग्य हुए हो । पहले ढाई वर्ष तुम्हारी भीतर की भाव-निद्रा तोड़ने लग गये । अगले दिन झाडू निकालते समय सम्राट ने मुझे लठ्ठ मारता था, आज मैं झाडू की मार दूं तो ।' गुरु हंस पड़ा । वह बोला- 'झाडू मार दे, सोच क्या रहा हैरान कि उसके मन की बात गुरु को कैसे पता चली। गुरु ने कहा कि खुद को कसौटी पर इतना कसलो कि दूसरों के विचार तक आत्मसात कर सको, तभी समाधि शुरू हो पायेगी । अपनी भाव- निद्रा तोड़ोगे तभी ग्रागे का सबक शुरू होगा । यह तो उदाहरण था । वास्तविकता भी यही है । इसलिए कहता हूं, मेरे पास आओ अपना पात्र सीधा रखकर लाना, क्योंकि प्रौंधे पड़े पात्र में मैं कुछ भी नहीं डाल सकूँगा । अपना अहंकार घर छोड़कर प्राना, तभी तुम्हारे जीवन में कुछ घटित होने की संभावना पैदा होगी । अगर अहंकार रहा, तो तुम वह न बन पाओगे, जिसकी अपेक्षा है । तुम जो हो, वह भी रहना चाहोगे और रूपान्तरण भी चाहोगे, तो ये दोनों एक साथ नहीं हो सकेंगे । तुम्हें सचमुच तुम जो हो, वह होना है, इसके लिए 'ईगो' को मिटाना होगा, बार-बार बदलते मन को विसर्जन करना होगा । अन्त में आप सबके भीतर विराजमान प्रिय प्रभु को मेरे प्रणाम हैं, स्वीकार करें । ( ५२ ) For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य की जीवेषरणा एक बहुत पुरानी कहानी है । एक समय राजा ययाति हुप्रा 1 ययाति के सौ पुत्र थे । जब वह सौ वर्ष का हो गया तो मृत्यु ने उसके द्वार पर दस्तक दी । मृत्यु ने कहा - 'सम्राट तुम्हारी उम्र पूरी हो चुकी मैं तुम्हें लेने आई हूं।' ययाति ने कहा - 'तुम तो बहुत जल्दी आ गई। अभी तो मैंने न तो संसार का सुख देखा है और न ही जीवन का आरामविश्राम पाया है । अभी तो मैंने केवल जीवन की योजना बनाई है । इसलिए हो सके तो तुम मुझे सौ वर्ष का जीवन और दे दो ।' ( ५३ ) For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु बोली – 'राजन् ! मैं आई हूं तो कुछ तो लेकर जाऊँगी। हाँ, मैं इतना अवश्य कर सकती हूं कि यदि तुम्हारे बदले तुम्हारा कोई पुत्र मेरे साथ चले तो तुम्हें छोड़ा जा सकता है ।' . ययाति ने अपने पुत्रों को बुलाया। उसने एक-एक सभी से यह बात कही । उसके ६६ पुत्र तो चुप रहे, लेकिन सबसे छोटे पुत्र ने मृत्यु के साथ जाने की सहमति दी। और इस तरह राजा ययाति को सौ वर्ष का जीवन दान में मिल गया । मृत्यु उसे लेकर चली गई। दिन पर दिन बीतने लगे। राजा भूल गया कि मृत्यु आई थी और वह अपने सबसे छोटे पुत्र का जीवन जी रहा है। फिर सौ वर्ष बीत गये । मृत्यु फिर ययाति के सामने पहुंची। तब तक ययाति के सौ बेटे उम्र पूरी कर मर चुके थे और नए जीवन के सौ बेटे और हो गए थे। ययाति ने कहा- 'मेरे मन का पात्र तो अब भी रीता है और तुम फिर चली आई ? मेरी अनेक इच्छाएँ अधूरी हैं। इसलिए तुम इस बार भी मेरे किसी पुत्र को ले जायो।' इस बार जो पुत्र मृत्यु के साथ जाने को तैयार हुआ उसने जाने से पहले अपने पिता से एक प्रश्न पूछा --'पिताजी ! आपने दो सौ वर्ष का जीवन जी लिया। इस अवधि में आपने क्या अजित किया ? आपकी उपलब्धि क्या रही ? ययाति ने जवाब दिया- 'कुछ भी तो नहीं अजित किया, उपलब्धि की तो बात ही दूसरी है।' यह सुनकर पुत्र बोला ---'चलो मृत्यु ! मैं तुम्हारे साथ चलता हूं। मेरे पिता दो सौ वर्ष के जीवन में भी कोई उपलब्धि प्राप्त न कर सके तो मैं सौ वर्ष में क्या तीर मार लूगा। आज से सौ साल पहले भी तो मैं ही तुम्हारे साथ चला था, तब मेरे मन में शिकवा था कि मैंने जीवन में कुछ नहीं किया, लेकिन अब कोई शिकवा नहीं है ।' ( ५४ ) For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि ययाति की उम्र एक हजार वर्ष की हुई । हर सौ वर्ष के बाद उसने अपने पुत्र का जीवन उधार लिया लेकिन एक बार भी उसे नहीं सूझी कि मैं मर जाऊँ । एक हजार वर्ष बाद मृत्यु ने जीवन बदलने की अनुमति नहीं दी तब उसे मरना पड़ा । यह कहानी एक प्रतीक है । मुझे तो नहीं लगता कि ययाति एक हजार वर्ष में भी कोई उपलब्धि प्राप्त कर पाया होगा । जो आदमी सौ साल में परितृप्त नहीं हो सका वो एक हजार साल में भी अतृप्त ही रहा होगा । ऐसा व्यक्ति तो लाख साल में भी परितृप्त नहीं हो सकता । जिस प्रकार राजा ययाति का पात्र इतने वर्ष जीने के बाद भी रीता ही रहा, वैसी ही कहानी कमोबेश हर आदमी की दिखाई देती है । मनुष्य की इच्छाएँ इतनी असीमित हैं कि इस संसार में भिखमंगे ही नहीं, सिकन्दर का पात्र भी खाली रहता है । ऐसा नहीं है कि जिसका पात्र खाली है, वही भीख माँग रहा है, दरअसल पात्र तो भरा है, लेकिन मन नहीं भरा है । यह पात्र ही ऐसा है । इसमें पेंदा नहीं है और बिन पेंदे के पात्र में भला कभी कुछ ठहर सकता है ? वह तो रीता ही रहता है । ऐसे व्यक्ति को सोने और चांदी की दो-चार तिजोरियां ही नहीं, दो-चार कैलाश पर्वत भी मिल जाए तो वो सोनाचांदी भी उसके लिए कम है । मनुष्य का मन कभी नहीं भरता । असीम अपरितृप्त रहता है । एक हजार रुपए कमाने वाला तीन हजार रुपए की इच्छा करता है । साइकिल पर चलने वाला स्कूटर की चाह रखता है, स्कूटर वाला कार की । यह संसार तो क्षितिज तक ही नजर आता है लेकिन एक क्षितिज के पास जाओ तो वहाँ से दूसरा क्षितिज नजर आने लगेगा | एक इच्छा पूरी हुई तो दूसरी पैदा हो जाती है । पहले इच्छा होती है कि शादी हो जाए, फिर बच्चे और उसके बाद उनकी शादी की तमन्ना, इसके बाद पोते-पोतियां देखना चाहता है आदमी । ( ५५ ) For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैंने ययाति की घटना इसलिए सुनाई ताकि यह साबित हो सके कि जब एक सम्राट की इच्छाएं भी पूरी नहीं हो सकती तो फिर आप जैसे सामान्य व्यक्ति की तो बात ही क्या है। हमारी इच्छाएं क्या कभी पूरी हो सकती हैं ? नहीं ! आदमी को इच्छाओं के प्रति सजग होना पड़ता है। इच्छाओं को पूरी करने से इच्छाएं समाप्त नहीं होती, उलटे और बढ़ जाती है। हम मन के प्रति सजग और जागरूक हैं तो मन में एक इच्छा हुई, हमने उसे तिरोहित कर दिया और विसर्जित करने के प्रयास भी किए लेकिन वो पूरी न हुई। हमने उस इच्छा को पूरा किया । तब हम सजग हुए कि जब इच्छा पूरी करने पर मन में तृप्ति नहीं हुई तो फिर कैसे तृप्ति होगी, लेकिन हमें इसका उत्तर आसानी से नहीं मिलता। जो व्यक्ति अपनी अन्तश्चेतना के प्रति, चित्त की वृत्तियों के प्रति और मन के संवेगों के प्रति जितना सजग और सचेतन रहता है; अपने आपके प्रति जितना जागरूक रहता है ; दृष्टा भाव में रहता है, उस व्यक्ति के मन में इच्छाओं का मायाजाल नहीं बन पाता । व्यक्ति के भीतर सजगता है, सम्यक् दर्शन है तो वह चाहे कुछ भी सेवन करे, उसके द्वारा तो कर्मों की निर्जरा ही होगी। एक आदमी बिना किसी सम्बोधि या बोध के क्रोध करता है तो वह क्रोध उसके लिए बन्धन का कारण बनेगा। वहीं एक दूसरा आदमी अपने ध्यान को साथ रखकर, विवेकशील होकर क्रोध करता है तो उसके कर्मों का विसर्जन हो जाएगा। वृत्तियों की निर्जरा हो जाएगी। सोये-सोये मूच्छित अवस्था में आप दान भी करोगे तो दान आपके लिए पुण्य का कारण नहीं बनेगा और जाग्रत अवस्था में मन For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में, भावों में ही करुणा ले आओ तो उस करुणा से अपने आप अनन्त पुण्यों का अर्जन हो जाएगा। प्रश्न जागरूकता का है, सजगता का है। जागरूकता के साथ यदि आपने सिगरेट भी पी ली तो निर्जरा होगी और मूच्छित अवस्था में यदि दूध भी पी लिया तो वो शराब का असर कर जाएगा। स्वयं में जागरूक होकर करोड़ों का परिग्रह कर लिया तो भी आप अपरिग्रही रह जाएंगे और मूर्छा में दो-चार कपड़े भी रख लिये तो परिग्रही कहलानोगे। धर्म का सम्बन्ध, कर्म और ध्यान का सम्बन्ध कोई सामान रखने या उसे छोड़ने से नहीं है, वरन् उसके प्रति जागरूकता रखने से है। हम अपने प्रति जितना दृष्टा भाव रखेंगे, साक्षी भाव रखेंगे, जितने अधिक गवाह बनकर जियेंगे, हमारे भीतर का भार उतना ही हल्का हो जाएगा। आपके कंधे पर अचानक एक मक्खी बैठ गई । आप उसे उड़ाने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में धर्म भी होगा और अधर्म भी । मैं बड़े कृत्यों की बात ही नहीं करता। छोटे-छोटे कृत्यों से ध्यान का गुण सिखाता हूं। कंधे पर बैठी मक्खी. को आप झपट्टा मारकर उड़ाएंगे तो यह पुण्य नहीं होगा। आप ध्यान से मक्खी को उड़ाएं तो यह पाप नहीं होगा। ऐसे उड़ाने में यदि वह मर जाए तो भी आपको अधर्म नहीं होगा। यह ध्यान है, सम्बोधि है । देख कर उड़ाना हमारी जागरूकता है । कर्म का बंधन, कर्म की निर्जरा कृत्य पर उतनी आधारित नहीं होती जितनी कि हमारी भाव चेतना और सजगता पर निर्भर करती है। ययाति की कथा से एक सीख तो यह मिलती है कि ( ५७ ) For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां सब रीते पात्र हैं। कितना भी उपलब्ध कर लो, परितृप्ति नहीं होती। एक गरीब आदमी दूकान की ओर दौड़ रहा है। वह ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि गरीब है, उसके पास पैसे नहीं हैं। लेकिन एक अमीर आदमी अगर ऐसा कर रहा है तो यह सोचने की बात है। यही तो व्यक्ति का राग है, मूर्छा है। उसका अंधापन है। आंख न होने से तो व्यक्ति अंधा हो सकता है, लेकिन उन लोगों का क्या किया जाए जो आंख होते हुए भी अंधों की तरह चल रहे हैं। ___ अंधा आदमी तो अपने भीतर की प्रांखें खुली रखता है इसलिए ठोकर खाने से बच जाता है लेकिन प्रांखों वाले कदम-कदम पर ठोकर खा जाते हैं। न जाने क्या मजा आता है, बार-बार ठोकर खाने में । यह तो ठीक ऐसा है जैसे किसी व्यक्ति को शरीर में खुजली हो जाए और वह खुजाने लगे, लेकिन इतना ध्यान रखिएगा कि खुजाने से कभी खुजली नहीं जाती बल्कि और बढ़ जाती है। आदमी खुजाता है, धीरे-धीरे मवाद निकलने लगता है लेकिन उसका खुजाना नहीं रुकता। आदमी जिन्दगी को भी ऐसे ही चलाना चाहता है लेकिन जिन्दगी कोई 'खुजाना' नहीं है । आज खुजाया, कल फिर खुजानोगे । अन्त कहां होगा। कल क्रोध किया था, आज भी क्रोध कर रहे हो और कल फिर क्रोध करने की सोच कर बैठे हो । कल किसी ने तुम्हारी तारीफ की तो तुमने अपने भीतर अहंकार के फूल खिलाए, आज भी यही कर रहे हो और कल फिर वही करने को तैयार हो । आखिर कहीं तो रुको। जीवन में जागरूकता की शुरुआत कब करोगे ? हम रोज ठोकर खाते हैं और रोज उसे दुहराते हैं। अज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अनपढ़ है। अज्ञान का अर्थ यह है कि आदमी ने एक बार ठोकर खाई, लेकिन वह नहीं संभला । ( ५८ ) For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठोकर खाने के बाद फिर ठोकर खाना अज्ञानता की निशानी है । किताबें न पाएं, कोई बात नहीं, ज्ञान किताबों में नहीं है । वह तो हमें अनुभव से मिलता है । अगर आज हमें लगा कि मैंने जो क्रोध किया था, उसके दुष्परिणाम सामने आए हैं तो यह ज्ञान प्राप्ति की शुरुआत हो गई । हम जागरूक होने लगे तो यह तय है कि आने वाले कल को हम क्रोध नहीं कर पाएंगे । एक व्यक्ति साठ वर्ष की उम्र में तीसरा विवाह करने जा रहा था । उसने दो विवाह से भी कुछ नहीं सीखा, उसे तो भोग से तृप्ति हुई ही नहीं । हम क्रोध, अहंकार और सेक्स का जितना उपयोग करेंगे, हमारी ऊर्जा उतनी ही समाप्त होती चली जाएगी । जरा विचार करो, चौबीस घंटों में जो ऊर्जा प्राप प्राप्त करते हैं, उसे क्षण भर के क्रोध, अहंकार और सेक्स वृत्ति से गंवा देते हैं । इस तरह तो बनने वाली और घटने वाली ऊर्जा का अनुपात बहुत बढ़ जाएगा और एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हारे पास कुछ न रहेगा । तब पछताने की सिवा क्या करोगे । जीवन का मार्ग सबका एक है । जिस मार्ग से आज आप गुजर रहे हैं, उसी मार्ग से एक दिन राम गुजरे, उसी मार्ग से कृष्ण और महावीर गुजरे । जीवन के ताने बाने में कोई फर्क नहीं है । जन्म और मृत्यु • सबके जीवन में प्राती है । ऐसा नहीं है कि महावीर आकाश से उतरे थे और हम पाताल से आए हैं। सभी ने मां की कोख में ही पांव पसारे हैं । महावीर भी हमारे जैसे ही हैं- जब तक हम यह बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकेंगे, तब तक हमारे जीवन में परिवर्तन नहीं आ सकता । तब तक कहीं किसी उत्सव की संभावना नहीं होगी, ' ५६ ) For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थान नहीं होगा । मनुष्य सोचता है भगवान कृष्ण तो देवता थे, हम वैसे कैसे हो सकते हैं । हाथ में माला लेकर 'हरे कृष्ण' तो जप लेंगे लेकिन कृष्ण बनने का प्रयास नहीं करेंगे। हम 'महावीरायः नमः' तो कहेंगे, लेकिन उनके जैसा बनने की हमारी प्रवृत्ति नहीं होगी । हम भी महावीर बन सकते हैं । जरूरत है ग्रात्म शक्ति पहचानने की । महावीर भी मूलतः तो एक साधक ही थे । निर्लिप्त और ध्यान में जीने वाले साधक । अपनी वीतरागता के उत्सव में जीने वाले, जिन्होंने अपने जीवन को ज्योतिर्मय कर लिया । उन्होंने स्वयं को सूरज बनाया और उससे रोशन भी किया । महावीर जब चलते थे तो देवी-देवता स्वर्ण कमल नहीं बिछाते थे, अपितु जहां-जहां वे पांव रखते थे वहां-वहां कमल अपने आप उग आते थे । अगर देव आकर महावीर की सेवा करें तो यह महिमा महावीर की नहीं, उन देवताओं की है । अपने आप स्वर्ण कमल उग आना, अकाल समाप्त हो जाना, यह सब तो उनकी आमा से हुआ । इसलिए ऐसी महान आत्मा को हम वो सब न बनाएँ, जो वे थे ही नहीं । हम सब राम और महावीर हो सकते हैं, लेकिन केवल राम नाम जपने और पीली चदरिया प्रोढ़ने से यह नहीं होगा । हमने किसी पात्र में पानी भरकर उसे गर्म करने के लिए चूल्हे पर चढ़ा दिया है तो वह तब तक गर्म नहीं होगा जब तक कि उसके नीचे प्राग नहीं जलाई जाएगी । प्रार्थना करो या न करो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है । व्यक्ति को स्वयं प्रार्थना बनना होगा । केवल पूजा से ही कुछ नहीं होगा | चारित्र्य पद पाने के लिए पूजा काम नहीं आएगी । चारित्र्य - पद तो स्वयं में खोजना होगा । ऐसा होने पर हमारी पूजा स्वत: हो ( ६० ) For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाएगी । आप स्वयं महावीर बन जाते हो तो महावीर की पूजा तो हो गई समभो । एक बार महावीर से पूछा गया भगवन् ! आपके दो तरह के अनुयायी हैं । एक तो वो जो रोजाना धर्म सभा में आकर आपका प्रवचन सुनता है । इसके विपरीत एक वो भक्त है जो यहाँ नहीं प्राता लेकिन गरीबों की सेवा में जुटा रहता है । चारित्र्य की दृष्टि से ऊपर है । भंते ! इनमें आपका सच्चा अनुयायी कौन है ? *** महावीर मंद-मंद मुस्कुराए । फिर बोले 'सुनो ! गरीबों की सेवा करने में अपना समय और धन खर्च करने वाला मुझे अधिक प्रिय है । भले ही वो मेरे पास प्रवचन सुनने नहीं आता, लेकिन उसने तो मेरा प्रवचन अपने जीवन में क्रियान्वित किया है । जीवन में ऐसे भक्त मुझे प्रिय हैं । धर्म स्थान में आने, पूजा और सामायिक करने की सार्थकता तभी है जब, व्यक्ति स्वयं एक उत्सव हो जाए। हर समय प्रानन्दित रहे । इसके लिए हजार साल जीना जरूरी नहीं है । जीवन का एक पल भी आनन्द के साथ जी लो, तो समझो बेड़ा पार । मरने के बाद तो जो मिलेगा वो देखा जाएगा। अभी तो जीकर आनन्द उठाओ । जीवन के हर पल को बड़े प्रात्म-विश्वास से जियो । लोग धर्म करते हैं ताकि मरने के बाद गति सुधरे । मैं कहता हूँ, धर्म इसलिए करो ताकि 'यह' जीवन श्रानन्द से गुजर सके। मरने के बाद किसने देखा है । किताबों में पढ़ा होगा, लेकिन जीवन तो आज है | मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा, इसकी क्या गारण्टी है । मरने के बाद तो दुनियां आपको 'स्वर्गीय' यूं ही बना देगी | आपने कभी सुना है कि 'नारकीय श्री सभी 'स्वर्गीय श्री ही कहते ( ६१ ) For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरने के बाद तो स्वर्ग उन्हें ही मिलेगा जो आज के जीवन को स्वर्ग बनाकर जी रहा है । जिसका आज का दिन स्वर्ग, उसको मरने के बाद भी स्वर्ग मिलेगा । प्राज जो करोगे, कल वही मिलेगा । कल तो आज का भुगतान भर है । आज आपने क्रोध किया, कर्मों का बन्धन बाँध लिया । अगले जन्म में आपको क्रोध मिलेगा | वो चंडकोषीय वाली घटना तो पुरानी हो गई । आज तो हाथो-हाथ भुगतान मिलता है । आज क्रोध किया तो उसका दुष्परिणाम आज ही मिलेगा । कल किसने देखा । क्रोध किया, आँखें प्रेत-सी लाल हुईं खून जला, ऊर्जा व्यर्थ हुई, मन की शांति खण्डित हुई । क्रोध का यह परिणाम हुआ । मन की शान्ति भंग हुई यानी मन का स्वर्ग मिटा । ऐसा मत समझियेगा कि चढ़ावा बोल देने मात्र से पुण्य मिल जाएगा। आपके हर कदम पर पाप और पुण्य जुड़े हैं । जिस समय जो काम करना है, उसे कर लिया तो समझो पुण्य कमा लिया और न करने वाला काम किया तो पाप का भागी होना पड़ेगा । आप भूखे हैं और भोजन कर लेते हैं तो यह पुण्य होगा क्योंकि आपके भूखे पेट को आराम मिलेगा । काम करने के लिए शरीर में ऊर्जा आएगी। इसकी बजाय अपने भर पेट होने के बाद भी भोजन किया तो पेट खराब हो जाएगा । आपको अपच की शिकायत होगी । सही सन्तुलन जरूरी है । भूख लगी और भोजन किया, तो पुण्य और पुण्य का फल स्वास्थ्य होगा । बगैर भूख के भोजन किया, तो पाप, और पाप का फल अपच और रोग । जीवन का प्रत्येक कृत्य पाप और पुण्य से जुड़ा है । ऐसा मत सोचिये कि पाठ-पूजा और सामायिक कर लेने से पुण्य मिल जाएगा । ( ६२ ) For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतने तरह के धर्म हैं, सबकी कार्य- शैली अलग-अलग है । यहाँ तक कि जैन धर्म अकेले में ही कई तरह की शैलियां हैं । कोई दिगम्बर है कोई श्वेताम्बर । कोई खरतरगच्छीय है तो कोई कुछ और । लेकिन ध्येय सबका एक ही है, परमात्मा को पाना, परमात्मा स्वरूप हो जाना और फर्क हो सकते हैं लेकिन उनकी मूल बातें समान हैं । इसलिए जीवन के साथ हमारे प्रगाढ़ सम्बन्ध होने चाहिए । जीवन के हर पल पर हमारा विश्वास होना चाहिए । मृत्यु बाद तो जो मिलेगा, वो मिलेगा ही, जीवन तो आज है, जीवन को आनन्द और प्रमुदिततापूर्वक जीने से मत चूको । एक बार चूके तो समझो चूके । आज क्रोध करते हो तो नर्क है और प्रेम करते हो तो स्वर्ग है । मरने के बाद तो जाने स्वर्ग मिलेगा या नर्क । इसलिए आज के जीवन को स्वर्ग बनालो । तय करलो कि हर अच्छा काम पहले, बुरा बाद में । क्रोध करना है तो आज मत करो, प्रेम करलो । बुरा काम कल पर छोड़ दो। शुभ काम आज करो भले ही कैसी भी अशुभ घड़ी क्यों न हो । शुभ कार्य से वह घड़ी भी शुभ हो जाएगी । शुभ काम तो कभी भी हो जाने दो । क्रोध के लिए मुहूर्त ढूढो, शायद ऐसा मुहूर्त मिले ही नहीं और आप गलत काम करने से बच जाओ । , अच्छा काम करने के लिए मुहूर्त की जरूरत क्यों होनी चाहिए । मान लो आपको क्रोध आ रहा है तो उसे कल तक के लिए टाल दो, सम्भव है कल क्रोध की जरूरत ही न पड़े । क्रोध समाप्त हो जाए । इससे आप क्रोध पर विजय पाने की कला सीख जाएँगे । भले ही अगले क्षण मर जाएँ लेकिन जब तक जीवित हैं, आनन्द में समय गुजारिये । अपनी हथेली पर अमरता की मेंहदी नजर आने दीजिये । ( ६३ ) For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य बने स्वयं मन्दिर आजकल मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारों का तेजी से निर्माण हो रहा है । धर्म स्थलों का निर्माण मानव जाति के लिए शुभ संकेत है। परन्तु, जितनी तेजी से इन धर्म स्थलों का निर्माण हो रहा है, उतनी ही तीव्रता से मानवता का ह्रास होता जा रहा है । मन्दिरों की आबादी बढ़े, पर मानवता की देहरी पर मोहब्बत का चिराग बुझाकर नहीं। परमात्मा के मन्दिरों का निर्माण हो रहा है, लेकिन मनुष्य के मन्दिर निरन्तर ढहते चले जा रहे हैं। परमात्मा की प्रार्थना तो खूब हो रही है, मगर इन्सानियत की इबादत कहीं दिखाई नहीं देती। ( ६४ ) For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य के मन्दिर इसी तरह ढहते चले गए और परमात्मा के मन्दिर बनते चले गए तो एक दिन नतीजा यह होगा कि दुनिया में परमात्मा का मन्दिर एक भी नहीं होगा। हर मन्दिर एक शैतान का घर होगा । बगैर इन्सान के मन्दिरों की सुरक्षा कौन करेगा । तब मन्दिर में प्रार्थना कम विस्फोट ज्यादा होंगे । मन्दिर की चारदीवारी की ओट में आतंकवाद के कारतूस चलेंगे । , इस धरती पर मनुष्य 'मनुष्य' के रूप में नहीं रहा तो एक बात पक्की है, फिर परमात्मा भी परमात्मा के रूप में नहीं रहेगा । परमात्मा की सारी इज्जत मनुष्य के दम पर ही है । परमात्मा की सारी प्रार्थनाएँ इन्सान के कारण ही है । जिस दिन इन्सान जानवर बन जाएगा, उस दिन मन्दिरों में कौन जाएगा ? दुनिया में एक भी मन्दिर ऐसा नहीं है, जिसका निर्माण जानवर ने किया हो । जानवर के साथ परमात्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है । मन्दिर का सम्बन्ध सिर्फ इन्सान से है इसलिए वही मन्दिर बनाता है । मैं नहीं जानता कि जो इन्सान इन्सानियत से गिर गया है या गिर रहा है, उसके भीतर परमात्मा का कोई अंश विराजमान होगा । मनुष्य पूर्ण इकाई नहीं है । उसमें पशु भी है और प्रभु भी । मनुष्य बीच की कड़ी है । मनुष्य का पशु जगा रहेगा, तो पवित्र स्थान भी मदिरालय से होते रहेंगे और प्रभु जग जाए, तो अस्पताल भी उसके लिए गिरजाघर और मन्दिर होंगे। हजारों वर्षों के इतिहास की चर्चा न भी करें, इस सदी में दो महायुद्ध लड़े गये । दो महायुद्धों में दस करोड़ लोग देखते-ही-देखते साफ हो गये । आखिर ऐसा क्यों हुआ ? मनुष्य इतना नीचे क्यों गिरा ? क्या उसके भीतर का पशु कभी प्रभु हो पाएगा ? ( ६५ ) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्र मैन, जिसकी आज्ञा से हिरोशिमा और नागासाकी पर पहला अणुबम गिराया गया, जब उससे पूछा गया कि इतने विनाश को देखकर तुम्हें कुछ लगता है ? ट्र मैन ने कहा, आज मैं चैन की नींद सोया, इतनी प्यारी और गहरी नींद वर्षों में भी नहीं ली। क्योंकि हम जीत गये। मनुष्य का मन-मन्दिर इतना खण्डहर हो चुका है ! क्या भीतर का फानूस बिल्कुल ही बुझ गया है ? क्या थोड़ी सी भी रोशनी शेष नहीं है ? मानव जाति का एक हिस्सा 'प्रभु' होने के लिए प्रयत्नशील है, दूसरा हिस्सा ‘पशु' होने के स्तर से भी गिर गया है । पशु 'पशु' से नीचे नहीं गिर सकता, पर मनुष्य ‘पशु' से भी नीचे ! इतना विनाश ! मानव अगर आज भी न संभला, उसने अगर अपने भीतर के मन्दिर के लिए ध्यान न दिया, तो कहीं ऐसा न हो कि इक्कीसवीं सदी में हम कदम रखें, उससे पहले ही तीसरा महायुद्ध हो जाये और धरती पर महाप्रलय छा जाये । धर्म अहिंसा का अमृत अनुष्ठान है। यह मानवता की मुडेर पर मोहब्बत का जलता हुआ चिराग है । मैं उन मन्दिरों का अनुयायी हूँ, जो खुद मनुष्य को मन्दिर बनकर जीने का पाठ पढ़ाए। वे धर्मस्थान मानवता की नजर से उतर गये हैं, जहां से मानवता पर संगीने कोंची जाती हैं। मानव-मानव के बीच हृदयों की दूरियां बढ़ाने की कोशिशें होती हैं। हमें मानवता के मन्दिर को गिरने से बचाना चाहिये। जिस परिवार में प्रेम नहीं है, उस परिवार द्वारा धर्म का आचरण नहीं हो सकता। जिस परिवार में मैत्री व बन्धुत्व की भावना नहीं है, उसके द्वारा मन्दिर में परमात्मा प्रतिष्ठित नहीं हो सकता । For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए जरूरी है कि मनुष्य स्वयं मन्दिर बने और भीतर जो स्वामी विराजमान है, उसका दर्शन करे । अन्तर्यामी के साथ साक्षात्कार करे । मनुष्य ही एक मन्दिर बने, हर मन्दिर से अब यह आवाज आनी चाहिये। 'क्या करेगा प्यार वो ईमान को, क्या करेगा प्यार वो भगवान को। जन्म लेकर गोद में इन्सान की, कर न पाया प्यार जो इन्सान को।' इस धरती के इन्सान को भगवान के प्यार से ज्यादा इन्सान का प्यार चाहिए। इन्सान को इन्सान का प्यार मिल जाए, इससे बढ़कर धर्म का आचरण और क्या होगा? हमारा सौभाग्य है कि हम पत्थर से बनी मूर्ति के सामने नतमस्तक हो जाते हैं और उसे भगवान स्वीकार लेते हैं, लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम जीवित मानव में परमात्मा को प्रतिष्ठित नहीं कर पाते । एक इन्सान स्वयं का इतना साधारणीकरण कर सकता है कि वह पृथ्वी के प्रत्येक जीव में परमात्मा देख सके। परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार कर सके। सच तो यह है कि जब एक इन्सान कमी इन्सान में भगवान को स्वीकार नहीं कर पाता तो वह पत्थर में भगवान को कैसे मान पाएगा? यह अलग बात है कि पत्थर के आगे आप सिर झकाने में नहीं हिचकिचाएंगे। इसके विपरीत कोई इन्सान सामने आ जाए तो उसे प्रणाम करने से सकुचाएँगे । मनुष्य का किसी प्रतिमा को प्रणाम करना तभी सार्थक होगा जब उसमें किसी इन्सान को सात बार प्रणाम करने की हिम्मत जुट जाएगी। हमारा पहला प्रणाम इन्सान को हो । उसके बाद विस्तार की ढेर सारी संभावनाएं हैं। आप जानवर को प्रणाम कर सकते हैं, ( ६७ ) For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि पत्थर के मुकाबले वे श्रेष्ठ हैं, उनमें जान है । उनमें पत्थर से भी ज्यादा चेतना है। आपका प्रणाम एक जानवर भी स्वीकार कर ले तो फूलों के पास जाइए । उनके नूर को देखें, उन्हें गले लगाएं । जब आपकी प्रेम, मैत्री व बंधुत्व की भावना पेड़ पौधों के प्रति भी हो जाए तो समझो काफी कुछ पा लिया। . आप कभी फूलों के पास भी जाएं, उन्हें भी प्यार से सहलाएं । धरती की माटी से उठने वाली गंध का भी कभी आचमन करें। कभी झरनों के पास बैठे, कुछ वहां भी गुनगुनाएं, कुछ उनसे भी बातें करें। पर्वतमालाओं में विचरें, आप अपने काफी करीब होंगे । आपको लगेगा कि इन रूपों-आकारों के पीछे वह कौन बैठा है ? जान गया हूं मैं इस जग में, इक तुम ही तुम तो जीते हो । इन सब रूपों-पाकारों के, पीछे तुम ही तुम बसते हो । मेरे लिए तो यह सारी धरती परमात्मा का एक मन्दिर है और इस धरती पर खिले फूल, उड़ती तितलियां, बहते झरने, लहराती फसलें, यह सब उसी प्रभु के जीवंत और प्रगट-प्रत्यक्ष रूप हैं, उसकी जीवित प्रतिमाएं हैं। उसके मन्दिर सभी ठौर हैं और वह ठौर-ठौर प्रतिष्ठित है। यह हमारे भीतर 'प्रभु' का जन्म है, अपनी प्रभुता का विस्तार है। ___ अगर ऐसा होता है तो, अभी तो आपको किसी प्राचार्य की, किसी मुनि की, पंडित या विधिकारक की जरूरत पड़ती है, लेकिन फिर आप पत्थर की प्रतिमा के पास जाएंगे तो उस प्रतिमा को किया जाने वाला आपका प्रणाम उसे भी जीवित, सचेतन कर देगा। ( ६८ ) For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत मंत्र स्वय आपका प्रणाम होगा। प्राचार्य भी आपका प्रणाम होगा और तीर्थंकर भी आपका प्रणाम होगा। जीवंत प्रणाम में परमात्मा खुद साकार रहते हैं । आपके उस प्रणाम में, नमन के विराट भाव में, एक चेतना होगी, जीवंतता होगी, एक प्राभा होगी, प्रारण होगा। प्रतिष्ठा हमेशा प्राणों की होती है। यह प्रतिष्ठा भी प्राणों से ही होती है । किसी जड़ द्वारा प्राणों की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। आपका प्रणाम जितना प्राणवान होगा, आपकी प्रतिष्ठा उतनी ही जीवंत होगी। इसलिए अपने आप को फैलाने का प्रयास कीजिए, प्राणों का विस्तार कीजिए। अन्तर्दृष्टि अगर विराट हो गयी तो वेद ही वेद नहीं है, पत्ती-पत्ती पर उपनिषदों के अक्षर लिखे मिलेंगे। तब मस्जिद से ही कुरान की आयतें सुनाई नहीं देंगी, चिड़ियाओं की चहचहाट में भी कुरान की आयतें और बाइबिल के गीत सुनाई दे जाएंगे। अन्तर्दृष्टि से हम कितने प्रतिष्ठित, प्राण-प्रतिष्ठित हो जाते हैं, यह सब इस बात पर निर्भर करते हैं । वैराग्य का शास्त्र कहता है कि राग निरर्थक है; वीतरागता का शास्त्र कहता है एक के राग से ऊपर उठं चलो, सबके प्रति प्रेमोन्मुख हो जाओ। अपने प्रेम का, अपनी प्रसन्नता का द्वार सबके लिए खोल दो। दृष्टि को विधेयक, पॉजिटिव बनायो । वीतराग होने का अर्थ यह नहीं है कि आप उदासीन हो जायो। सब कुछ छोड़कर जंगल में चले जानो। अगर इसी को वीतरागता मान लिया जाए तो दुनिया भर के लोग जंगल में चले जाएंगे। नतीजा यह होगा कि सारे जंगल शहर हो जाएंगे और तब शहर जंगल हो जाएंगे । For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्व 'स्वभाव' का स्वभाव के परिवर्तन का है। हमने कभी नहीं सोचा कि हमारा स्वभाव क्या है ! हमने तो हमेशा यही सोचा कि आत्मा का स्वभाव क्या है, अज्ञात का स्वभाव क्या है ? कभी यह भी तो सोचो कि आदमी का स्वभाव क्या है ? वस्तु का स्वभाव धर्म है। हमने कभी यह सोचा कि इंसान का स्वभाव क्या है ? हमने हमेशा यही सोचने का प्रयास किया है कि आत्मा का स्वभाव क्या है ? आदमी का स्वभाव क्या है ? युग को इस बारे में सोचने की जरूरत है। एक इंसान जब तक इंसान नहीं बन पाएगा, उसकी अन्तर चेतना कहां जीवित हो पाएगी। आत्मा की अनुभूति और उसका साक्षात्कार, परमात्मा की प्राप्ति तो दूर की बात है। अभी तक तो इन्सान, इन्सान तक नहीं बन पाया है। वह पहले इन्सान तो बने । मेरी समझ से एक इन्सान अगर इन्सान बन गया तो समझो ईश्वरत्व की आधी यात्रा तो पूरी हो गई। आपके जीवन की सार्थकता इसमें नहीं है कि आप अपने को 'अहं ब्रह्मास्मि' मानते चले जाएं । आपके जीवन की सार्थकता इसमें है कि आज अपने आपको इन्सान मानो और इन्सान बनकर ही ईश्वरत्व की तलाश जारी रखो। 'पशु' से ऊपर उठो और 'प्रभु' के द्वार में प्रविष्ट हो । शिखर से नीचे उतरना तो आसान है। पांव फिसलेगा तो भी नीचे आ जाओगे। लेकिन तलहटी से शिखर की ओर चढ़ना कठिन है। जो लोग एवरेस्ट पर चढ़ते हैं, वे जानते हैं कि चढ़ना कितना मुश्किल हुआ करता है। वर्षों पहले जब एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोरगे पहली बार एवरेस्ट पर चढ़े थे तो वे जानते थे कि 'चढ़ाई' आसान नहीं होती। ( ७० ) For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक देवता का शैतान हो जाना आसान है । . एक इन्सान का भी शैतान होना सरल है, लेकिन एक जानवर का इन्सान होना कठिन है । एक शैतान का देव होना मुश्किल है । पशु इन्सान नहीं हो सकता । 'पशु' इस अर्थ में में इन्सान है इन्सानियत की पशु है कि वह पशु से ऊपर नहीं उठ सकता । इन्सान इस अर्थ कि वह दिव्यताओं का आचमन कर सकता है । पूजा करने वाला इन्सान है । वह इन्सान होकर भी धरती का देवता है, जो दिव्य है, दिव्यताओं को आत्मसात् कर रहा है यानी इन्सानियत से भी दो कदम आगे है । इन्सानियत तो उसका इल्म है । दिव्यता हमारा लक्ष्य हो और मानवता उसका मार्ग । आप यदि यह सोचकर बचते रहे कि मार्ग कठिन है, चलना कठिन है तो आप लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे । तब बाहर से आपका मुखौटा जरूर इन्सान का होगा मगर भीतर शैतान जिन्दा रहेगा । और वो शैतान, वो जानवर आपको काटता रहेगा, जहर उगलता रहेगा । एक सांप अगर सुधर जाए तो वो श्रावक बन जाता है और एक श्रावक यदि विकृत हो जाए तो सांप बन जाता है । अंग्रेजी के दो शब्द हैं - गॉड ( GOD) और डॉग ( DOG ) । आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि गॉड का उलटा डॉग हो जाता है । इन्सान जब अपने स्वभाव से नीचे गिरता है तो 'डॉग' बन जाता है और जब 'डॉग' इन्सानियत को छूकर आगे बढ़ता है तो 'गॉड' बन जाता है । डॉग उपेक्षित है, गॉड प्राराध्य है । इसी तरह दो शब्द हैं 'राम' और 'मरा' | 'राम' आपको तारता है, 'मरा से आपको डर लगता है । एक से उबरोगे तो दूसरे ( ७१ ) For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से डूबोगे। यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप कौनसा मार्ग अपनाते हैं। यह आदमी पर है कि वह अपने को समाज और देश को चमन बनाए, अपने प्रेम से प्रफुल्लित करे या जिन्दगी को नर्क बना दें। धरती पर आए हो तो इसके लिए कुछ करो। समाज में रहते हो तो इसके उत्थान में अपना योगदान करो। परिवार के लिए कुछ करो। अपने परिवार को प्रेम दो। समाज में, देश में प्रेम बांटो। धर्म का सही आचरण यही है। शुरुआत घर से हो । परिवार में एक-दूसरे के लिए त्याग की भावना रखना, छोटे-बड़े सबकी भावनाओं की कद्र करना, मिल-जुलकर रहना, जीवन का यह सामाजिक धर्म है। आप मन्दिर में जाते हैं, जरूर जाइए। परमात्मा से प्रेम भी कीजिए। मगर पहले अपनी पत्नी, बच्चों, दोस्तों से प्रेम कर लेना, क्योंकि तभी परमात्मा से किया जाने वाला प्रेम सार्थक होगा। आप किसी धर्म सभा में जाते हैं। सामायिक करते हैं, जरूर करिएगा, लेकिन घर में जो क्रोध का कषाय है, उसे समाप्त करके आना। तब सामायिक में जीवंतता आएगी, प्राणों में वह प्रतिष्ठित होगी। अपने घर को भी अगर एक मन्दिर बना लो, अपने ऑफिस में कुर्सी को अगर सामायिक की 'बैठक' बना लो, तो धर्म तुम्हारे जीवन का व्यवहार हो जाएगा, तब तुम जो करोगे, वह धर्म ही होगा। जमाना हवाई जहाज और जेट की रफ्तार से चल रहा है लेकिन हम धर्म को बैलगाड़ी की गति से चलाना चाहते हैं। ऐसे तो धर्म जमाने से पीछे छूट जाएगा। अगर धर्म जमाने के साथ न चल पाया तो नतीजा यह होगा कि धर्म का जमाने पर अंकुश नहीं ( ७२ ) For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह पाएगा । जमाना धर्म पर अंकुश लगाने लगेगा | जमाना धर्मं का सहचर नहीं होगा । अगर ऐसा ही हुआ तो समझो हो गया धर्म का सत्यानाश । धर्म का सत्यानाश हुआ तो क्या नैतिकता बचेगी, क्या मानव बचेगा ? तब तो परमात्मा भी कहां रहेगा । इन्सान में जब तक इन्सान बन कर जीने के भाव रहेंगे तभी तक परमात्मा के मन्दिर जीवित रहेंगे और जब इन्सान ही मर गया, इन्सान के भीतर का इन्सान, तो परमात्मा को याद करने वाला कहाँ बचेगा ? मेरे देखे, हर चेतना हर तत्व परमात्मा होने के करीब है । आएगा जब परमात्मा ही परमात्मा नहीं रहेगा, बल्कि जीव, छोटे से छोटा अणु भी परमात्मा होगा । आज जो कली है, कल वो भी परमात्मा बन सकती है । तब यह धरती भी अपने आप में सिद्ध शिला बनेगी । यह धरती अपने आप में स्वर्ग बन जाएगी । हम सक्रिय हों । हमारी अन्तर्दृष्टि निर्मल हो । रचनात्मकता और सकारात्मकता को जीवन में स्थान दें । किसी नियमविशेष को निभा लेना ही, जीवन-मूल्यों की इतिश्री न समझें । नियमों का निर्माण युग-युग में होता रहा है । युग के अनुसार, नियम बनते हैं । नियमों की दुहाई न देते फिरें, अपने विवेक को, जीवित और सक्रिय करने का प्रयास करें । हम महान् बनें और फिर भी कितने भी महान् बन जायें, पर इतना जरूर स्मरण रखें कि आखिर हम एक इन्सान हैं। साधु-संतों, गुरुजनों और बुद्धिजीवियों को आगे आना चाहिये । युग को सही लोगों की जरूरत है। सही और भले लोगों को सारे संसार में फैल जाना चाहिये । एक दिन ऐसा धरती का हर मैंने सुना है, एक संत कहीं जा रहे थे । चलते-चलते वे थक गए तो एक मकान की चौकी पर बैठ गए। वह मकान एक महिला ( ७३ ) For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का था । महिला ने संत को देखा तो उसने उन्हें भीतर बुला लिया । महिला ने उन्हें भोजन करवाया। भोजन करते संत का चेहरा देखते-देखते वह महिला संत के प्रति आकर्षित हो गई। उसने संत से निवेदन किया कि आप मेरे घर पर ही मेरे स्वामी बन कर रहें । संत ने कहा कि तुम्हें मेरी जरूरत जिस दिन होगी, उस दिन मैं तुम्हें अपना लूगा । संत इतना कहकर वहां से चला गया । वर्षों बीत गए । महिला संत की प्रतीक्षा करती रही। न जाने क्या बात हुई, महिला को कोढ़ हो गया। उस देश के राजा ने उसे देश निकाला दे दिया ताकि कोढ़ आगे न फैले । महिला प्रभु से प्रार्थना करने लगी कि जैसे मेरे साथ किया है, किसी अन्य नारी के साथ मत करना। वह प्रार्थना करने लगी कि हे भगवान ! मेरे प्राण ले लो। एकाएक उसने आत्महत्या करने का विचार किया मगर तभी उसे आवाज सुनाई दी- 'नहीं ! अब इसकी जरूरत नहीं है।' महिला ने देखा, वही संत था, जो तीस साल पहले उसका मेहमान बना था और जिस पर वह आसक्त हो गई थी। वह बोली'तुम बहुत देर से पाए, अब मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है ।' संत ने कहा-'मुझे जिस चीज की जरूरत है, वो अब ही तो तुम्हारे पास है। आज तुम कोढी हो । अपनी कोढ से भरी देह मुझे दे दो।' इतना कहकर संत ने महिला के घाव धोने शुरू कर दिए । जब कोढ का सारा मवाद निकल गया तो संत निकल पड़ा। उसके पीछे वह महिला भी निकल पड़ी, परमात्मा के श्रीचरणों में । ( ७४ ) For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब उसे परमात्मा के श्रीचरणों की ही जरूरत थी। दुनिया को उसने खूब देख लिया था। मैं भी यही आश्वासन देना चाहता हूं कि जब कोई करने वाला न बचे, सब तरफ से निराश हो जाओ तो मेरे पास चले आना । ये हाथ बहुत कुछ करने को तत्पर रहेंगे। सारी मानव जाति के उद्धार को तैयार मिलेंगे। प्रेम, मैत्री बंधुत्व का संसार है । भीतर का सारा मवाद निकल जाएगा । मेरे सामने जब भी कोई आता है तब भीतर का परमात्मभाव उमड़ने लगता है। तब मैं उसे नमस्कार करने लगता हैं । कई लोगों को यह अखरता है। स्वाभाविक है। व्यक्ति का सम्यक दर्शन जितना निर्मल होता जाएगा, उसके प्राण उतने ही विस्तार पाते चले जाएंगे। मेरे देखे परमात्मा की प्रतिमा को नमस्कार करना तभी सार्थक होगा जब हम परमात्मा के बनाए इन्सान को प्रणाम करें। अपने हाथों बनाए गए परमात्मा को प्रणाम करने की बजाय उस परमात्मा की प्रार्थना करो, जिसने हमारा निर्माण किया है। मूर्तियों को हमने, हमारे समाज ने ही तो बनाया है मगर उस परमात्मा द्वारा बनाए गए इन्सान को प्रणाम करना, उसके आगे नत-गस्तक होना, तभी पता चलेगा। कभी उसकी भी प्रार्थना करके देखिएगा। बड़ा आनन्द मिलेगा। मनुष्य के प्रति अपने अहोभाव को जगाइएगा। उसमें चेतना होगी, जीवंतता होगी। जीवित और चैतन्य-सामीप्य प्रभुता का ही सान्निध्य है। हमारे अन्तर्मन में जीवन के प्रति सम्मान का भाव हो । हम जीवन का आदर करें। जीवन के प्रति अहोभाव लाएं। चाहे ( ७५ ) For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई घर का सदस्य हो, उसे सदस्य के रूप में देखने की बजाय जीवन के रूप में देखें । आपका परिवार है। पत्नी, बच्चे हैं। माता-पिता हैं । आप प्रेम भाव से जीते हैं। घर को स्वर्ग बनाकर जीते हैं। आनन्द और प्रसन्नता से जीते हैं। धर्म हमें यही तो सीख देता है । धर्म कहता है तुम क्षमा करो, नफरत न करो। यदि हम ऐसा करते हैं तो इससे अधिक गौरव की बात दूसरी न होगी। प्रार्थना हमेशा घर से, समाज से और देश से होनी चाहिए । ऐसा न हुआ तो हम प्रार्थना जरूर करेंगे, लेकिन वो अर्थहीन होगी। मैं तो जीवंतता में, अपने आप में विश्वास करता हूं। जीवन के हर पल पर विश्वास करता हूं। नास्तिक उसे कहते हैं जो भगवान पर विश्वास नहीं रखता। मैं कहता हूं असली नास्तिक तो वो है जो अपने आप पर ही विश्वास नहीं रखता। आस्तिक वो है जिसका अपने आप पर विश्वास है। नास्तिक वो है जिसका अपने आप से विश्वास उठ गया। जिस व्यक्ति को अपने आप पर विश्वास नहीं है, वो परमात्मा पर विश्वास कैसे कर सकेगा। इंसान के भीतर रहने वाले ईश्वर को पाना है तो सिवाय प्रेम के और कोई रास्ता नहीं है। किसी के मन में मीरा है तो उसे जगाएं । किसी के मन में चैतन्य महाप्रभु है तो उसे जगाएं । प्रेम की झील में, प्रेम के मानसरोवर में ही विहार हो सकता है। इसी में जीवन के प्रानन्द को प्राप्त किया जा सकता है। स्वयं के प्रति, जीवन के प्रति विश्वास और सम्मान मेरे देखे, तो परमात्मा का ही सम्मान है। विश्वास अगर श्रद्धा में तब्दील हो ( ७६ ) For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाये, विश्वास के चरण श्रद्धा की ओर बढ़ जाये, तो मन मंदिर की रोशनाई कुछ और ही निखार लाएगी । विश्वास और श्रद्धा में कुछ फर्क है, उतना ही जितना बुद्धि और हृदय में । विश्वास सुन्दर मस्तिष्क की देन है और श्रद्धा सुन्दर हृदय की देन है । मस्तिष्क सुन्दर बना, अच्छी बात है लेकिन हृदय सुन्दर बना तो समझो सम्यक् दर्शन को प्राप्त करने का मार्ग खुला है । मस्तिष्क विकसित हुआ, अच्छी बात है, लेकिन हृदय विकसित हुआ तो यह जीवन में अहोभाग्य की बात है । इस बौद्धिक युग में दिमाग तो हर किसी का विकसित होता है । लेकिन हृदय विकसित नहीं होता । मैं उन्हीं लोगों से प्रभावित होता हूं जिनका हृदय विकसित होता है, सुन्दर होता है । जो लोग मस्तिष्क से सुन्दरता दिखाएंगे उनकी वाणी में चातुर्य होगा, पाण्डित्य होगा लेकिन सत्यता नहीं होगी । और सत्यता के अभाव में परमात्मा कभी मस्तिष्क में नहीं बस सकता परमात्मा तो हृदय में रहता है । हृदय में भी वह तब प्रकट होगा जब हृदय सरलता से परिपूर्ण होगा । जिसका हृदय सुन्दर होगा, उसका परमात्मा भी सुन्दर होगा और जिसका हृदय विकृत होगा, उसका परमात्मा भी विकृत होगा । तब उसे परमात्मा नहीं, शैतान कहेंगे । लोग उसे शैतान कहेंगे । लोग उससे बचना चाहेंगे । परमात्मा का निवास स्थान हृदय का मन्दिर है । परमात्मा मानवीय हृदय की आखिरी ऊंचाई है । शैतान मानवीय मन की आखिरी सीढ़ी है । 'विश्वास' और 'श्रद्धा' दो अलग-अलग शब्द हैं । विश्वास तो ऐसे है जैसे बाजार से खरीदे गए नकली । फूल ये फूल बाजार में ही मिलेंगे लेकिन 'श्रद्धा' का फूल मनुष्य को अपने भीतर के गमले में ही उगाना पड़ता है । आप किसी की पूजा करते ( ७७) For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं तो हजारों फूल बरसा लेंगे। प्रतिमा को फूलों से ढक देंगे, मगर जरूरी नहीं है कि वो पूजा सार्थक ही हो । श्रद्धा और चीज है । दूसरों के बगीचे में लगे फूल तोड़ते समय आपका हाथ नहीं कांपेगा लेकिन स्वयं के बगीचे का फूल तोड़ना जैसे अपने अंग को अलग करने जैसा महसूस होगा। बाजार के लाख फूल की जगह आपकी श्रद्धा का एक फूल 'भारी' होगा। आप अपने बगीचे का फूल नहीं तोड़ पाएंगे । आपका श्रम, प्रेम उमड़ेगा । आप हिचकिचाएंगे । विश्वास और श्रद्धा की कथा अजीब है। आप विश्वास के साथ कह सकते हैं कि आप प्रात्मा हैं लेकिन आप श्रद्धा से यह बात नहीं कह सकते । आपको विश्वास है कि आप जैन हैं लेकिन आपको श्रद्धा नहीं है । हिंदुत्व का विश्वास है, पर हिंदुत्व की श्रद्धा नहीं है । विश्वास गणित की तरह है लेकिन श्रद्धा प्रेम की तरह है। विश्वास में दो और दो चार होते हैं लेकिन श्रद्धा में ये बाईस भी हो सकते हैं । प्रेम ऊंचाई पर पहुंचकर श्रद्धा बन जाया करता है। पतिपत्नी के बीच प्रेम होता है। कभी झगड़ा भी होता है मगर वो जल्दी ही निपट भी जाता है क्योंकि वहां श्रद्धा है। विश्वास को झुठलाया जा सकता है लेकिन श्रद्धा को नहीं । व्यक्ति के भीतर यह भाव आने पर कि मैं एक इन्सान हूं, मेरे भीतर श्रद्धाभाव है । प्रेम-मैत्री ही मेरा स्वभाव है। मैं समझता हूं कि ऐसा होता रहेगा तो सम्यक् दृष्टि को उपार्जित किया जा सकेगा। श्रद्धा और विश्वास में अन्तर को समझना जरूरी है। बच्चे को पैदा करने व गोद लेने में कितना अन्तर है। गोद लेने में क्या ( ७८ ) For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगता है ? मगर पैदा करना बिल्कुल दूसरी बात है। सिर्फ गोद लेने से मातृत्व भाव नहीं उमड़ेगा। नौ माह गर्भधारण का कष्ट, फिर बच्चे को जन्म देने से ही मां कहलाया जा सकता है। इसलिए कहते हैं कि असली सत्य वह है जो हमारे भीतर पैदा होता है । कहीं बाहर से लाया गया सत्य हमारा कल्याण नहीं कर सकेगा । अपने सत्य को स्वयं पैदा करना पड़ता है। श्रद्धा हमारे हृदय की निजी ईजाद है, आविष्कृति है । हृदय स्वीकार हो जाता है। श्रद्धा का अर्थ है अपनी हार्दिकता जगाओ। अपने हृदय में मनुष्य का महत्त्व प्रतिष्ठित करो। मनुष्य में समाये परमात्मा से स्वयं का सामीप्य स्थापित करो। मनुष्य एक मंदिर बने, यही हमारा लक्ष्य हो। अपनी चेतना के बन्द द्वार खोलें। चेतना के सोये पड़े बीजों को पनपाने की चेष्टा करें। अपने भीतर के मंदिर में ऐसा दीप रोशन करें, कि रोशनी हमें निहाल कर दे, जीवन को अमृत बना दे । ( ७६ ) For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी सम्पदा तुम्हारे पास परमात्मा हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हमसे यह अधिकार कोई भी छीन नहीं सकता, हमें इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। दुनिया की ऐसी कोई ताकत नहीं है जो हमें परमात्मा से अलग कर सके । हम चाहे आस्तिक हों या नास्तिक, परमात्मा तो हम सबके स्वभाव में बसा है । नास्तिकता भी उसी परमात्मा की अभिव्यक्ति है और आस्तिकता भी उसी की अभिव्यक्ति है । कोई आदमी कहता है कि मैं परमात्मा में विश्वास नहीं रखता तो यह बात खुद परमात्मा ही तो कह रहा है। एक आदमी जब कहता है कि मैं परमात्मा के प्रति श्रद्धानवत हूं तो यह कहने वाला खुद उसके भीतर बैठा परमात्मा ही तो है । ( ८० ) For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे जीवन की हर अभिव्यक्ति, भले ही वह श्रश्रद्धा हो या श्रद्धा, उसी परमात्मा की ही है । एक व्यक्ति परमात्मा को मानता है, दूसरा नहीं मानता । इस दुनिया में सत्तर फीसदी लोग ऐसे हैं जो नास्तिक कहलाते हैं और तीस फीसदी लोग प्रास्तिक हैं । इन आस्तिकों की आस्तिकता भी प्रायः सन्देह के घेरों में होती है । मुश्किल से दो प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो सच्चे अर्थों में प्रास्तिक कहला सकें । लोग मन्दिरों में जाते हैं । अपने आराध्य की प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करते हैं और अपने आपको प्रास्तिक कहते हैं, लेकिन सच पूछा जाए तो बात दूसरी है । ये लोग प्रार्थना करने के बाद जब बाहर आते हैं तो हमेशा उनके मन में एक प्रश्न उठता है कि मैं जिसके सामने प्रार्थना कर रहा हूँ, वो आखिर है कौन ? परमात्मा की प्रतिमा के आगे उसकी प्रार्थना करेगा लेकिन भीतर यह संशय होगा कि वास्तव में तो यह पत्थर है, इसमें परमात्मा कहां है ! मनुष्य बाहर अमृत वचन सुनता है, लेकिन भीतर कुण्ठा है । बाहर चिन्तन है, लेकिन भीतर कोई न कोई समस्या घूम रही है । परमात्मा हमारा स्वभाव - सिद्ध अधिकार है । आप चाहे जिस रूप में परमात्मा के सामने पेश हो जाइए, लेकिन स्वभाव से अलग नहीं कर सकेंगे । परमात्मा को अपने इसीलिए तो कहा जाता है - 'अप्पा सो परमप्पा' - 'आत्मा सो परमात्मा' – यानि तुम स्वयं परमात्मा हो । तुम्हारी सम्पदा तुम्हारे पास ही है । उपनिषद कहते हैं - 'तत्त्वमसि' - दुनिया में कहीं कोई है तो वह तुम स्वयं हो। हम जो कोई भी काम करेंगे उसकी प्रतिक्रिया तो होगी । यह धरती आत्म-समानता और ( ८१ ) For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-सम्बन्धों का द्वीप है । आप कुछ भी करेंगे, वह आप तक वापस आएगा। क्रोध करोगे तो वह वापस आप पर ही पाकर बरसेगा । प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा। कभी जंगल से गुजरो तो जोर से आवाज लगाना। वह आवाज वापस आपके कानों तक पहुंचेगी। जैसी आवाज दोगे, वैसी ही प्रतिध्वनि आपके कानों तक पहुंचेगी। यह सारा संसार हमारी प्रतिध्वनि ही तो है। जैसा हम करेंगे, हमारे साथ वैसा ही होगा । अगर हम परमात्मा बनकर सबके सामने पेश होंगे तो सभी लोग हमको परमात्मा की तरह नजर आएंगे। इसका कारण यही है कि यह जगत एक प्रतिध्वनि है। .. ___मनुष्य जैसा होगा, उसकी प्रतिछाया भी वैसी ही होगी। उससे अलग कोई दूसरी प्रतिछाया हो नहीं सकती, प्रतिध्वनि हो नहीं सकती। क्रोध करोगे तो क्रोध बरसेगा। आज नहीं तो कल, बरसेगा जरूर। धरती की अपनी एक सीमा है। क्रोध करोगे तो क्रोध और प्यार करोगे तो प्यार मिलेगा। ............ परमात्मा हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। जैसे हम हैं, वैसा ही परमात्मा है। परमात्मा हम सबका स्वभाव है। उसे पाना यानि अपने स्वभाव को पाना है । स्वरूप को उपलब्ध होता है । परमात्मा को खोजने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है । उसे पाने के लिए अपने भीतर समझ पैदा करने की जरूरत है। परमात्मा को कभी खोजा नहीं जा सकता। खोजा तो उसे जाता है जो खो गया हो। परमात्मा तो कहीं खोया नहीं है। परमात्मा किसी जगह छिपा नहीं बैठा है जो आप उसे खोजने जा रहे हो । परमात्मा तो हमारे भीतर ही है। हमारे आस-पास है। उसे देखने के लिए दृष्टि चाहिए, एक अन्तर्दृष्टि जो उजागर करनी है । ( ८२ ) For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल वल्लतोल की लिखी एक कहानी पढ़ रहा था। एक तीर्थ था ऊँचे पहाड़ों पर। हजारों यात्री उस तीर्थ में आते थे । जान जोखिम में डालकर भी आते । मूर्ति ने जब यह देखा, तो गर्व में अकड़ गयी। अपने-आप से बोली कि पत्थर कहकर अपमानित करने वाली इस मानव-जाति का दिमाग मैंने ही दुरुस्त किया है। मेरी पूजा के बगैर इस जाति का कोई उद्धार नहीं है । मूर्ति अभी ऐसा सोच ही रही थी कि तभी उसने सुना-मूर्ख, तू मूर्ति नहीं, पत्थर-की-पत्थर रही। इंसान तुम्हें यहाँ पूजने के लिए नहीं आता। वह तो पाता है भीतर के सत्य को पूजने । करीब के सत्य को दूर जाकर पूजने की इसकी पुरानी आदत रही है। दूर जाकर पूजने की आदत ! मनुष्य का मन दो तरह का होता है। एक तो 'यात्रालु' होता है जबकि दूसरा 'ध्यानी' होता है। यात्रालु मन परमात्मा को बाहर ढुंढता है और ध्यानी मन भीतर ढ़ढता है। यात्रालु मन इधर-उधर जाएगा। कभी पहाड़ पर तो कभी जंगल में, उसकी यात्रा समाप्त ही नहीं होगी। दूसरी ओर जिनके मन में ध्यान और जप का प्रभाव है, वे अपने भीतर ही उसे तलाशेंगे । परमात्म-स्वरूप तो तुम खुद हो। बोध के रूपान्तरण की जरूरत है, हमें उसके दर्शन हो जाएंगे। व्यक्ति माला फेरता है और परमात्मा को पाना चाहता है, लेकिन परमात्मा उससे दूर है ही कहां? हमें किसी की याद तभी आती है जब वो हमारे पास नहीं होता। आपकी पत्नी आपके पास रहती है तो क्या आपको उसकी याद आती है ? वही पत्नी कुछ दिन के लिए मायके चली जाए तो आपकी नींद हराम हो जाती है। उसकी याद सताने लगती है । ( ८३ ) For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लोग कहते हैं परमात्मा की खोज कर रहे हैं । परमात्मा खोया ही कहां है, जो उसकी खोज की जा रही है । परमात्मा खो जाए तो क्या हम जीवित रह सकते हैं ? उसके कारण ही तो हम जीवन है । किसी मछली को पानी से बाहर निकालोगे तो वह तड़फ तड़फ कर जान दे देगी । यही स्थिति तब होगी जब परमात्मा हम में से निकल जाएगा । इसलिए जो चीज खोई नहीं, उसकी खोज निरर्थक है । जिसका वियोग ही नहीं हुआ, उसका योग कैसे सम्भव है ! परमात्मा से न तो वियोग होता है और न ही योग होता है । परमात्मा तो हमारे में ही रचा-बसा है । तुम स्वयं अपने आप में परमात्मा हो । महावीर को कोई परमात्मा नहीं मिला, बुद्ध को कोई भगवान नहीं मिला । वे खुद ही परमात्मा हो गए, भगवान हो गए । परमात्मा कहीं से आता नहीं है, व्यक्ति को खुद ही परमात्मा होना पड़ता है । लेकिन हम लोग परमात्मा की कहीं और जाकर पूजा करते हैं । उसके दर्शन पाना चाहते हैं । अपनी आँखों से उसे देखना चाहते हैं और कानों से उसका संगीत सुनना चाहते हैं । नाक से परमात्मा की सुरभि का रस पान करना चाहते हैं । ये सब तो इन्द्रियां हैं और परमात्मा को कभी इन्द्रियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता । मनुष्य की ऐसी एक भी इन्द्री नहीं है जो भीतर की ओर मुड़ती हो । सभी इन्द्रियां बाहर की ओर जाती हैं । आँख प्रौर नाक दृश्य या ज्ञेय को पकड़ सकती हैं, लेकिन जो अदृश्य है, अज्ञेय है उसे नहीं पकड़ सकती । आदमी की मूढ़ता को देखो, वह इन इन्द्रियों के बल पर भगवान को ढूंढना चाहता है । इन्द्रियों द्वारा भगवान को अनुभव नहीं किया जा सकता, क्योंकि भगवत्ता तो अतीन्द्रिय है । ( ८४ ) For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की तरह आदमी सुख को भी बाहर ढूढता है, क्योंकि उसका मन और इन्द्रियां बाहर की ओर देखती हैं। उसके विचार हमेशा बाहर के साथ जुड़े रहते हैं। आदमी जब परमात्मा को बाहर ढूढता है तो वह अपनी पहचान भी बाहर के द्वारा करवाना चाहता है। कोई दूसरा कह दे कि आप अच्छे हैं तो आप मान लेंगे कि आप सुन्दर हैं, अच्छे हैं। किसी ने बुरा कह दिया तो आप बुरा समझते हुए उदास हो जाते हैं । दिन भर में मिलने वालों में से आधे लोगों को हम अच्छे लगते हैं तो आधे हमें बुरा कहते हैं । हमारे भीतर एक अन्तर्द्वन्द्व पैदा हो जाता है कि हम अच्छे हैं या बुरे ? निर्णय हम नहीं कर पाते। हम अपना सुख बाहर देखना चाहते हैं और अपने आप की पहचान भी बाहर से करवाना चाहते हैं। व्यक्ति अपने को आइने के सामने ले जाता है और खुद की पहचान करना चाहता है। उसे अपना बोध नहीं है, आइने से पुष्टि करना चाहता है । पाप आइने के सामने जाते हैं तो वहां आपको क्या दिखाई देता है ? केवल आपका चेहरा, हाथ-पांव । आपके विचार दिखाई देते हैं ? आपकी मानसिकता आइने में उभरती है ? तो इस तरह आइने में हमें आत्मा-परमात्मा भी दिखाई नहीं देंगे। वहां केवल बाहरी स्वरूप प्रतिबिम्बित होगा। सुख और शांति बाहर नहीं है। __ आदमी अपना दुःख किसी को सुनाना चाहता है ताकि उसका मन हल्का हो जाए । कल एक महिला मेरे पास आई और अपना दुखड़ा रोने लगी। इतने में एक और महिला वहां पहुंची और वह अपनी राम कहानी सुनाने लगी। थोड़ी देर में क्या देखता हूं कि दोनों औरतें मुझसे नहीं, एक दूसरी से मुखातिब हैं और लपना-अपना दुख ( ८५ ) For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बयान कर रही है। उन्हें यह अहसास भी नहीं रहा कि मैं उनके पास बैठा हूं। अपना दुःख या परेशानी किसी से कहकर आदमी हल्का होना चाहता है। वह समझता है दुख हल्का हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होता। ऐसा करके वह केवल दुख का स्थानान्तरण करता है। आपके घर में आकर कोई अपने घर का कचरा डालता है तो आपको बुरा लगता है, लेकिन अपने दिमाग का कचरा आपके दिमाग में भरता है तो आपको अच्छा लगता है। हम धूल-माटो का कचरा तो बर्दाश्त नहीं कर पाते, दिमाग का कचरा कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं। हम पानी तो छानकर पीते हैं. लेकिन विचार बिना छाने ही ले लेते हैं। पानी तो बिना 'प्रासूक' किए पी लिया तो आफत नहीं आ जाएगी, लेकिन विचारों को बिना 'प्रासुक' स्वीकार कर लिया तो बड़ी परेशानी में पड़ जानोगे । आपके भीतर बैठे परमात्मा के लिए यह बहुत बड़ी हैवानियत होगी और तब प्रापका परमात्मा शैतान बनने लगेगा। दूसरों को अपना प्रेम दो, लेकिन कचरा मत दो। पवित्रता दो, कलुषता मत दो। आप रावण के भीतर राम देख सको तो बड़ी बात होगी लेकिन राम के भीतर रावण हो तो उस राम को मत स्वीकारना। मैं एक बार एक सज्जन के यहां मेहमान था । मैंने देखा उस के दो बच्चे सड़क पर आती जाती भीड़ को देख रहे थे। थोड़ी देर में वे दोनों झगड़ने लगे। मैंने उन्हें अलग करते हुए झगड़े का कारण पूछा। एक बच्चे ने कहा कि यह मेरी कार को अपनी कार कह रहा है जबकि दूसरे बच्चे ने भी यही बात कही। मैं हैरान, क्योंकि मुझे तो वहाँ कोई कार दिखाई नहीं दी। ( ८६ ) For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेंने उनसे पूछा-'कार कहाँ है ।' बच्चों ने जवाब दिया'वो तो चली गई।' एक बच्चे ने खुलासा करते हुए बताया कि वे दोनों 'कार-कार' खेल रहे थे और उन्होंने तय किया था कि सड़क से गुजरने वाली कार पर जिसकी नजर पहले पड़ेगी, वह कार उसी की होगी। मैं हंस पड़ा। कार किसी की, मालिक कोई और बन रहा है, और उसके लिए झगड़ा भी कर रहा है। आदमी कहता है यह मेरा मकान, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे । कभी बच्चों से भी पूछा, पत्नी से भी जाना कि वो आपकी है या नहीं। लोगों को इस बात का बहुत अभिमान होता है कि उनकी पत्नी उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। आपने कितनी औरतों को अपने पति के साथ मरते देखा है ? जो अपने पास है उसे बाहर ढूढने का प्रयास मत करो । स्वयं का सुख स्वयं में तलाशो। स्वयं में डूबकर ही मीरा का नृत्य पैदा हो सकता है, चैतन्य के भजन फूट सकते हैं, सूर का इकतारा झंकृत हो सकता हैं । जो पास है उसकी अन्यत्र खोज क्यों ! एक व्यक्ति थाने गया और रिपोर्ट लिखवाई कि उसका चार साल का बच्चा खो गया है। जब वह हुलिया आदि लिखवा चुका तो पुलिस कर्मी ने कहा कि इस हुलिये का बच्चा तो आपकी गोद में है । गधे पर बैठ पूरे गांव में अपना गधा ढूढकर पा गए । ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जिनके माथे पर या हाथ में चश्मा होगा, लेकिन वे उसे तलाश करने में कई घंटे खर्च कर देंगे। तो इसी तरह आदमी कहता है- 'मेरा परमात्मा कहाँ है ?' आप ढूढकर थक गये लेकिन परमात्मा नहीं मिला । अपनी तरफ किसी की नजर नहीं जाती, आदमी बाहर ही भटकता रहता ( ८७ ) For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। कई दिशाओं में जाकर पा जाता है लेकिन उस दिशा में नहीं जाता, जो उसके भीतर जाती है। आप स्वयं को ही ढूढने का प्रयत्न करोगे तो पायोगे, सारी संभावनाएँ तो हमारे भीतर छिपी हैं । आप विचार करेंगे तो पता चलेगा कि अभी आप जितने बड़े हैं, पैदा उतने बड़े नहीं हुए थे। युवक से पहले बच्चे थे, बच्चे से पहले माँ के गर्भ में थे और उससे पहले एक अण थे, आत्मा के रूप में थे । हम अपने जीवन के अतीत का स्मरण करते हैं तो पाते हैं कि हम क्या थे और क्या हो गए। क्या जन्म से पहले ही मैं गोपाल, रमेश या महेश था । यह नाम तो इस दुनिया में आने के बाद हमें मिला है। यह आरोपित नाम है। यह आरोपण ही हमारा मिथ्यात्व है । आदमी ने किसी नाम से तादात्म्य स्थापित कर लिया है। अपने स्रोत को भूल गया है। गंगा को हम बहता हुआ देखते हैं लेकिन उसके मूल स्रोत की ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है । गंगा से गंगोत्री की ओर बढ़ेगे तो हमें गौमुख के दर्शन होंगे। यात्रा तो करनी पड़ेगी। इसी तरह परमात्मा को अपने भीतर ही ढूढना होगा, जहाँ वो आसीन है । उसे देखने के लिए अन्त दृष्टि की जरूरत है। उस परमात्मा के प्रागे जाकर प्रार्थना जरूर करना जिसे हमने बनाया है, लेकिन अपने भीतर बैठे परमात्मा को मत भूलना । उसी ने तो हम सभी का निर्माण किया है। उसके सामने जाकर प्रार्थना कीजिएगा, अपनी पवित्रताओं को दोहराइएगा। वस्तुतः तो प्रार्थना उस परमात्मा की हो, जिसने हमारा सृजन किया है। हम सभी परमात्मा के पुजारी हैं, लेकिन उसके प्रति प्यास नहीं जगी। कहीं पढ़ा, किसी से सुना और पूजने लगे। अपनी कोई जिज्ञासा नहीं । एक महिला मंदिर में अपने बच्चे को ले गई । वहाँ ( ८८ ) For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने बच्चे से कहा कि भगवान की प्रतिमा के आगे सिर झुकायो । बच्चे ने इनकार किया तो उसने उसे पीटा । पिटाई के कारण बच्चे ने जबरदस्ती सिर झुकाया । ऐसा सिर झुकाना बेकार है । बच्चे को अपने आप झुकने दीजिए | जबरदस्ती का झुकना व्यर्थ है । जब बच्चे के मन में परमात्मा के प्रति भाव उत्पन्न होगा तो वह खुद भुकेगा और वो झुकना सार्थक होगा । भाव हमारे भीतर अंकुरित होना चाहिए । प्यास हमारे भीतर पल्लवित व पुष्पित होनी चाहिए । जहाँ-जहाँ प्यास है, वहाँवहाँ प्रार्थना है । हमारी प्यास जितनी सघन होगी और तीव्रतर होती जाएगी, हमारी प्रार्थना भी उतनी ही जीवंत होती जाएगी । बिना प्यास तो पानी भी अच्छा नहीं लगेगा । प्यास होगी तो आप हरिजन के हाथ से भी पानी पी लेंगे, और नहीं होगी तो कोई कुलीन वर्ग का व्यक्ति भी आपको पानी नहीं पिला सकेगा । पानी का महत्त्व है लेकिन तभी जब प्यास हो । ग्राप प्यासे नहीं हैं तो सामने पड़ा घड़ा भी आपके काम का नहीं है। कीमत तो प्यास की है, समर्पण की है । कोई महारानी एक चर्च में प्रार्थना करने गई । इससे पहले इस घटना का खूब प्रचार किया गया । जिस दिन महारानी चर्च पहुँची, वहां सैकड़ों लोग प्रार्थना करने आए । महारानी ने पादरी से कहा - आश्चर्य ! मेरे देश में इतने लोग धार्मिक हैं ! पादरी ने उन्हें बताया- 'महारानी ! आपको धोखा हो रहा है । ये लोग प्रार्थना करने नहीं प्रापको देखने आए हैं ।' इसके बाद एक रोज महारानी बिना पूर्व सूचना उसी चर्च में पहुँची तो उनके प्राश्चर्य का ठिकाना न रहा । उन्होंने देखा कि मात्र ( ८६ ) For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार-पांच लोग ही वहाँ प्रार्थना कर रहे थे। उन लोगों की महारानी को देखने में कोई रुचि नहीं थी। यही कारण है कि भीड़ होने के बावजूद परमात्मा उनसे दूर रहता । परमात्मा तो आपके स्वभाव में है, आपका स्वभाव सिद्ध अधिकार है। लेकिन यह आपका दुर्भाग्य ही है कि वो आपसे दूर है । परमात्मा आपके भीतर है । आप उसे जितना अपने करीब समझोगे, वह उतना ही आपके निकट होगा । ताली दोनों हाथों से बजती । इसलिए परमात्मा की प्यास जगानी है तो अपने भीतर की ओर चलो। जितना भीतर चलोगे, परमात्मा तुम्हारे उतने ही निकट आता जाएगा। भले ही आप कितना ही बड़ा पद प्राप्त कर लें, उसकी प्रतिष्ठा कुर्सी तक ही सीमित रहेगी। आपने कुर्सी छोड़ी और प्रतिष्ठा गई। असली पद तो परमात्मा का है। असली प्रतिष्ठा तो उसी की है। अपनी सारी पूजी-प्रतिष्ठा देकर भी परमात्मा के समीप जा सको, तो चले जाना, यह तुम्हारी सबसे अहम् उपलब्धि होगी। परमात्मा को पा लिया तो फिर पद-प्रतिष्ठा तुम्हारे रास्ते में तुम्हारा इंतजार करते नजर आएंगे। अपने भीतर जाओ और परमात्मा को पायो, परमात्मा हो जायो । तुम्हारे पास है तुम्हारी सम्पदा, तुम्हारा परमात्मा । (६० ) For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपना मालिक भारतीय संस्कृति ग्रहिंसा और अपरिग्रह की समर्थक और पोषक रही है । यहां हमें अहिंसा की चरम परिणतियां भी मिल जाएंगी और अपरिग्रह के चरम प्रतिमान भी उपलब्ध हो जाएंगे । किन्तु जहां हमें अहिंसा और अपरिग्रह के चरम प्रतिमान- मापदंड उपलब्ध होंगे वहीं, हमें हिंसा और परिग्रह के चरम उत्कर्ष भी नजर आएंगे । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति निरन्तर जीवन के विरोधाभासों से भरी नजर आती है । हिंसा की दृष्टि से देखें तो यहां यज्ञ वेदी पर होने वाली हिंसा और पशुओं की बलि का विरोध करने वाले महावीर और बुद्ध हुए और दूसरी ओर उन्हीं की अहिंसा को विरासत में लेते हुए ( ६१ ) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्मा गांधी ने देश को आजादी दिलाई। पर जहां ये अहिंसा के आदर्श हैं वहीं सम्पूर्ण संसार के किसी द्वीप और महाद्वीप पर, उतनी ज्यादा हिंसा और युद्ध नहीं हुए, जितने भारत में हुए । ___ हम सारे विश्व के युद्धों की व्याख्या करें या इतिहास को देखें तो हम पाएंगे कि केवल भारत में ही पिछले ढाई हजार वर्षों में पांच हजार से अधिक युद्ध हुए हैं। कोई भी एक युद्ध हजारोंलाखों लोगों के संहार का कारण बनता हैं। करोड़ों की सम्पत्ति का नुकसान करता है। युद्ध तो आखिर युद्ध है। अगर ये पांच हजार युद्ध न हुए होते तो आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता । रूप ही कुछ और होता। तब भारत अमेरिका और रूस का याचक नहीं, वरन उनका बादशाह, नियंता होता । एक संस्कृति के निर्माण में बीस वर्ष लगते हैं लेकिन एक युद्ध बीस संस्कृतियों को नष्ट कर देता है। यदि ये पांच हजार युद्ध न होते तो भारत की संस्कृति एक लाख गुणा अभिवद्धित होती। महावीर अहिंसा की बात करते रहे, लेकिन उनके समय में युद्ध भी होते रहे। जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव जब परम ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उन्होंने अपनी पहली देसना अहिंसा की दी। लेकिन ये उनकी, एक तीर्थंकर की विडम्बना रही कि उन्हीं ऋषभदेव के पुत्र और पौत्र आपस में लड़ते-झगड़ते रहे। भरत और बाहुबलि के बीच युद्ध लड़ा गया। हिंसा और अहिंसा का विरोधाभास भारतीय संस्कृति में निरंतर चलता रहा है। ऐसा ही विरोधाभास परिग्रह और अपरिग्रह में रहा है । . ऋषभदेव ने अपना सर्वस्व त्याग दिया और परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, वहीं उनके पुत्रों ने परिग्रह को बटोरने में युद्ध का (६२ ) For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहारा लिया। जिसे ऋषभदेव ने छोड़ दिया, उसे प्राप्त करने को उनकी संतानें लड़ने लगी। विश्व-विजय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते ऐसा हुआ। हम अपरिग्रह के दो आदर्श देखते हैं : पहले महावीर और दूसरे महात्मा गांधी। महावीर ने तो पूरी तरह नग्नता धारण की । उन्होंने समझ लिया कि वस्त्रों को रखना भी परिग्रह है। इसलिए वस्त्र भी त्याग दिए। महात्मा गांधी ने लंगोटी धारण की। महावीर के अपरिग्रह को गांधी ने फिर से जीवित किया। अगर महावीर के युग में गांधी हुए होते तो निश्चित रूप से वे नग्न रहते और गांधी के युग में महावीर होते तो वे भी लंगोटी धारण करते । जब महावीर हुए थे, तब हिन्दुस्तान की आधी से ज्यादा आबादी नग्न रहती थी और जंगलों में रहती थी। आधी आबादी गरीब और नग्न रहती हो तो महावीर तो यही मोचेंगे कि मैं कैसे कपड़े पहनू।। विश्व में आज भी कुछ आदिवासी इलाके ऐसे हैं जहां आदिवासी नग्न रहते हैं। पुरुष ही नहीं महिलाएं भी। स्त्री-पुरुष जहां नीचे का भाग मामूली-सा ढकते हैं वहीं औरतें ऊपरी भाग खुला ही रखती हैं। अफ्रीका में महिलाएं अपने ऊपर का हिस्सा खुला रखें तो चिंता की बात नहीं है लेकिन हमारे यहां वैसा नहीं किया जा सकता। यहां तो महिला को ऊपर का हिस्सा ढंक कर रखना ही पड़ेगा । जिस युग में महावीर हुए, उस समय आधी से अधिक जनता नग्न रहती थी, इसलिए महावीर का नग्न रहना समझ में आ सकता है। For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए महावीर का जो अपरिग्रह है, परिग्रह को त्यागने की बात है, वह अप्रतिम है। ऐसा ही आदर्श गांधी का है, जिन्होंने दिखावे को लंगोटी नहीं पहनी। वे लंदन की संसद में भी उसी लंगोटी में गए, उसी अंगोछे में । लेकिन जहां अपरिग्रह के ये दो आदर्श हैं, वहीं परिग्रह के लिए दो नाम ले सकते हैं । पहला चक्रवर्ती भरत और दूसरा सम्राट सिकन्दर । भरत और बाहुबलि के बीच युद्ध हुआ था। भरत को समझ में आया कि वह विजय भला क्या विजय होगी, जिसमें भाई को हराना पड़े। भाई ही भाई पर सुदर्शन चक्र चलाए। उस विजय में नैतिकता कहां है ? बुजुर्गों ने जब भरत को समझाया तो उन्हें समझ में आया। सारी दुनिया समझती है कि राजनीति के छल प्रपंच सिर्फ महाभारत काल में ही हुए। छल-प्रपंच तो अवतारों/ तीर्थंकरों के समय भी हुए और आज भी जारी हैं। ___ इसी तरह दूसरा नाम सम्राट सिकन्दर का लें। सारे यूरोप को जीतते हुए जब सिकन्दर हिन्दुस्तान पहुंचा तो उसे कोई भी सम्राट या नरेश पराजित नहीं कर पाया। लेकिन वह यहां की नारियों से हार गया। सिकन्दर जब भोजन करने बैठा तो नारियों ने थाल ढंककर उनके आगे रख दिया। सिकन्दर ने जब थाल से कपड़ा हटाया तो उसका चेहरा तमतमा उठा। वह बोला-'यह क्या ? यह तो सोना-चांदी और हीरे हैं । मुझे तो रोटी चाहिए।' नारियां भी कम न थी। उन्होंने कहा-'क्यों ? तुम ये सोना-चांदी ही तो लेने आए हो। रोटी तो तुम्हारे देश में भी थी। एक बात याद रखो सिकन्दर ! तुम यहां की धन-दौलत बटोरने के लिए जिस तरह यहां की जनता को उजाड़ रहे हो, एक दिन तुम ( ९४ ) For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ऐसे ही तड़फोगे। ये धन-दौलत यहीं पड़ा रह जाएगा। कहते हैं कि इस घटना के छह माह के भीतर सिकन्दर की मृत्यु हो गई। ___ अपरिग्रह के दो आदर्श महावीर और गांधी। परिग्रह के भी दो आदर्श भरत और सिकंदर । महावीर, गांधी, भरत, सिकन्दर सभी चले गए। अपने साथ क्या ले गए ? सब कुछ यहीं तो पड़ा है। आदमी का व्यामोह ही ऐसा है कि वह सोचता है ये मेरा माल, ये मेरा मकान, परिवार, महल-महराब । आखिर हम किस को वास्तव में अपना माल कहें। आप और हम जहाँ बैठते हैं, उतनी-सी जगह में कम से कम दस लोग दफनाये जा चुके हैं या चिताएं जल चुकी हैं। धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ ऐसा नहीं हरा हो । जहान में ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ अमरता की निशानी हो । सारी धरती श्मशान या कब्रिस्तान है, जिसे हम अपना स्थान कहते हैं । क्या पता, कहाँ, किसकी कब्र है ? लेकिन हम लोग कहते हैं, ये मेरी जमीन है । जमीन की सीमा बांधते हैं । जमीन के लिए लड़ते-झगड़ते हैं। एक दिन उसी जमीन को छोड़कर चले जाते हैं। हमारा शरीर राख बन जाता है । जीवन की सारी अकड़ माटी हो जाती है । परिग्रह के चलते कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि माल तो बचता जा रहा है और बटोरने वाला मालिक खोता जा रहा है । एक बार ऐसा हुआ कि एक मकान में आग लग गई । सेठ बाहर गया हुआ था। सूचना मिली तो दौड़कर आया। उसने देखा कि घर का सामान बाहर रखा था। नौकर ने अक्लमंदी का परिचय दिया था। सेठ ने चैन की सांस ली कि चलो सामान बच गया । फिर एकाएक उसने पूछा कि मेरा बेटा कहां है, जो भीतर के तीसरे कमरे में सोया ( ५ ) For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था ? नौकर ने कहा कि उसे नहीं बचा सका, वो तो आग में जल गया। इतना सुनना था कि सेठ अपने बाल नोचने लगा और विलाप करने लगा। माल तो बच गया, मगर मालिक खो गया । परिग्रह और कुछ नहीं है, दूसरे के माल को अपना समझना ही परिग्रह है। दूसरे पर मालकियत की भावना ही परिग्रह है। लोग अपरिग्रह और परिग्रह का अर्थ 'छोड़ने' और 'बटोरने' से लगाते हैं। एक आदमी बहुत सारा परिग्रह रखकर भी अपरिग्रही हो सकता है और दूसरा सब कुछ त्याग कर भी परिग्रही हो सकता है । अगर यह कहो कि ये कपड़ा मेरा है तो एक कपड़ा रखकर भी परिग्रही हो जाओगे और लाखों की सम्पदा है, तुम कहते हो प्रभु का है, तो अपरिग्रही हो जाओगे। प्रभु का उपयोग चल रहा है । सब कुछ करने वाला वो है । ममत्व का, ममकार का भाव न होगा तो वो परिग्रही भी अपरिग्रही होगा । याज्ञवल्क्य ने इसीलिए तो जनक की परीक्षा ली थी, तो जनक ने अन्तिम शब्द में यही कहा था कि मिथिला जल रही है तो मेरा क्या जल रहा है। आप तो अपने अमृत वचन मुझे प्रदान करें । मिथिला को बचाने वाले और बहुत हैं। यहां तो मैं खुद जल रहा हूं। बाहर कोई प्राग ऐसी नहीं है जो अन्तस् को जला सके, वह तो भीतर जल रही है। इसे क्रोध और वासना की आग कह सकते हैं। हर व्यक्ति भीतर-ही-भीतर जल रहा है। मिर्ची ज्यादा खा ली तो उसकी जलन शांत करने के उपाय हैं । लेकिन जहां हमारी आत्मा और जीवन ही जल रहा है, वहां कोई दवा काम न आएगी। अग्निशामक कम्पनियां काम न आएगी। अपरिग्रह को ठीक से समझना जरूरी है। मेरी समझ से तो अभी तक महावीर के अपरिग्रह को ठीक से समझा नहीं गया है । (६६ ) For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमने मात्र इतना ही समझा कि जो गृहस्थ में रहता है वह परिग्रही है और जो साधु-संन्यासी हो गया, वह अपरिग्रही । अगर आप इसे ही परिग्रह और अपरिग्रह की परिभाषा समझते हैं तो आप गलती कर रहे हैं । मैंने तो ऐसे-ऐसे गृहस्थ देखे हैं जो सिर्फ एक अंगोछा पहनकर बारह महीने निकालते हैं और ऐसे साधु भी देखे हैं जिनके पास चीवरों, कपड़ों और पातरों से अलमारियां भरी हैं । जो जितना बड़ा साधु. उतना ही बड़ा परिग्रह । एक तरह का परिग्रह हो तो सोचा जाए । उनके परिग्रह तो अनेक तरह के हैं । पातरों की बात करें तो गृहस्थ के पास एक अलमारी पात्र होंगे, लेकिन मैंने ऐसे साधु देखे हैं जिनके पास इतने वस्त्र हैं कि किसी महिला के पास भी न होंगे। अब तक यही विरोधाभास चल रहा है लोग समझते रहे कि गृहस्थ परिग्रही और साधु अपरिग्रही । मूल बात यह है कि महावीर ने कभी वस्तु को परिग्रह नहीं कहा । वस्तु को परिग्रह समझोगे तो कितना त्याग करोगे। लोग नग्न मुनि हो जाते हैं। कपड़े त्याग देते हैं। ऐसे लोग कहेंगे कि नारी इसलिए मुक्ति नहीं पा सकती, क्योंकि वह निर्वस्त्र नहीं हो सकती। हमने मुक्ति के सारे आधार और दारोमदार को वस्त्रों पर डाल दिया । वस्त्र उतारें, तभी वीतरागी-अपरिग्रही बन पायोगे । जो लोग वस्त्रों के परिग्रह को ही परिग्रह मानते हैं उनसे मेरा कहना है कि आत्मा के लिए तो शरीर भी परिग्रह है। हमारे शास्त्र, किताबें, मंदिर, मन, मानसिकता, सभी तो परिग्रह हैं। ___ जब हम वस्तुओं के परिग्रह पर अंकुश लगाना चाहते हैं तो फिर विचारों पर भी अपरिग्रह की कैंची चलानी चाहिए । व्यक्ति की महत्वाकांक्षा रहती है कि 'मैं इतना बटोरू', दूसरा कहता है- 'मैं ( ९७ ) For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोडू'। एक बटोरने में लगा है, दूसरा छोड़ने में । हालत यह है कि आदमी न तो बटोर कर कुछ पा रहा है और न ही छोड़कर । तुम सब कुछ छोड़ दोगे, लेकिन भीतर का गाली-गलौच वैसे-का-वैसा ही रहेगा। जबान तो वैसे ही आग और जहर उगलेगी। नाम भले ही शांतिनाथ रख लो या शीतलनाथ । अशांतिनाथ नाम रखकर अशांति फैलामो तो ठीक है, लेकिन शांतिनाथ नाम रखकर अशांति फैलाते हो, यह ठीक नहीं है । शीतलनाथ नाम रख कर क्रोध बरसाते हो, यह गलत है। आदमी धन तो छोड़ देता है लेकिन मन से उसकी मालकियत की भावना नहीं जाती। बटोरना तो जारी रहता है । साधु-संत धन नहीं बटोरते, लेकिन अनुयायी बटोरते रहते हैं । वह अपने समुदाय को बढ़ाता है । बटोरना जारी रहेगा। चेले बनाएगा। जितना ज्यादा चेले, उतना ही संतोष । किसी व्यक्ति द्वारा करोड़ रुपए कमा लेने पर भी उसका मन नहीं भरता। यही हालत साधु की हो जाती है । चेलों की संख्या बढ़ने के बावजूद तृप्ति नहीं होती। दूसरों को उपलब्ध करवाने में जुटे हैं, लेकिन खुद ही उपलब्ध नहीं है। अनुयायी बटोरेंगे, बटोरने का यह भाव ही परिग्रह है। करोड़पति आदमी करोड़पति होकर भी उस रुपये के प्रति पकड़ नहीं रखता तो वो निश्चित रूप से अपरिग्रही है । घर में चार बर्तन होते हैं तो वे भी आपस में भिड़ेंगे, आदमी का भी ऐसा हाल है। एक आदमी के बारे में बताऊं, जो मुझे कहता है कि मैं जब से आपके सम्पर्क में आया हूं, मुझे लगता ही नहीं कि मैं घर में हूं और कोई खटपट हो रही है। मैंने घर में रहते हुए भी यह मान लिया कि मैं घर में नहीं हूं। ऐसा करने से अब कोई खटपट होती भी है तो मुझे सुनाई नहीं देती क्योंकि मैं घर (६८ ) For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हुं ही नही। मुझ पर उस खटपट का असर ही नहीं होता। मेरे मन में एक बात घर कर गई है कि मेरे पिताजी कमाते-कमाते मर गए। जो कुछ बटोरा, वो छोड़कर चले गए। अब मैं सोचता हूं कि फिर मैं क्यों कुछ पोछे छोड़कर जाऊं । मैं जितना कमाता हूं, जरूरत के खर्च के अलावा दान कर देता हूं। जरूरतमंद तक पहुंचा देता हूं। आप ऐसा न भी करें तो चलेगा । एक प्रण करें कि महीने में एक दिन जिस भाव लाया, उसी भाव माल बेचूंगा। लाभ न कमाऊंगा? यह एक महान सेवा होगी। अपरिग्रह का आचरण होगा। दीपावली पर आप घर में रंग-रोगन करवाते हैं। इस बार दीपावली पर एक संकल्प करिये कि जो सामान पूरे साल उपयोग में आया उसे किसी जरूरतमंद को दे देंगे। एक साल नहीं तो तीन साल तय कर लीजिये । यह अपने आप में अपरिग्रह का आचरण होगा। महावीर ने कहा-मुच्छा परिग्गहो । महावीर की दृष्टि में मूर्छा ही परिग्रह है और अमूर्छा ही अपरिग्रह । किसी वस्तु को रखने या रखने से परिग्रह नहीं होता न वस्तु के प्रति रहने वाली पकड़ से ही परिग्रह-अपरिग्रह होता है । यह मेरा, यह तुम्हारा, यही परिग्रह है । परिग्रह का अर्थ है मेरे का आरोपण, मालकियत की भावना । मैं दूसरे का मालिक बनू। दूसरे का मालिक वही बनना चाहता है, जो खुद अपना मालिक नहीं बन सकता । पति अपनी पत्नी का मालिक बनना चाहता है। पिता अपने पुत्र का मालिक बनना चाहता है। गुरु अपने शिष्य का मालिक बनना चाहता है। पत्नी, पुत्र, शिष्य सब परिग्रह बन गए। ( ६६ ) For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरन् व्यक्तियों का वह कुछ लोगों के हम केवल वस्तुओं का परिग्रह नहीं करते, भी करते हैं । आदमी सोचता है, ये मेरा मित्र । बीच अपना जीवन गुजार देता है । अरे, सौ करोड़ लोग हैं, उनसे भी तो मैत्री - संबंध जोड़े जा सकते हैं । आदमी के लिए विश्व कोई विश्व नहीं है । सामाजिकता कोई सामाजिकता नहीं है । उसका समाज सौ लोगों का है । कमाना प्राजीविका भी इतने ही लोगों के मध्य है । मूल बात है आदमी की भावना | आदमी कहता है - मैं इसका मालिक | कौन, किसका मालिक ? कोई आदमी गरीब है और नौकरी करता है तो सेठ कहता है, हम इसके मालिक ! कभी पासा पलटे तो सेठ नौकरी करता नजर आए ! कौन किसका मालिक ! सब में वही आत्मा है । उसी परमेश्वर का अंश है । " अप्पा सो परमप्पा" तो फिर कौन किसका मालिक ? ठीक है, भाग्य का मारा है, इसलिए गरीब है । वह अपनी सेवाएं देता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारा गुलाम हो गया । और ये बड़ी अजीब बात है कि प्रादमी लाख रुपये का दान दे देगा लेकिन अपने नौकरों से अच्छा व्यवहार नहीं करेगा । यों तो लाखों रुपए का दान करोगे लेकिन नौकर बीमार पड़ गया और कुछ देरी से आया तो उससे हजार सवाल-जवाब करोगे । फिर मानवता कहां रही ? करुणा कहां रही ? सच में तो एक बकरी, गाय और व्यक्ति के प्रति वही करुणा कर सकता है जो पहली करुणा अपने नौकर के प्रति करता है । करुणा-धर्म की शुरुआत अपने नौकर के प्रति सहृदय होकर की जा सकती है । असली सेठ वही है जो अपने नौकर को भी अपने समान सेठ बना दे । भगवान वो नहीं है जो भक्त को हमेशा भक्त बनाए रखे । असली भगवान तो वो है जो भक्त को भी अपने ( १०० ) For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा भगवान बना दे। असली गुरु वह है जो शिष्य को गुरु बना दे। दूसरों को अपने से भी आगे बढ़ा दे, वही असली सद्गुरु होता है। दूसरों को गुलाम वही बनाता है जो अपना मालिक नहीं हो सकता। जो व्यक्ति स्वयं भरा हुआ नहीं है, वह दूसरों को गुलाम बनाकर अपने को भरना चाहता है। एक बहुत बड़ा फकीर हुआ है, सिकन्दर का गुरु डायोजनीज । उसके बारे में कहा जाता है कि वह एक बार जंगल में नग्न खड़ा था। उन दिनों गुलामों की खरीद-फरोख्त हुआ करती थी । बलिष्ठ लोगों को बटोरकर गुलाम के रूप में बेचा जाता था। डायोजनीज जब जंगल में खड़ा था तो कुछ लोग उधर से गुजरे। उन्होंने देखा कि यह बलिष्ठ आदमी अपने काम का है। इसे बेचने से अच्छे दाम मिलेंगे। उन लोगों ने डायोजनीज को घेरना शुरू किया तो उसने पूछा- 'तुम लोग मुझे क्यों घेर रहे हो ? मैं तो हर घेरे से बाहर उन लोगों ने कहा-'हम तुम्हें गुलाम बनाना चाहते हैं ।' डायोजनीज बोला-'हम तो खुद हमारे मन के मालिक हैं । फिर भी अगर तुम चाहते हो तो हम कुछ देर के लिए तुम्हारे गुलाम बन जाएंगे।' वे लोग उसे शहर ले आए और बोली लगाने लगे तो एक आदमी ने मोटी बोली लगाई और बोला -'ये मेरा गुलाम है ।' डायोजनीज बोला - 'कौन, किसका गुलाम ? तुम मेरे पीछे पाए हो, मेरी बोली मैं खुद लगाऊंगा। एक मालिक खुद बिकने आया है, बोलो, कौन खरीदने वाला है ।' सब चुप थे। बोलती बंद हो गई थी उनकी। दुनिया में गुलामों को तो हर कोई खरीद सकता है, ( १०१ ) For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन मालिक को कोई नहीं खरीद सकता। वे मन के मालिक होते हैं। मन के मौजी। अपना मालिक खुद । दूसरों को गुलाम वे बनाते हैं जो अपने मालिक नहीं हो पाते। पहला सूत्र यही है अपरिग्रह का। परिग्रह वो रखना चाहता है जो अपनी आत्मा को नहीं भर पाया। प्रात्मा को भला भरा जा सकता है ? दूसरी मूलभूत बात यह है कि अपरिग्रह को आचरण में लाने के लिए कई त्याग करने पड़ते हैं। जब आदमी परिग्रह के नाम पर किसी से अपने को बांधता है तो खुद भी उससे बंध जाता है । जिसे हम बांधते हैं, वह नहीं बंधती। हम खुद उससे बंध जाते हैं । आपने लाख रुपये बटोरे तो आप उस लाख रुपये से बंध गए। आपकी नींद हराम हो जाती है कि कैसे ये एक लाख रुपये दो लाख में बदल जाएं । आदमी जिस चीज को बांधना चाहता है, वो भले ही उससे बंधे, या न बंधे, परंतु आदमी जरूर उससे बंध जाता है । एक फकीर हुआ है बायजीद । एक बार वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि एक व्यक्ति मोटे तगड़े बैल को रस्सी से बांध कर, खींच कर कहीं ले जा रहा था। उसने साथ चल रहे अपने शिष्यों से कहा कि बतायो गुलाम कौन है ? शिष्यों ने तुरंत जवाब दिया- 'बैल, और कौन ?' बायजींद ने उस रस्सी को काट दिया । अब बैल भागने लगा और आदमी उसके पीछे । बायजीद बोला'बताओ गुलाम कौन ?' असल में वो आदमी उस बैल से बंधा है। बैल के बंधी रस्सी तो आपको नजर आती है लेकिन बैल ने जिस रस्सी से आदमी को बांध रखा है, वो दिखाई नहीं देती। एक चोर सींखचों के पीछे बंद है। पुलिस वाला खुला बैठा है। लेकिन गहराई में जानो तो पुलिसवाला भी स्वतंत्र नहीं है । चोर ( १०२ ) For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो भाग भी सकता है. पुलिसवाला वहां से नहीं हट सकता । अपनेअपने बंधन हैं । आदमी कहता है, क्या करू संन्यास तो ले लू ं, लेकिन मेरे घरवालों से पूछो तो वे कहेंगे, कल का घर वालों ने नहीं बांध रखा । श्रादमी । परिवार का क्या होगा ? लेता आज ही संन्यास ले ले खुद ही बंधा हुआ है । यही परिग्रह है । अब तक यही समझा गया कि रुपयों का परिग्रह ही परिग्रह है । मैं कहता हूं, आदमियों का परिग्रह भी परिग्रह ही है । और आदमी बंध भी जाता है । तीसरी बात यह है कि आदमी कितना भी बटोर ले, उसे तृप्ति नहीं होती । अपरिग्रह के सम्बन्ध में तीन बिन्दु हमेशा याद रखें। पहली बात, आत्मा कोई वस्तु नहीं है कि इसे किसी वस्तु से भरा जा सके । दूसरी बात, आदमी जब किसी चीज को बांधता है तो खुद भी उससे बंध जाता है । तीसरी बात, जो आदमी अपना मालिक बन गया वही वास्तव में अपरिग्रही है । आप संपूर्ण इतिहास उठाकर देख लें, प्रादमी ने जितना भी पाया, उससे उसका मन नहीं भरा । मन का पात्र तो रीता ही रहा । आप कितना भी बटोर लें, मन और बटोरने की बात करेगा । जब तक कोई वस्तु नहीं मिलती, उसकी उत्सुकता बनी रहती है और जैसे ही वह वस्तु मिल जाती है, उसको पाने का मजा भी जाता रहता है । जब तक शादी नहीं हुई थी, पत्नी की चाह थी। शादी हो गई तो पुत्र की चाह पैदा हो गई । पहले स्कूटर की चाह थी, स्कूटर मिल गया तो कार की इच्छा होने लगी । यही तो व्यक्ति की परिग्रह की बुद्धि है । हमें वस्तुत्रों को नहीं, उनके परिग्रह के विचार को छोड़ना है । यह भावना चली गई तो भले हो अगल-बगल सारी ( १०३ ) For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चीजें रहें, आप अपरिग्रही हो सकते हो। तब महावीर यही कहेंगे कि स्थूलिभद्र चाहे वेश्यालय में चले जाएं, और वहां अपना वर्षावास करें तो भी वे बेदाग ही रहेंगे। आज के युग में अगर स्थूलिभद्र हो जाएं तो उन्हें लोगों के कोप का भाजन होना पड़े। लोग कहदें-यह कोई साधु है, जो वेश्यालय में प्रवचन कर रहा है। अगर कोई व्यक्ति इतना मुक्त हो गया है कि वेश्यालय में बैठ कर प्रवचन कर रहा है तो समझो वो किसी मंदिर में बैठा है। जीवन का अनुभव यही बताता है कि कितना भी प्राप्त कर लो, तृप्ति नहीं होती इसलिए मैंने ये तीन बिन्दु बताएं हैं । उन्मुक्त जीवन के लिए, अपनी आजादी को बढ़ाने के लिए ये सूत्र जीवन के हर काम पर स्मरण रखो। बस, इतना काफी है। ( १०४ ) For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना प्रांचल फैलाएं जिसका जितना अांचल होगा, उसको उतनी ही सौगात मिलेगी। अगर किसी को सौगात कम मिल रही है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सौगात कम है। सौगात तो भरपूर बरस रही है । सौगात प्राप्त करने वाले का प्रांचल ही छोटा है। परमात्मा का अमृत तो दिन-रात, आठों-याम, प्रति-पल बरस रहा है, लेकिन हमारा आंचल ही इतना छोटा और संकुचित है कि आकाश से बरसने वाला अमृत हमारे अांचल में आ ही नहीं पाता । व्यक्ति की आंखें बंद हों तो सूरज उगने और भोर होने के दृश्यों का अवलोकन कैसे कर पाएगा? सूरज तो रोज उगता है, ( १०५ ) For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोर रोज होती है। हमारी अांखें ही बंद हैं, इसलिए उन्हें नहीं देख पातीं। आंखें बंद हों, हृदय के द्वार न खुले हों तो उनमें रोशनी कैसे भरी जा सकती है। ऐसे में तो प्रात्मा हृदय के द्वार तक आकर भी लौट जाएगी। जब तक परमात्मा को पहचानने की प्रांख नहीं है, तब तक ऐसा ही होता रहेगा । ऐसा नहीं है कि परमात्मा कोई सोने का मुकुट पहनकर हमारे सामने आएगा। परमात्मा कोई हीरों की चुनरी ओढ़ कर भी नहीं आने वाला। वह तो किसी भी रूप में आ सकता है। अब तक यही तो हुआ है। महावीर जब किसी के द्वार पर पहुंचे तो उन्हें परमात्मा के रूप कोई नहीं देख पाया। शायद लोगों ने उन्हें भिखारी ही समझा। महावीर को तो वही पहचान सकता है, वही परमात्मा को देख सकता है, जिसकी आंखों में चंदनबाला का नूर है । जब तक हमारे मन में चंदनबाला नहीं जन्मेगी, तब तक महावीर हमें कोई भिखारी, भिक्षु या जादूगर ही नजर आएंगे। महावीर के पास जाकर चंदनबाला और गौतम ने तो परमात्मा को देख लिया, लेकिन गौशालक ने तो महावीर में मात्र तेजो-लेश्या ही देखी। ऐसा नहीं है कि केवल भगवान कृष्ण में ही भगवत्ता हो । यदि मनुष्य के पास कृष्ण की भगवत्ता भरी आंखें हैं तो उन्हें सुदामा में भी वही परमात्मा दिखाई देगा। हमारा अांचल विराट हो जाए, हृदय की प्रांख खुल जाए तो मीरां के पांव घुघरू बांधकर थिरक उठेगे । राजुल की प्रांखें गिरनार की ओर उठ जाएंगी। यह तो हमारी आंखों और हृदय पर निर्भर है। सब कुछ इस पर ही आधारित है। ( १०६ ) For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता को चुरा ले जाने वाले रावण को राम में भगवत्ता के दर्शन नहीं हुए, लेकिन नौका से लोगों को पार उतारने वाले केवट को प्रभु के दर्शन हो गए । अहिल्या का सौभाग्य था कि प्रभु चरणों की धूल मिली। अपने नारी रूप को उसने पूनः पा लिया। राम के प्रति उसके मन में प्यास थी। उसने वर्षों इंतजार किया था, राम के चरणों की धूल का। परमात्मा के आधार और प्रभुता के मूल्य स्वयं प्रभु में नहीं, प्रभु को देखने वाले की दृष्टि में है । इसीलिए मैंने कहा कि हमारा प्रांचल जितना विराट होगा, हमें सौगात उतनी ही अधिक मिलेगी। हम जीवन को जितना अधिक विराट बनाते जाएंगे, विचारों को विराट बनाते जाएंगे, अपने विचारों में सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की अवधारणा को जितना अधिक संजीवित करते जाएंगे, हम स्वयं उतने ही ज्यादा सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् होते चले जाएंगे। जीवन का निर्माण या जीवन का दर्शन मोटी बातों से नहीं होता, वह तो छोटे-छोटे कृत्यों से होता है। दूसरों के लिए धर्म और अध्यात्म का अर्थ चाहे कुछ भी हो, लेकिन मैंने बहुत से शास्त्रों को पढ़ने के बाद, जीवन को जीने के बाद यही उपसंहार निकाला है कि धर्म और अध्यात्म का सम्बन्ध व्यक्ति के छोटे-छोटे कृत्यों से है । जिन कृत्यों को प्रादमी नजरअंदाज कर देता है, मेरे लिए उन कृत्यों का महान मूल्य है। शायद आपके लिए ताश खेलने का कोई अर्थ न होगा, उठने बैठने का अर्थ न होगा। वास्तव में इन सबका बड़ा अर्थ है। हम अपनी चेतना को, अपने जीवन को जितनी संचेतना, जागरुकता के साथ जीते चले जाएंगे तो छोटे-छोटे कृत्य भी हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाएंगे। ( १०७ ) For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव में व्यक्ति के लिए उठना, बैठना, सोना, यहां तक कि भोजन करना भी धर्म हो सकता है । ध्यानपूर्वक बैठ गए तो बैठना भी धर्म हो जाएगा । बिना ध्यान बेहोशी में बैठे तो वह अधर्म हो सकता है । मनुष्य जीवन भर जो पाप करता है, बेहोशी के कारण करता है, अज्ञान के कारण करता है । जीवन में अज्ञानता व बेहोशी के कारण दस लाख पाप करलो और होश में दो पुण्य भी कर लोगे तो वे सारे पाप समाप्त हो जाएंगे । मेरी प्रिय कहानी है, एक बार भगवान बुद्ध किसी गांव से गुजर रहे थे । उन्हें दूसरे गांव जाना था । उन्होंने राहगीरों से पूछा कि मुझे अमुक गांव जाना है, कौनसा मार्ग ठीक रहेगा ? राहगीरों ने बताया कि सबसे नजदीक का रास्ता तो वही है, जिस पर आप चल रहे हैं, लेकिन इस मार्ग पर कोई जाता नहीं है । कारण इस मार्ग पर एक डाकू अंगुलिमाल रहता है जिसने लोगों की हत्या कर उनकी अंगुलियां देवी को चढ़ाने की कसम ले रखी है । वह अब तक सौ निन्याववे लोगों की हत्या कर चुका है और उसकी कसम पूरी होने में अब एक आदमी ही शेष है । आप इस मार्ग से मत जाइए । पर बुद्ध उसी मार्ग पर रवाना हो गए । अंगुलिमाल ने दूर से उन्हें आते देखा तो बड़ा खुश हुआ । उनकी मनौती जो पूरी होने जा रही थी । जैसे ही बुद्ध समीप आए, वह बोला - ' रुक जाओ ।' बुद्ध बोले- 'मैं तो रुका हुआ हूं, तुम रुक जाओ ।' अंगुलिमाल चौंका । यह आदमी तो उसे कह रहा है कि रुक जाओ, मैं तो रुका हुआ ही हूं और खुद को रुका हुआ कह रहा है, जबकि वह चल रहा है । अंगुलिमाल ने बुद्ध से कहा - 'पहले तो मैं तुम्हें इसलिए मारना चाहता था क्योंकि मुझे तुम्हारी अंगुली काटनी थी, लेकिन अब मैं तुम्हें इसलिए मारूंगा क्योंकि तुम झूठ बोल रहे हो। तुम कह रहे ( १०८ ) For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो कि मैं रुक जाऊं, अरे, मैं तो रुका हुआ ही हूं, चल तो तुम रहे हो।' बुद्ध मुस्कुराए और बोले- मैं तो वास्तव में रुका हुआ हूं, निरंतर हिंसा की राह में तो तुम चले जा रहे हो, इसलिए तुमसे कह रहा हूं, रुक जाओ। मैं तो रुका हुआ ही हूं। जिसका मन रुक गया, वो आदमी रूक गया, जिसका मन बह रहा है, वो चल ही रहा है । गृहस्थ वो नहीं है, जो संसार में बैठा है । गृहस्थ तो वो है, जिसके पांव, एक मकान में टिके हैं, लेकिन मन इधर-उधर घूम रहा है। मुनि वो है, जिसके पांव तो चल रहे हैं, लेकिन मन एक जगह टिका हुआ है । जिसका मन टिक गया, वो मुनि और जिसका मन बह गया वो संसारी।' ___महावीर ने बहुत अच्छा शब्द दिया- मुनि । वास्तव में मुनि का अर्थ है, जिसका मन मौन हो चुका हो। देह से देहातीत होना इसी का नाम है। मरने के बाद तो हर किसी को परमात्मा मानते ही हैं, जीते जी किसी को मरमात्मा मानो तो शायद कुछ उपलब्ध कर भी सको। ऐसा नहीं है कि महावीर को लोगों ने आसानी से भगवान मान लिया हो। बहुत से ऐसे लोग हुए जिन्होंने महावीर को पाखंडी कहा, तीर्थंकर नहीं माना। लेकिन महावीर के निर्वाण के बाद लाखों-लाख लोग उन्हें भगवान मानकर पूजने लगे। उन्हें भगवान मान लिया, इसीलिए कहता हूं, जीते जी चरण पकड़ लो तो पार लग जानोगे। मरने के बाद धूप-दीप जलाते रहो, सिर्फ धुआं होगा। मरने के बाद सब शून्य है और ऐसा आदमी, बुद्ध जब अंगुलिमाल को ललकारे कि उठा खड़ग, मार डाल मुझे तो इससे आप क्या अर्थ लगाएंगे ? बुद्ध ने कहा कि भले ही मुझे मार डाल ( १०६ ) For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन एक बात ध्यान रखना, मुझे मारने के चक्कर में कहीं तू खुद न मर जाए। अंगुलिमाल ने बुद्ध को मारने के लिए खड़ग उठाया, बुद्ध की अांखों से करुणा और दया की वो अजस्र दृष्टि बरसी की अंगुलिमाल का मानस ही बदल गया। जिस खड़ग से वह बुद्ध को मारने चला था, उससे अपने ही बाल काट लिये, डाकू मर गया, भिक्षु पैदा हो गया । वह अब डाकू अंगुलिमाल नहीं रहा । बुद्ध रवाना हो गए। अंगुलिमाल उनके पीछे सिर झुकाकर चलने लगा। दोनों शहर में पहुंच गए। बुद्ध विहार में उन्होंने डेरा डाला। उधर पूरे शहर में पहले से चर्चाओं का बाजार गर्म था कि आज बुद्ध अंगुलिमाल के हाथों मारे जाएंगे, लेकिन जब उन्होंने बुद्ध को जीवित देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वहां के राजा अजातशत्रु ने बुद्ध के सकुशल लौटने की बात सुनी तो दौड़कर उनके दर्शन के लिए बुद्ध-विहार पहुंचा। उसने बुद्ध को प्रणाम किया और पूछा-भंते ! सुना है, आप अंगुलिमाल के मार्ग से आए हैं ?' बुद्ध ने कहा-'हां ।' राजा ने कौतूहल से पूछा-'तो क्या आपको वहां अंगुलिमाल नहीं मिला, उसने आप पर तलवार नहीं उठाई, आपको कुछ नहीं हुआ ?' बुद्ध ने धीरे से मुस्कुरा कर जवाब दिया- 'अंगुलिमाल मिला, उसने तलवार भी उठाई, लेकिन मुझे कुछ नहीं हुआ, हां! उसे जरूर कुछ हुआ ।' अजातशत्रु की जिज्ञासा बढ़ी। उसने पूछा-'वो अंगुलिमाल अब कहां है ?' बुद्ध ने अपने पास सिर झुका कर बैठे पुरुष की ओर इशारा किया । अंगुलिमाल को देखकर राजा चौंका, वह दौड़कर महल में गया और सेना को सतर्क करने लगा। उधर शहर में भी ( ११० ) For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सूचना पहुंची तो तहलका मच गया कि अंगुलिमाल संन्यासी हो गया, भिक्षु हो गहा । ___ दोपहर के बारह बजे, तो अंगुलिमाल ने कहा- भंते ! आहार के लिए जाऊं ?' बुद्ध ने कहा कि जानो, लेकिन ध्यान रखना, ये तुम्हारी आहार चर्या नहीं, तुम्हारे पापों की प्रक्षालन-चर्या होगी। स्थित प्रज्ञ होकर जानो। ठीक वैसे ही जागो, जैसे मैं तुम्हारे सामने आया था। ऐसे गए तो जीत जाओगे, अन्यथा परास्त तो तुम हो ही। अंगुलिमाल शहर की गलियों में आहार के लिए निकला । वह हाथ में पात्र लेकर, सिर झुकाए जा रहा था। लोग एकत्र होने लगे । किसी ने एक पत्थर मारा और फिर तो जैसे पत्थरों की बौछार होने लगी। वह लहुलूहान होकर नीचे गिर पड़ा। उसके चेहरे पर लहू बहने लगा। कुछ देर बाद उसके माथे पर एक हाथ आया । उसने देखा कि बुद्ध उसका सिर सहला रहे हैं। बुद्ध ने उससे पूछा- 'वत्स ! इस समय तुम्हारे मन में क्या भाव जन्म ले रहे हैं, तुम्हारी भाव-दशा कैसी है ?' वह बोला--'प्रभु, आप पूछते हैं ? इस समय मेरे मन में महान करुणा जन्म ले रही है। क्षमा का भाव आ रहा है कि ये लोग कितने धन्य हैं। मैंने उम्र भर पाप बटोरे, लेकिन ये लोग मेरे पाप धोने में मेरी मदद कर रहे हैं। ये सभी मेरे कितने शुभ चिंतक है। मेरे मन में इनके प्रति करुणा उमड़ रही है ।' बुद्ध की प्रांखें भींग उठी। उनकी प्रांखों से दो आंसू निकलकर अंगुलिमाल के सिर पर गिरे । अंगुलिमाल ने कहा 'बस ! मैं धन्य हो गया। अाज अापके अश्रु मेरे सिर पर गिरे, इससे बड़ा मेरा सौभाग्य और क्या होगा ? ( १११ ) For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध ने कहा--'वत्स ! तुमने भले ही जिन्दगी भर पाप किये, लेकिन वे बेहोशी में किए गए कृत्य थे। होश में किया गया एक पुण्य भी आदमी के पापों को भस्म कर देता है। तुम्हारी मृत्यु, मृत्यु नहीं है। वह तो निर्वाण का महोत्सव है। तुम डाकू होकर नहीं मर रहे हो, तुम भिक्षु होकर मर रहे हो । स्वयं अरिहंत होकर जा रहे हो और जो भी अरिहंत होकर जाता है, जैनी कहते हैं - णमो अरिहंताणं, उस प्रारहंत को प्रणाम । यह एक जातक कथा है और यह संदेश देती है कि आदमी जब भी जागे, सवेरा है। जब आंख खुली तभी प्रभात है। अांख ही बन्द होगी तो सवेरा कैसे देख पायोगे ? भोर तो रोज होती है, अगर हमारी आंखें ही बन्द हैं तो सूर्य की किरणें हमें नजर कैसे आएंगी? दोष सूर्य का नहीं, हमारी आंखों का है। परमात्मा के फूल तो आकाश से निरन्तर झर रहे हैं, हमारा प्रांचल ही छोटा है तो इसमें आकाश का क्या दोष ? आदमी चाहता है कि बदल जाऊं, लेकिन उसके कृत्य इससे विपरीत होते हैं। वह जीवन में रूपान्तरण भी चाहता है और इसके लिए प्रयास भी नहीं करता। दोनों बातें कैसे संभव है । आनन्द हमारा स्वभाव हो सकता है। हमारी झोली में खुशियां आ सकती है लेकिन इसके लिए हमें अांचल को फैलाना तो पड़ेगा। हमें अपने घट का ढक्कन तो खोलना ही होगा। अहंकार को सर्वकार में बदलना होगा। नदिया तो बह रही है। हमारे प्रागे से पानी बहता चला जा रहा है। हम इस पानी में अपनी अंजुरी नहीं डालेंगे तो यह संभव ही नहीं है कि पानी अपने आप हमारी अंजुरी में आ जाए । नदी तो जहां है, वहीं बहती रहेगी। हमें ही नदी की ओर झुकना ( ११२ ) For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा, अपनी अंजुरी भर कर पानी कंठ तक ले जाना होगा | जिसने अंजुरी बनाली वह पानी पी लेगा, वह निश्चित तौर पर अमृतपान करेगा | जीवन के छोटे-छोटे कृत्य पुण्य कृत्य हो सकते हैं । आप खाना बनाने जा रहे हों तो पहले आटे को देख लो, चूल्हे को देख लो तो यह देखना ही तुम्हारे लिए पुण्य कृत्य हो जाएगा । ऐसा करना भी मंदिर में जाकर परमात्मा की मूर्ति को देखना हो जाएगा । आपने आत्मभाव के साथ कंधे पर बैठा मच्छर भी उड़ाया तो यह भी पुण्य कृत्य हो जाएगा । यह परमात्मा का चंदन से पूजा-अर्चना करना हो जाएगा । यदि बेहोशी में मच्छर को उड़ाया और वह मर गया या बच गया तो भी वह पाप कर्म होगा । जीवन के हर कदम पर पाप और पुण्य के लेखे-जोखे हैं । धर्म और अध्यात्म ऐसे ही हैं । एक सिक्के के दो पहलू हैं । धर्म केवल एक रूढ़ीवादी परम्परा नहीं है कि लोग जैसे करते हैं, वैसे ही हम करते जायें । जिन्दगी और अध्यात्म भी सिक्के के दो पहलू हैं । हर कदम दर सचेतनता आवश्यक है । अगर जागरूकता के साथ क्रोध भी कर लोगे तो को क्रोध भी आपके कर्मों की निर्जरा का आधार बन जाएगा । दुनिया की अधिकांश किताबें कहती हैं कि क्रोध से कर्मों की निर्जरा नहीं होती, बंधन होता है । लेकिन ऐसा नहीं है अध्यात्म हमें यही सिखाता है कि बोध के साथ क्रोध करोगे तो वह क्रोध क्रर्मों की निर्जरा का कारण बनेगा । हमारी दृष्टि सम्यक् हो जाए तो हम चेतन द्रव्यों का सेवन करें या अचेतन का, हमारे कर्मों की निर्जरा अनिर्वाय रूप से होगी । हमारे कर्मों की प्रकृति सुधरेगी । क्रोध आया तो आने दीजिये । ( ११३ ) For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध मनुष्य का स्वभाव है । लेकिन हम कोध कर रहे हैं, इस बात का हमें बोध है, तो यहां कर्मों की निर्जरा होगी । क्रोध पर विजय पाने का सूत्र देता हूं । आपको क्रोध आए तो सीमित शब्द बोलें । नपे-तुले शब्द बोलें । इससे आपका क्रोध घटने लगेगा । क्रोध तो स्वाभाविक है, नैसर्गिक है । जिस प्रकार सुन्दर चीज देखकर उत्तेजना आती है, वैसे ही क्रोध है । किसी ने आपको गाली दी, क्रोध आ गया । क्रोध आते ही पहचान लो कि क्रोध आ रहा है । सामने वाले को बोलने दो, खुद चुप हो जानो । वो कितनी देर गालियां देगा, आखिर तो थकेगा । जब वो थक जाए तो आपको उसने कितने शब्द कहे, उसे अपने थर्मामीटर में जांचों, परखो, उसका उत्तर तीन शब्दों में दे दो और चुप हो जाओ। आप ने यह काम सफलतापूर्वक कर लिया तो समझो क्रोध समाप्त हो गया है । आपने जिस पर क्रोध किया, वो व्यक्ति चला गया । बोध होगा तो आदमी अपने ही क्रोध पर हंसेगा । उसे विश्वास न होगा कि वह अपने पर क्रोध कर सकता है ? एक सज्जन मुझसे बात कर रहे थे । उन्होंने कहा दो दिन पहले मुझे क्रोध श्रा गया, मेरे नौकर ने कोई गलती कर दी, मैं उस पर बरसने वाला ही था कि मुझे आपका संकेत याद आ गया, मेरा क्रोध तुरन्त शांत हो गया । दस मिनट बाद मैंने अपने क्रोध को कुछ नपे-तुले शब्दों में प्रकट किया, आश्चर्य हुआ । मैं कुछ देर बाद अपने ग्राफिस पहुँचा तो वहां खिलखिलाकर हंस पड़ा । आफिस का स्टाफ मेरी शक्ल देखने लगा । एक सज्जन ने ध्यान शिविर में भाग लिया । उन्होंने ध्यान को अपने भीतर उतारा । सात दिन बाद उनकी हालत यह हो गई ( ११४ ) For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वे अपनी दुकान जाते तो उन्हें लगता ही नहीं कि किसी ग्राहक से बात कर रहे हैं। वे इतने मस्त हो गए कि उन्हें अपनी दुकान ही मन्दिर लगने लगी। पहले उन्हें रात-रात भर नींद नहीं आती थी, लेकिन अब हालत यह है कि बिस्तर पर जाते ही आँख मुदने लगती है। उनके लिए अब दुकान भी मन्दिर जैसी हो गई है । व्यक्ति सही तौर पर तभी आध्यात्मिक और धार्मिक हो पाता है, जब उसे दुकान भी मन्दिर जैसी लगने लगती है। जब ऐसा आदमी कपड़ा बुनता है तो वह कबीर की तरह चदरिया बीनना हो जाता है। झीनी-झीनी रे चदरिया, राम नाम रंग भीनी चदरिया । कबीर कहते हैं इस चदरिया का क्या मोल पूछते हो। यह तो मैंने अपने राम के लिए बुनी है। जो आदमी ग्राहक में भी राम को देखेगा, उसके लिए धरती पर, हरेक में राम नजर आ जाएगा। मन्दिर के भीतर जाकर तो हर कोई राम को निहार लेगा, लेकिन अस्पतालों में जाकर रोगियों में जो राम को स्वीकारेगा, उसके लिए सर्वत्र परमात्मा होगा। अपने प्रशंसक के भीतर तो हर कोई आपको देख लेगा, लेकिन अपने पालोचक के भीतर अपने को देखने वाला अधिक महान होगा। प्रभु सब में है । फूलों में, पशु-पक्षियों में, प्रादमियों में, सब में प्रभु है । अणु-अणु, कण-कण में प्रभु है । पात-पात पर उसके हस्ताक्षर हैं, फूल की हर मुस्कान में उसकी ऋचा और पायत है, जरूरत तो उसे देखने भर की है । मनुष्य यह न सोचे कि मेरे भीतर प्रभु नहीं है। ऐसा सोचने से उसके भीतर लघुता की ग्रन्थि पैदा होगी। जब वह सोचेगा कि उसके भीतर भी प्रभु है तो वह विराटता की ओर चल सकेगा। कौन ( ११५ ) For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा, कौन छोटा, सबमें वही प्रभु है । तुझमें जो है, मुझमें भी वही प्रभु है । 'अप्पा-सो-परमप्पा', ईश्वर अंश जीव अविनाशी । कोई भी छोटा या बड़ा नहीं है। गुरु भी नहीं। जो गुरु अपने शिष्य को हमेशा शिष्य ही बनाए रखता है, वह उसका वास्तविक गुरु नहीं है। शिष्य यदि गुरु से आगे बढ़ता है तो इसमें गुरु की ही महत्ता है । अगर चेला, चेला ही रहता है तो यह गुरु के लिए अशोभनीय है। द्रोणाचार्य ने एकलव्य को कुछ नहीं सिखाया। उसने अपने बलबूते पर ही तीरंदाजी सीखी और उसमें महारथ हासिल की। उसने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने को द्रोणाचार्य को गुरु-दक्षिणा देनी चाही तो उन्होंने उससे अंगूठा मांग लिया ताकि वह अर्जुन से आगे नहीं निकल जाए । ऐसे गुरु को क्या कहा जाए ! राग तो किसी का भी नहीं होना चाहिए। महावीर तो गौतम से कहते हैं कि मेरा राग भी छोड़ दे। तुझे आगे बढ़ना है तो राग से पीछा छुड़ाना होगा। बांसुरी तो अपनी बजनी चाहिए, संगीत तो अपना होना चाहिए। आंगन देखे बार लाख ही, किन्तु अंधेरा नाश न होगा दीया पराये घर जलने से, तेरे यहां प्रकाश न होगा द्वार-देहरी बन्द किये क्यों, अांचल में मुह देकर बैठा, सूरज तो निकलेगा लेकिन, वो तेरा आकाश न होगा । अपना दीप हमें ही रोशन करना होगा। दीप हो हमारे घर का, भीतर के घर का । अपनी रोशनी ही अपने काम पाएगी। औरों की रोशनी हमारे किस काम की ? दूसरे का दीया तो आखिर दूसरे का ही है। जब तक वह है तब तक उसकी रोशनी है। वह ( ११६ ) For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया, तो उसके साथ उसकी रोशनी भी गई। हम तो पहले भी अंधकार में थे और उसके चले जाने पर पुनः अंधकार में आ गये । औरों की रोशनी तो मात्र आत्म-विश्वास बढ़ाने के लिए है। ज्योति हो अपनी ! अपना अांचल तो हमें विराट करना ही होगा तभी आकाश से बरसने वाली सौगात हमारे दामन में आ सकेगी। हमारा आंचल जितना बढ़ता जाएगा, परमात्मा का अमृत उतना ही अधिक मिलता जाएगा । अांचल को बड़ा बनाओ, जितना बड़ा आंचल होगा, सौगात उतनी ही बड़ी होगी। ( ११७ ) For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय की चेतना धरती के इतिहास-पटल पर अब तक जितनी भी घटनाएं घटी, समय ने उस हर घटना को देखा है। देखा ही नहीं, वरन् घटाया भी है । समय सबका साक्षी है । सबका सूत्रधार है । हर युग का, हर मनुष्य का । समय ने महाभारत देखा है और समय ने ही महाभारत रचा है। समय ने महावीर और बुद्ध के कैवल्य की छाया पाई है, राम और कृष्ण की रासलीलाओं का रसास्वाद किया है । चाणक्य की नीति और सिकन्दर की विश्व-विजय देखी है, हिटलर की हिंसा और ट्र मेन के हाथों नागासाकी और हिरोशिमा का विध्वंस भी देखा है। समय हर घटना-दुर्घटना का द्रष्टा है । सृष्टि ( ११८ ) For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सर्जक और संहारक है। समय ही गति और समय ही विध्वंसक ___समय ने केवल आज की रिश्वत भरी राजनीति ही नहीं देखी, महाभारत की छल-प्रपंच भरी राजनीति भी देखी है। उसने केवल नागासाकी को ही नष्ट होते नहीं देखा, द्वारका और कलिंग को भी खतम होते देखा है। उसने विदुर और शकुनि दोनों को एक युग में जिया है। समय तब भी था, अब भी है, सृष्टि के साथ सदा-सदा रहेगा। परिवर्तनशील, फिर भी शाश्वत । शिव का तीसरा नेत्र और कुछ नहीं, समय ही है। जिसे लोग शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं, वह तो समय का पहला नेत्र है । इसलिए समय आंख है। आंखों की भीतर की प्रांख है। धरती का बीज है समय । समय ही जीवन है । जितना जीवन, उतना समय । न एक पल कम, न एक पल ज्यादा । समय ही मनुष्य के लिए जन्म का कारण बन जाता है और समय ही जीवन बन जाता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि समय ही मृत्यु हुना, यानी व्यक्ति का समय चुक गया। बाती बुझ गई । समय सबका एक जैसा हो, ऐसा भी नहीं है। समय कब कौन-सा रूप लेकर सामने आ जाए, कहा नहीं जा सकता। सबको समझा जा सकता है, पर समय को जितना समझने जानोगे, समय का दर्शन उतना ही गहराता चला जाएगा। समय का शास्त्र ही कुछ ऐसा है । और फिर समय के आकाश में चाहे जितना उड़लो, पक्षी का कोई पद-चिह्न पीछे नहीं बचता। अब तक न जाने कितने लोग धरती पर आए होंगे पर कितनों के पद-चिह्न बचे हैं पीछे । क्या हजारों ( ११६ ) For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के, लाखों के ? तुम्हें मुश्किल से दस नाम भी याद नहीं होंगे । राम रहीम, कृष्ण - कबीर, महावीर - मुहम्मद, कितने नाम ? दस-बीस .... बस । समय आखिर सबको मिटा देता है । बसंत ऋतु लाने से पहले पतझड़ ले आता है । सबकी अकड़ धराशायी हो जाती 1 सब समय-समय का खेल है, वक्त की बात है । पहिये का जो छोर भी ऊपर है, पता ही नहीं चलता वह कब नीचे आ जाये । नीचे का छोर कब ऊपर चढ़ जाये । समय अनुकूल है तो गरीब को अमीर बनते देर नहीं लगती । समय रूठ जाए तो महल - महराब कब धराशायी हो जाये, कुछ नहीं कहा जा सकता । मेरे देखे, तो जीवन को समझने के लिए समय को समझना और समय की हर अनुकूल परिस्थिति को जीना चाहिये । समझदारी से अगर समय का उपयोग करो, तो प्रतिकूल समय में भी आप मस्त रहोगे । नासमझी से तो अनुकूल समय भी बरबादी का कारण बन जाता है । समय की समझ समय का बोध, समय की चेतना तो हर व्यक्ति को होनी ही चाहिये । यदि हम वास्तव में समय की आत्मा को छूना चाहते हैं तो सर्वप्रथम यह समझ लें कि समय आखिर है क्या ? समय का कोई आकार नहीं है । वह निराकार है । उसका रूप नहीं है, वह अदृश्य है । समय को छुआ नहीं जा सकता । वह अस्पर्श्य है । उसकी कोई मूर्ति नहीं है, जो हमें दिखाई दे । समय कोई रोटी या मिठाई का टुकड़ा नहीं है कि हम उसका स्वाद ले सकें । उसका कोई स्वाद नहीं है । वह अस्वाद्य है । समय को न तो देखा जा सकता है और न ही छुआ या चखा जा सकता है । इसके बावजूद समय जन्म से मृत्यु तक आदमी को घेरे रहता है । ( १२० ) For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय कोई पहचाने या न पहचाने, वह आदमी को उम्र भर घेरे रहता है। जैसे बादल आसमान को घेरे रहता है। जैसे सागर का पानी मछली को घेरे रहता है, ठीक उसी तरह समय मनुष्य के जीवन को घेरे रहता है। समय जीवन का घेरा है। मनुष्य का जन्म भी समय में होता है और मृत्यु भी इसी में निहित है । जन्म, जरा, रोग, मृत्यु हर घटनाक्रम के साथ समय का साक्षीभाव रहता है । कुन्दकुन्द ने एक मार्मिक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है 'समयसार'। उनकी दृष्टि में समय का अर्थ है आत्मा, समय का अर्थ है सिद्धांत । समय में टिक जाने का नाम है सामायिक । जो व्यक्ति समय के सामयिक हो गया वो व्यक्ति सामायिक को उपलब्ध हो गया क्योंकि समय ही व्यक्ति के लिए प्रात्मा है, समय ही सिद्धांत है। पक्षपातों से मुक्त होने का नाम ही समय को उपलब्ध होना है, नय-पक्ष से रहित होना ही 'समयसार' है। अगर कुन्दकुन्द की दृष्टि से देखें तो उन्होंने जो अध्यात्म दिया है, वह बेजोड़ है। धरती पर ऐसा रत्न कोई विरला ही दे पाया। जिसमें समय का सार है, वही अध्यात्म है। जिस व्यक्ति ने समय के सार को उपलब्ध कर लिया वह समाधि को उपलब्ध हो गया। समय के रहते हुए समय से बाहर निकल जाना व्यक्ति के लिए स्थितप्रज्ञ हो जाना है। समय का कोई एक विशिष्ट रूप नहीं है। समय के अनन्त रूप हैं और हर रूप विशिष्ट है। उसने अनगिनत मुखौटे लगा रखे हैं। उसके अनेक कृत्य हैं । कोई व्यक्ति पीड़ा में है तो उसका कारण समय है और कोई व्यक्ति प्रसन्न है तो इसका कारण भी समय ही है । भाई दगा दे रहा है, पत्नी धोखा कर रही है तो भी समय के कारण । ( १२१ ) For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस तरह मृत्यु का कोई रूप नहीं होता, वह कब, कहां, कैसे और किस रूप में सामने आ जाती है, इसका पता नहीं चलता । ठीक उसी तरह समय है। शेरों से लड़ने वाला हाथी चींटी से चित हो जाता है। समय बदलता है और इतनी तेजी से बदलता है कि आदमी हतप्रभ रह जाता है। एक आदमी छत की मुडेर पर खड़ा मूछों को ताव दे रहा है। मन में विचार कर रहा है कि मेरे जितना बलशाली और कोई नहीं है । उसी क्षण हवा चलती है और एक तिनका उसकी आंख में अटक जाता है। बस, उसकी सारी बहादुरी हवा हो जाती है। वह तिलमिलाने लगता है। जब एक मामूली तिनका समय का सहारा लेकर आदमी को उसकी औकात दिखा सकता है तो आदमी को किस बात का गुमान ? उपलब्धियों का कैसा गुरूर ? औरों की कैसी उपेक्षा ? समय सबका एक जैसा नहीं रहता। इसलिए न तो उपलब्धियों का अभिमान हो और न ही छोटों की उपेक्षा। जिन लोगों को मैंने कल तारीफ करते सुना, आज उन्हीं से बदनामी के चर्चे सुनने को मिले । कल न जाने फिर क्या रंग बदलेगा। सब समय का खेल है। कब कौन आकर साथ निभा जाता है और कब साथ निभाने वाला दूर जा खड़ा होता है, कुछ नहीं कहा जा सकता। सुधरने का समय आता है तो दूर का आदमी पाकर संभाल जाता है और जब बिगड़ने की बारी आती है तो घर वाले ही उसका सत्यानाश कर देते हैं। अपने ही दगा दे जाते हैं । सच तो यह है कि इस दुनिया में दुश्मनों से जितना खतरा नहीं है, उससे अधिक खतरा अपनों से है। ( १२२ ) For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुश्मन तो साफ जाहिर है कि दगा देगा ही, मगर मित्र, नजदीकी रिश्तेदार तक दगा दे जाते हैं । आजकल घरों में बहू पर बहुत अत्याचार हो रहे हैं । कौन कर रहा है ? कोई बाहर से आ रहा हैं ? नहीं, घर में ही उसे प्रताड़ना मिल रही है । प्रताड़ित करने वाले उसके अपने हैं । तो यह सब समय की माया है । कोई आदमी गरीब हो तो, गरीबी में दगा देने वाले कुछ ज्यादा ही मिलते हैं । कहीं चोरी हो जाए, पहले शक घर के गरीब नौकर पर किया जाता है । भले ही चुराने वाला मकान मालिक का बेटा ही क्यों न हो, गरीब के सिर इलजाम मढ़ दिया जाता है । किसी दुकान का नौकर कहीं पैसे लेने गया वापसी में पैसे कहीं गिर गए या खो गए तो दुकानदार सीधे इस नतीजे पर पहुँच जाता है कि नौकर झूठ बोल रहा है। रुपये उसने चुरा लिए हैं । एक गरीब आदमी समय का मारा होता है, उसे हर आदमी मारने लगता है । और जिस आदमी को समय ने ऊँचा उठाया हो वो लाखों रुपए डकार जाए तो भी उसे कोई कुछ नहीं कहता । समय अगर साथ दे तो प्रादमी गोबर में हाथ डालेगा तो सोना निकाल लेगा । इसके विपरीत समय से मार खाने वाला आदमी सोने में हाथ गा तो वो भी मिट्टी हो जाएगा । भाग्य और कुछ नहीं, समय का खेल है । आदमी भाग्य का मारा नहीं है, वह समय का मारा है । आदमी समय का हस्ताक्षर है । समय चाहे टेढ़ा-मेढ़ा सीधा कर जाए, आदमी तो समय के सागर की तरंग भर है । वह चाहे तो उछाल दे, वह चाहे तो भंवर बन कर नीचे डुबो दे । समुद्र में ज्वारभाटा आता है । ज्वार ऊपर उठता है, भाटा नीचे गिरता है । आदमी भी ऐसे ही ऊपर उठता और नीचे गिरता है । जिस आदमी ( १२३ ) For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने समय को समझ लिया, उसने अपने जीवन की नब्बे प्रतिशत समस्याएं हल कर लीं। कोई आदमी मेरी तारीफ करे या बदनामी करे, मुझे कोई खुशी या दुःख न होगा । मैं तो समय का साक्षी हूं । दोंनों में मस्ती का आलम रहेगा । ये तो समय का खेल है । सारा जीवन, जगत, समाज, जीवन के अनन्त जन्मों की यात्रा, सब समय का खेल है । समय से उबरने के लिए आदमी दो मार्ग चुनता है । या तो आदमी समय को भूल जाए या फिर समय से ऊपर उठ जाए । जो आदमी समय को भूलना चाहता है वह शराब पीकर अपना गम गलत करेगा । क्योंकि वह आदमी समय का मारा है । आदमी हमेशा पीड़ा में ही शराब पिएगा । ऐसा नहीं है कि गरीब आदमी ही शराब पीता है, अमीर आदमी भी शराब पीता है । वह मानसिक परेशानी के कारण शराब पीता है ताकि तनाव को भुला सके । शराब पीने से कभी तनाव नहीं भुलाया जा सकता । तनाव दब जाएगा, लेकिन मिटेगा नहीं । आदमी जब शराब पी लेगा तो नशे में लगेगा, दुनिया नहीं, मगर जब नशा उतरेगा तो वही घोड़े और वही मैदान | ऐसा नहीं है कि शराब पीने के बाद जब नशा उतर जाएगा तो दुःख कम हो जाएगा । होश में आने के बाद दुःख और ज्यादा हो जाएगा, सघन । यही घटना क्रम नित्य प्रति चलेगा | शराब की मात्रा बढ़ती जाएगी। आदमी अपने आप को मार डालना चाहेगा । उसे पता है कि यह समय की मार है । आदमी भीतर-ही भीतर टूट रहा है । इसे भुलाने को उसे आसान उपाय शराब ही लगती है । जो आदमी समय को भुलाना चाह रहा है, वह व्यक्ति वास्तव में जीवन को भुला रहा है । जीवन की आत्महत्या कर रहा ( १२४ ) For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । भीतर ही भीतर जहर पी रहा है । धमनियों में जहर फैला रहा है । लेकिन एक दूसरा तरीका भी है । आदमी समय से बाहर आ गया तो बाहर खड़ा है, वह ध्यान का मार्ग है । जो आदमी समय से हटकर देख रहा है, जो आदमी किनारे खड़ा है, वह कैसे डूबेगा ? ध्यान पर खड़ा होना, समय के सागर के किनारे खड़ा होना है । जिस व्यक्ति ने अपने समय को पहचाना, अतीत, वर्तमान में घट रही घटनाओंों को जाना, उसने जीवन के अतीत से सबक सीखा है । एक व्यक्ति की पत्नी प्रतीत में सौ बार नाराज हुई और सौ बार राजी हुई। ऐसी राजी नाराजी चलती रहनी है । जो हमेशा नाराज रहे, वो पत्नी नहीं है और जो हमेशा राजी रहे, यह सम्भव नहीं है । आदमी को तटस्थ रहना जरूरी है । समय सबके लिए एक-सा नहीं रहता । जिसकी जैसी पात्रता, बूंद का उपयोग भी वैसा ही होता है । पानी की एक बूंद बादल से निकलती है, वह गर्म रेत पर गिरेगी तो स्वाहा हो जाएगी। इसके विपरीत वह समुद्र में गिरेगी तो उसके जैसी विराट हो जाएगी । केले के पेड़ के गर्भ में गिरेगी तो कपूर बन जाएगी । समय निश्चित तौर पर एक है, लेकिन वह एक सा रहता नहीं है । रूप बदलता रहता है । किसका कैसा, और कब समय आएगा, कोई नहीं कह सकता । आदमी समय का उपयोग नहीं कर पाता तो यह उसकी नासमझी है । , आदमी दो कारणों से समय को टालता रहता है । आदमी की पहली आदत तो यह है कि वह सोचता है यह काम कल कर लेंगे । ग्राज करने की क्या जरूरत है । यह आदत इतनी गहरी ( १२५ ) For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती चली गई है कि आदमी सोचता है कि कल कर लेंगे तो क्या आफत आ जाएगी ? आदमी की मानसिकता ने उसे आलसी बना दिया है, लापरवाह बना दिया है। 'आज करे वो काल कर, काल करे सो परसों' की मानसिकता ने उसे गहरे गड्ढे में धकेल दिया है । किसी ने रुपये उधार दिए और जब वह वापस मांगने पाया तो जवाब दिया-'कहीं खा कर भाग रहे हैं क्या ?' दे देंगे। कब दे दोगे, इसका जवाब नहीं देते । इस आदत के कारण आदमी अच्छे काम भी कल पर टालता चला जाता है। व्यर्थ के काम तो वह तुरत-फुरत कर लेता है । किसी के पेट में चाकू घोंपना है तो पल भर का विलंब न करेगा । इसके विपरीत किसी से प्रेम करना हो, क्षमा मांगनी हो तो आदमी कल पर छोड़ देगा। हर सार्थक काम को हम कल पर टाल देते हैं । व्यर्थ को आज ही कर लेना चाहते हैं। दूसरी मानसिकता यह पैदा हई है कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में प्रलय हो गई तो बहुरि करंगो कब ? एक मानसिकता अाज की कल पर टालने तथा दूसरी कल का काम आज ही निपटने की है। आप सार्थक कामों को कल पर टालते जाते हैं और व्यर्थ कामों को आज ही कर लेना चाहते हैं । आदमी से अगर कहो कि एक घंटा सामायिक कर लो, तो वह अखबार पढ़ने बैठ जाएगा। ऊपर से तर्क देगा कि देखते नहीं अखबार पढ़ रहा हूं। और ऐसा नहीं है कि वह कल सामायिक कर लेगा। कल भी अखबार पढ़ने बैठ जाएगा। आदमी यही सोचता है कि मृत्यु तो कल आएगी, आज थोड़े ही आ रही है । मृत्यु कभी कल नहीं आती। वह हमेशा आज ही आती है। कल भी तो अाज में बदलता है। जिन्दगी ऐसे ही पूरी हो जाती है। ( १२६ ) For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप किसी से पूछिये - भाई ! तुम्हारी पूंजी क्या है ?, वह तुरंत कह देगा - ' मेरे बैंक खाते में दस लाख रुपये जमा है । दो बंगले हैं।' इसके अलावा क्या ऐसी पूंजी है जो मृत्यु छीन न सके ? ये मेरी जमीन, ये तुम्हारी जमीन । यह कहकर तो हम केवल भौतिक आधिपत्य की घोषणा कर सकते हैं । इसी क्रम में वह सोचता है मृत्यु तो कल आएगी, आज तो जी लें। आदमी सोचता है मैं थोड़े ही मरूंगा, कोई और मरेगा । आदमी देखता है, फलां का स्वर्गवास हो गया । वह यह नहीं सोचता ऐसा दिन उसका भी आने वाला है । पर दूसरे की मृत्यु उसे स्वयं की मृत्यु की पूर्व सूचना है । वह सारे नियम दूसरे आदमियों पर ही लागू करता है । नियम होते ही दूसरों पर लागू करने के लिए हैं । एक अधिकारी दूसरे को गाली देगा दूसरा तीसरे को । मैं कहता हूं वास्तविक नियम तो वे हैं जो सब पर समान रूप से लागू हों । जब नियम बन गया तो कोई अपवाद नहीं होता । ये तो समय का बहता सागर है, कब किसको, कहां बहा कर ले जाएगा, कोई नहीं जानता । सागर का यह पानी जब तक बरगद को सींचता है, पूरे मनोयोग से सींचता है और जिस दिन बहा कर ले जाना चाहेगा, उस दिन बरगद को भी जड़ से उखाड़ देगा | आदमी उम्र भर सोया रहता है । जब मृत्यु प्राती है, तब उसकी नींद खुलती है । लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है । अगर किसी को पता चले कि तीन दिन बाद उसकी मृत्यु होने वाली है तो वह शेष तीन दिन में कोई छल-प्रपंच नहीं करेगा । आदमी सोचता है मैं सौ साल जिऊंगा । सत्तर पार करने के बाद भी उसकी जीजीविषा नहीं मरती । उसे लगता है अभी तीस साल तो जिऊंगा ही । तुम हर काम कल पर टालते हो । कल जीवन है लेकिन उसका ( १२७ ) For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग नहीं कर पाते । कल फिर कल की याद आती है। कल, कल हो जाता है। एक बात तय है कल-कल करते रहे तो जीवन का यह झरना भी कल-कल धारा बनकर बह जाएगा । एक आदमी ने दीक्षा ले ली, संन्यासी हो गया। उसके एक मित्र ने उनसे कहा-'मेरी भी इच्छा हो रही है कि संन्यास ले लू।' उन्होंने कहा-'ले लो।' लेकिन वे सोचने लगे कि अभी तो काफी समय है । पहले पुत्र की शादी कर दू, पोते का मुंह देख लू, फिर संन्यास लूगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । पोते का मुंह देख लिया तो प्रपौत्र की तमन्ना ने जन्म ले लिया । दरअसल आदमी दीक्षा लेना भी नहीं चाहता और दीक्षा लेने का प्रानन्द भी उठाना चाहता है । ऊपर से आदमी कहता है, गुरुजी ! चिंता मत करो, मैं पांच साल बाद आपकी छाया में आने वाला हूं। मैं जानता हूं, वो नहीं आएगा। आने वाला, पांच साल इंतजार नहीं करता। मृत्यु के किनारे जाकर भी उसे नहीं सूझेगा कि संन्यास ले लू। लोग बातें ही करते रह जाते हैं। हमारी तमाम परेशानियों का कारण यही है कि हम बातें ही करते हैं उन पर अमल नहीं करते । आदमी का सत्यानाश भाग्य के कारण नहीं होता, उसके द्वारा किए जाने वाले कृत्य ही उसका सत्यानाश करते हैं । बातें कई तरह की होती हैं । बातों-ही-बातों में जिन्दगी पूरी की जा रही है। सांत्वना दी जा रही है। तुम सौ रुपए की लॉटरी खरीदो, लॉटरी वाला सांत्वना पुरस्कार में पेन, पेन्सिल पकड़ा देगा। सांत्वना पुरस्कार ऐसे हो गए हैं कि हम भी अपने जीवन को सांत्वना पर चलाने लगे हैं। सोचते हैं, कोई और मरेगा। हम तो जैसे अमर ( १२८ ) For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जिन्दगी बीत रही है । शरीर में पल-पल परिवर्तन आ रहा है । छोटे से बड़े हो गए, लेकिन समय के प्रति जागरूकता नहीं भाई । समय की चेतना नहीं आई । जागरूकता आ सकती है । एक शर्त है । आदमी को पता चल जाए कि कल का सूरज नहीं देख पाएगा तो उसकी रात निकलनी मुश्किल हो जाए । वह भूल जाए कि पत्नी के साथ सोना है, तिजोरी का ध्यान रखना है। पांच बेटे हैं, उनकी शादियां करनी हैं, यह भी भूल जाओगे | उस समय तो बस धुकधुकी लग जाती है । सुबह मरना है। सूरज का दर्शन भी नहीं कर पाऊंगा । पूरी रात वह् जागकर ही बिता देता है, लेकिन इस अवधि में भी कोई ठोस काम उससे नहीं हो पाता । ऐसा ही हुआ । भगवान एक बरगद के नीचे बैठे थे । अचानक वे मुस्कुराने लगे । पास बैठे शिष्यों ने पूछा - 'भगवान, आप अचानक कैसे मुस्कुराए ?' भगवान बोले- 'वो सामने दरिया के किनारे खड़े आदमी की ओर देखो । वह सोच रहा है कि खूब पैसे कमाऊंगा और महल बनाऊंगा। बड़ी बड़ी योजनाएं बना रहा है । लेकिन मेरे प्रिय शिष्यों, वह नहीं जानता कि सात दिन बाद उसकी मृत्यु होने वाली है । तुम जाओ उससे यह कह दो कि सात दिन ही उसकी जिन्दगी शेष है ।' शिष्य उस आदमी के पास गये और उसे यह बात बताई । वह व्यक्ति सुनते ही स्तब्ध रह गया । उसके पसीना आने लगा । अब तक बनाई सारी योजनाएं धरी रह गई । उसके पांवों में खड़े रहने की ताकत तक नहीं रही। वो गिर पड़ा । शिष्य उसे उठाकर भगवान के पास ले गये । उसे होश आया तो भगवान ने कहा, 'रोने से कुछ नहीं होगा । एक बात जान लो, कभी सत्य की मृत्यु नहीं होती । मृत्यु केवल स्वप्न की होती है । और ये सारा संसार, समय का केवल स्वप्न ही तो है । ( १२६ ) For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मृत्यु नहीं शरीर मरता है, श्रादमी का स्वप्न टूट जाएगा लेकिन सत्य होगी । जीवन की भी कभी मृत्यु नहीं होती। फिर पैदा हो जाता है । इसलिए अगर हो सके तो अपनी जिन्दगी के शेष बचे सात दिनों का सदुपयोग करो। जितना अधिक जी सकते हो, जीने का प्रयास करो । जो आदमी थोड़ी देर पहले महल बनाने की सोच रहा था, अब समाधि की सोचने लगा । सात दिन तक उसने अपने आपको बदलने में कोई कसर न छोड़ी। वह सात दिन बाद मरा, लेकिन महानिर्वाण को प्राप्त हुआ । मृत्यु से पहले उसका निर्वाण हो गया । पार मृत्यु से पूर्व ही वह निर्वाण प्राप्त करने की दिशा में बढ़ने लगा था । उसका जीवन समय के समुन्दर से मुक्त हो गया । लग गया । आदमी को तभी होश आता है । एक बात मैं बहुत ही प्यार के साथ कहना चाहूंगा कि इस समय का कोई ठिकाना नहीं है, क्या पता कब बदल जाए। मैंने बहुत अमीरों को गरीब बनते देखा है । अकड़े रहने वालों को धूल में मिलते देखा है । आपकी दुकान के आगे कोई भिखारी आ जाए तो आप कहते हैं 'जाम्रो, कहीं जाकर काम करो, पहलवान जैसा शरीर है और भीख मांगते हो ।' समय का कोई भरोसा नहीं, कल को हमें भी किसी ने ऐसा कहा तो हमारी क्या हालत होगी । भिखारी लेने नहीं, कुछ देने आता है । आप उसे कुछ देते हैं तो बदले में वह आपको भी कुछ देता है । अन्तर इतना है कि उसका दिया दिखता नहीं है । इसलिए कोई काम कल पर मत टालना । कल, कल, कल, यह बात हमारे भीतर गहराई तक चली गई है । दूसरी ओर हमारे जीवन के साथ, समय के साथ बहुत बड़ा विरोधाभास है । आदमी को समय का बोध ही नहीं है । समय का मूल्य ही नहीं जानता वह । समय की चेतना तो किसी के पास है ही नहीं । आदमी बिना ( १३० ) For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचना किसी के यहां चला जाएगा और तीन-चार घंटे गप्पों में बिता देगा। आपने ऐसा किया है तो वह उसके तीन-चार घंटों की हत्या है । वो आदमी अपना यह समय किसी काम में लगाता, लेकिन आपने उससे वे घंटे छीन लिये। समय व्यतीत हो रहा है । जीने को जी रहे हैं। शराब पी रहे हैं । सिगरेट पी रहे हैं । ताश खेल रहे हैं। समय काट रहे हैं। हमारा कितना ही समय व्यर्थ चला जाता है। बेहतर होगा व्यर्थ के कामों की बजाय कोई सार्थक काम करो। सार्थक काम न भी करो तो कम-से-कम अपने को व्यर्थ कामों में तो मत उलझायो । हम किसी को समय देंगे तीन बजे का, लेकिन पहुंचेंगे पांच बजे। जैसे दो घंटे का कोई मूल्य ही नहीं है। इन्तजार करने वाले को तो इस समय का नुकसान ही हुआ। गनीमत है कि दो ही घंटे का नुकसान किया। लोग तो कहते हैं 'कल आता हूं।' और तीन दिन बाद आते हैं। उनके लिए एक दिन और पांच दिन में कोई फर्क ही नहीं। किसी साहूकार से पूछिये एक दिन का कितना महत्व है । ब्याज बट्टे वाले से । ऐसे ही जीवन बीत रहा है। पौने नौ बजे प्रवचन का समय रखा। लोग नौ-सवा नौ बजे तक आते हैं। देर से पाकर आपने अपना ही नुकसान किया। कोई 45 मिनट तक अमृत बरसा रहा है और आप देर से पहुंचे तो उसका खामियाजा आपको ही उठाना पड़ेगा। आपको कम अमृत मिलेगा। गंगा तो बह रही है। अब यह आदमी पर है कि वो दो चुल्लू पानी लेता है या उसमें स्नान करता है। गंगा में से पानी निकालो या न निकालो, वह तो अबाध गति से बहती रहेगी। नुकसान तो आपका होगा। इसलिए समय का मूल्य हमें समझना चाहिए। आदमी को समय का बोध नहीं है, ( १३१ ) For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह समय का मूल्य नहीं जानता । जो आदमी समय का मूल्य नहीं: जानता, वह जीवन का भी कोई मूल्य नहीं समझता । जीवन को बनाना है तो समय को बनाना होगा । जीवन को बचाना है तो समय को बचाना होगा । जीवन का बचत खाता खोलना होगा । जीवन का एक-एक क्षरण कीमती है । समय का हर क्षण जीवन का स्वर्ण करण है । अगर हमारा देवता हमसे रूठ गया तो हम प्रसाद चढ़ाकर उसे मनाने का प्रयास करते हैं, लेकिन यदि समय नाराज हो गया तो लाख कोशिशों से भी राजी न होगा । वह वापस लौटकर नहीं आएगा । जीवन मात्र एक अवसर है । इस अवसर का जितना अधिक उपयोग कर लोगे, फायदे में रहोगे । समझदार वह है जो अवसर आने से पूर्व उसके लिए तैयार रहे । अवसर निकलने पर सिवाय पछताने के और कुछ नहीं रहता । जीवन आज है, अभी है । जीवन को स्वर्ग बनाना है तो चौबीस घंटों में से एक भी क्षण निरर्थक न जाने दो। दूसरा काम यह हो कि समय का मूल्य जरूर प्रांक लो । किसी को समय दिया है तो समय पर पहुंचिये । समय का पाबन्द होना स्वयं पर स्वयं का शासन है । समय का सही उपयोग ही जीवन का सही उपयोग है । जीवन का सही उपयोग ही जन्म की सफलता है । व्यक्ति न तो जन्म से महान होता है और न ही मृत्यु से । जो व्यक्ति समय की कद्र करना सीख गया, उसका जन्म भी महान और मृत्यु भी महान । ( १३२ ) For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधो भाई: समय साधो जन्म के साथ ही मृत्यु की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है । मृत्यु के साथ ही पुनर्जन्म की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है | जहां जन्म है, वहां मृत्यु भी है। जहां संयोग हैं, वहीं वियोग है। वहा दुःख है । जहां सम्मान है वहीं पराभव है। जहां वहीं मुरझाना भी है। जहां बचपन है वहां बुढ़ापा है । जहां सुख है खिलना है, समय का यह शाश्वत क्रम है कि जहां कारण है, वहां कार्य अनिवार्यतः होगा । इसीलिए मनुष्य के जन्म के साथ ही मृत्यु की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। माना कि मृत्यु जन्म के कई वर्ष बाद होगी लेकिन यात्रा तो जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है । जीवन ( १३३ ) For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जन्म से मृत्यु के बीच के पड़ावों का नाम है। जहां से रवाना होकर वहां तक पहुंचना है। जहां से रवाना हुए वो जन्म और जहां पहुंचें वह मृत्यु । जीवन तो बीच का विश्राम है। ऐसा नहीं है कि मृत्यु व्यक्ति को परम विश्राम देती है । जीवन के चलते तो विश्राम सम्भावित है, लेकिन जब व्यक्ति मृत्यु के द्वार से गुजरता है तो उसे विश्राम नहीं मिलता, पुनर्जन्म की एक और यात्रा शुरू हो जाती है। अस्तित्व की प्रत्येक अवस्था के साथ समय चलता है। चाहे जन्मना हो या मरना हर काल और अवस्था के साथ समय का अस्तित्व बना रहता है । चाहे आकाश में तारे उगें या बिखर जाएं । चाहे सूर्योदय हो या सूर्यास्त । चाहे पृथ्वी का सृजन हो या विध्वंस । चाहे मनुष्य का निर्माण हो या सर्वनाश । हर अवस्था के साथ समय का अस्तित्व बना रहता है। सृष्टि में जितने भी तत्व हैं, हर तत्त्व का निर्माण और नाश होता है। लेकिन 'समय' ऐसा तत्व है जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती । समय की मृत्यु कभी होगी भी नहीं । समय शाश्वत है। वह अक्षय है। समय के अलावा हर चीज में परिवर्तन होता है मगर समय में कोई परिवर्तन नहीं होता। मृत्यु आती है, लेकिन वह कोई हौव्वा नहीं है। मृत्यु कोई यमराज के मैं से पर बैठकर नहीं आती, दिखाई भी नहीं देती। दरअसल मृत्यु समय का ही दूसरा नाम है। जब व्यक्ति का समय चुक जाता है तो मृत्यु हो जाती है । मृत्यु और कुछ नहीं, समय का चुक जाना ही है। जन्म और कुछ नहीं, समय का ही प्रादुर्भाव है। ठीक ऐसे ही जैसे रेत की घड़ी होती है। इस घड़ी को सीधा रखते ही कणकण रेत नीचे आने लगती है। यह रेत नहीं है, जीवन है जो नीचे ( १३४ ) For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिर रहा है। ये रेत के करण जैसे-जैसे नीचे गिर रहे हैं, मृत्यु उतनी ही करीब पाती जा रही है । अन्तिम कण गिरते ही जीवन समाप्त हो जाता है । लेकिन समय की धारा विचित्र है। इस घड़ी को उल्टा करोगे तो फिर रेत नीचे आने लगेगी। ऐसे ही जन्म-मृत्यु की कथा लिखी जाती है। समय और जीवन की यही आत्म-कथा है। ___ समय हर युग---हर काल में रहा है । लोग मृत्यु को काल भी कहते हैं और समय को भी काल कहते हैं । यह गौर करने की बात है कि हम समय और मृत्यु, दोनों को काल कहते हैं । हकीकत तो यह है कि मृत्यु ही समय और समय ही मृत्यु है । इस धरती पर, आसमान पर चाहे कितने भी परिवर्तन हो जाएं, चाहे जीवन ही समाप्त हो जाए, समय तो रहेगा। उसी गति से चलता जाएगा। समय के चलते ही तो ये सारी घटनाएं घटती हैं । भारतीय परम्परा में समय के चार खण्ड किए गए हैं । हालांकि समय को कभी खण्ड-खण्ड नहीं किया जा सकता, लेकिन लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार से खण्डों में विभक्त कर दिया है । प्रखंड के खण्ड ! हमने जीवन को बचपन, जवानी, वृद्धावस्था और मृत्यु के रूप में बांट दिया है। जीवन का कोई विभाजन नहीं होता । बचपन भी जीवन है, जवानी और बुढ़ापा भी जीवन ही है । तरस तो तब आता है जब आदमी बुढ़ापे में भी बच्चों की तरह करने लगता है। 'बूढ़ी काकी' की कहानी आपने पढ़ी हो तो आप अहसास कर सकते हैं कि बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन ही होता है । बूढ़े आदमी के मन में किसी चीज के प्रति उतनी ही लालसा हो सकती है जितनी किसी बच्चे के मन में । ये तो हम लोग हैं जिन्होंने समय का, जीवन का बंटवारा कर दिया है। जीवन तो ( १३५ ) For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन है। यह जन्म से पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा जिस चीज को मृत्यु के बाद मृत मानोगे, वह आज भी मृत ही है । जिस शरीर को हम जीवित मानते हैं, वह जीवित नहीं है । जीवित तो इसके भीतर कोई प्रारण है, तत्व है। ऐसी कोई समय की चेतना है जिसके कारण शरीर जीवित दिखाई देता है। यह तत्व चेतना अगर निकल जाए तो शरीर मुर्दे की तरह पड़ जाएगा। जो मृत है वो तो मृत ही रहेगा। जो जीवित है, उसे सौ बार चिता में जला दो तो भी वह जीवित ही रहेगा। उसकी मृत्यु नहीं होगी। वह अमर है। समय का कोई खण्ड नही होता, लेकिन हमने खण्ड-खण्ड कर दिए हैं। चार युग माने जाते हैं- सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कल युग, जो चल रहा है । शास्त्रों को पढ़कर, इतिहास को समझकर हम यह जान सके हैं कि ये चारों युग हैं । ऐसा नहीं है कि सतयुग में सभी लोग सच्चे थे, इन चारों युगों में कलियुग का असर देखने को मिलता है और कलियुग में भी बीते युगों की ताजगी देखने को मिलती ऐसा नहीं है कि जो गुजर गया, वही स्वर्ण युग है। सच्चाई तो यह है कि जिस युग में हम पैदा हुए, हमारे लिए तो वही स्वर्ण युग है । अगर हम अपने युग को सतयुग या स्वर्ण युग नहीं बना सकते तो यह हमारी कमजोरी है। यह माना जाता था कि सतयुग में पाप नहीं होता था, सारे पुण्यात्मा उसी युग में थे। त्रेता और द्वापर युग में भी पाप कम ही होते थे और कलयुग में भी ऐसा नहीं है कि चारों तरफ पाप ही पाप हो, अनाचार हो। धरती के इतिहास में जैसा स्वर्णिम युग अब आया है....। For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि हम लोग यह मानते हैं कि त्रेता युग महान युग था तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि त्रेता युग में भी युद्ध हुए, सीता का हरण हुग्रा । तब भी नारी का अपमान हुआ । तब भी नारी की रक्षा करने वाले थे। ऐसा नहीं है कि निंदा करने वाले लोग आज ही हैं । राम के जमाने में भी कम निंदक नहीं थे । आज के लोग तो फिर कानों के पक्के होते हैं । पहले तो कानों के कच्चे हुना करते थे । भगवान राम तक ने एक धोबी की बात सुनकर सीता की अग्नि परीक्षा ले ली थी । एक पत्नी के प्रति पति को पूरा विश्वास नहीं रहा । त्रेता युग में नारियां महान हुआ करती थी, पति ने कहा अग्नि परीक्षा दो, तो वे ऐसा ही करके दिखाती थी । सीता ने कभी राम की अग्नि परीक्षा नहीं ली । इसलिए पुराने युगों को ही श्रेष्ठ कहना उचित न होगा । निदंक तब भी थे । युद्ध तब भी होते थे, आतंक और हिंसा तब भी थी । यज्ञ के नाम पर पशु ही नहीं, मानव बलि तक देने के प्रमाण हैं । त्रेता के राम की प्रांखों में आंसू का निर्भर बहता था जिससे सीता का प्रांचल भी करुणा से भीग जाता था । और जिसे हम द्वापर कहते हैं वह भी कम चर्चित नहीं था । सारा द्वापर नारी के बिखरे बालों में उलझ गया । ज्योति तो कम थी, धुम्रां अधिक उठता था जली मशालों में । उस द्वापर युग में जिसे हम भगवान कृष्ण का युग कहते हैं उसमें ज्योतियां कम जलीं, मशालों से धुम्रां अधिक उठा । कलयुग में पचास बुराइयां नजर आती हैं, लेकिन आज का मानव जितना प्रबुद्ध और समृद्ध हुआ है, ऐसा पहले कभी नहीं था । ( १३७ ) For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज एक बच्चा भी आपको अपने से ज्यादा अकलमंद नजर आएगा और ऐसा होता भी है, भले ही संस्कृति में पिछड़ जाएं, लेकिन हर नई पीढ़ी ज्ञान में अपनी पुरानी पीढ़ी से दो कदम आगे होती है । जो लोग सत्य को उपलब्ध करने के लिए कृत संकल्प हैं, उनके भीतर सतयुग अवतरित हुआ है । जो स्वयं के कल्याण के लिए काम रहा है, दूसरे का कोई भाव नहीं है, वह व्यक्ति द्वापर युग में जी रहा है । और जो आदमी सो रहा है, मूर्च्छा में है, वह वास्तव में कलयुग के नाम को चरितार्थ कर रहा है । एक ही व्यक्ति के जीवन में त्रेता, द्वापर और कलयुग संभावित है । मनुष्य की चेतना जग जाए, अगर मनुष्य समय को साध ले, उसके साथ मैत्री स्थापित कर ले, अगर व्यक्ति की चेतना सचेतन हो जाए तो आज के कलयुग में भी मनुष्य के लिए सतयुग है । कलयुग किताबों में होगा, अगर जाग हो तो श्राज ही सतयुग है । चरैवेतिचरैवेति- चलते रहो, बढ़ते रहो, यही जीवन का स्वर्णिम युगसूत्र है । अस्तित्व के प्रत्येक स्वभाव व परिवर्तन के साथ समय का भी अस्तित्व रहा है । समय की प्रासान - सी परिभाषा करनी हो तो हम कह सकते हैं कि समय का अर्थ है परिवर्तन- - बदलना । जो निरंतर परिवर्तनशील हो, वही समय । यही तत्व समय है । कोई भी काम करो, समय सगेगा । एक सांस भी लेनी हो तो समय लगेगा । आदमी सोचे कि समय के बगैर जी लूं, तो गलत सोचता है । एक शब्द बोलोगे तो भी समय लगेगा, सांस लोगे तो भी समय लगेगा । समय पर ही बीज अंकुरित होता है, समय पर ही प्रसव होता है । उत्पत्ति हो या संहार सबके पीछे समय है। न तो दुख सदा ( १३८ ) For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है और न सुख । कभी सुख तो कभी दुख । पहिये की तूलि की तरह । कभी नीचे का पहिया ऊपर, तो कभी ऊपर का पहिया नीचे । समय बदलता है, सबके भाग्य को ऊपर-नीचे करता फिरता है। समय के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। समय का पहला लक्षण ही यह है कि जो परिवर्तनशील हो । समय सबको बदल देता है, मगर स्वयं नहीं बदलता। सबकी मृत्यु घटित करेगा, लेकिन उसकी मृत्यु नहीं होगी। उसका न तो जन्म है और न ही मृत्यु । वह चिरंतन काल से है और चिरंतन काल तक रहेगा। समय का स्वभाव है परिवर्तन । औरों में परिवर्तन । कहींका वह दीप बुझाता है तो कहीं का दीप जलाता है। जलता दीप कब बुझ जाए, यह समय ही बता सकता है । भगवान बुद्ध ने एक सिद्धांत दिया-'क्षणभंगुरवाद' । हर चीज क्षणिक है । क्षण के साथ ही हर चीज क्षीण होती चली जाएगी। बुद्ध का 'क्षणभंगुरवाद' समय पर ही आधारित है। कोई चीच स्थायी नहीं है । सब चीजें खत्म हो रही हैं, बह रही हैं, निकल रही हैं, चल रही हैं । नदी बहती रहती है । दीपक की लौ जल रही है, वो हमें अखण्ड दिखाई देती है, लेकिन वास्तव में लौ हर क्षण पैदा हो रही है और मिट रही है । जन्म हो रहा है, मृत्यु हो रही है । सातत्य के कारण हमें इसका अहसास नहीं होता। दिये की तरह ही हमारी लौ भी खत्म होती जा रही है । जीवन ऐसे ही खत्म हो जाता है । समय खण्ड-खण्ड हो तो हमें दिखाई भी दे, लेकिन ऐसा नहीं है। उसमें जो सातत्य है, उसके कारण 'गैप' दिखाई नहीं देता। पंखा चल रहा हो तो क्या आप उसकी पंखुड़िया गिन कर बता सकते हैं, जब तक कि आपको पहले से मालूम न हो। इसी तरह समय है। खण्ड-खण्ड का इस में पता नहीं चलता । ( १३६ ) For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई भी परिवर्तन एकाएक नहीं होता । मकान बनाना शुरू करो तो एक दिन में नहीं बन जाता । कोई पौधा लगाओ तो वह एकाएक पेड़ नहीं बन जाता । उसमें समय लगता है । कोई व्यक्ति यह पता लगाना चाहे कि उसकी मूंछ के बाल किस दिन सफेद हुए तो वह पता नहीं लगा पाएगा। रात को सोकर सुबह उठते हैं तो सब कुछ पिछले दिन जैसा ही नजर आता है क्योंकि परिवर्तन बहुत सूक्ष्म होता है । घड़े में पानी भरा है और बूंद-बूंद रिस रही है । एक दिन पता चलता है कि अरे, इतना पानी खाली हो गया । मनुष्य के जीवन के मंगल कलश से भी जीवन पानी की एकएक बूंद की तरह रिस रहा है, लेकिन पता नहीं चलता । ऐसे ही क्रम रहता है और एक दिन घड़ा कलश खाली हो जाता है । मृत्यु हो जाती है । एक प्यारी सी घटना है । मैंने सुना है: एक सम्राट जब वृद्ध हो गए तो उनके मन में आया कि दुनिया भर के शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया जाए । उन्होंने पंडितों को बुलाकर कहा कि मैं शास्त्रों का ज्ञान पाना चाहता हूं, लेकिन मेरे पास समय नहीं है इसलिए आप सभी धर्मों का निचोड़ मेरे पास लाएं। सभी धर्मों का सार उन्हें कम-से-कम शब्दों में लिख कर दे दिया, लेकिन उनमें से कोई भी बात राजा को नहीं जमी । किसी ने उन्हें सुझाया कि नगर के बाहर एक फकीर बैठता है । वह बहुत कम बोलता है । हो सकता है वह आपकी समस्या हल कर दे । सम्राट इस फकीर के पास गए । सम्राट ने उनसे कहा कि आपको मैं क्या बता सकता हूं। मैंने तो कोई शास्त्र पढ़े ही नहीं । हां, जीवन का एक सूत्र मुझे मेरे गुरु ने दिया था कि जब ( १४० ) For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी संकट की घड़ी आ जाए और कोई राह न सूझे तो इस सूत्र को पढ़ लेना। मैंने वो सूत्र एक ताबीज में बांध रखा है, लेकिन मुझे कभी वो ताबीज खोल कर देखने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि कभी संकट की ऐसी खतरनाक धड़ी आई ही नहीं। आप इस ताबीज को ले जाइये। सम्राट वो ताबीज ले आया और उसे अपने बाजू पर बांध लिया। कई बार उस ताबीज को खोलकर देखने की इच्छा हुई, लेकिन वह टाल जाता। धीरे-धीरे सम्राट उस बात को भूल गया। समय बीतता चला गया। एक बार ऐसा हुआ कि सम्राट के पड़ोसी देश ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसके देश पर कब्जा कर लिया । सम्राट अपनी जान बचा कर भागा । उसके पीछे पड़ौसी देश के सैनिक थे । सम्राट की जान के लाले पड़े हुए थे। . घोड़े पर भागते-भागते सम्राट घने जंगल में एक ऐसी जगह पहुंच गया जहां से आगे पहाड़ी शुरू होती थी। अब क्या हो ? सम्राट ने सोचा 'अब तो प्राण जाएंगे, कोई नहीं बचा सकता। दुश्मन के सैनिकों के घोड़ों की टापे समीप पा रही थी। सम्राट लस्त-पस्त एक पेड़ के नीचे पड़ गया। उसका घोड़ा न जाने कहां चला गया । अब तो प्राण बचने का कोई रास्ता ही नहीं बचा । - एकाएक सम्राट को वो ताबीज याद आया। उसने ताबीज खोला तो भीतर एक छोटा सा पर्चा निकला जिस पर लिखा था 'यह समय भी बीत जाएगा।' सम्राट वह पढ़कर मन-ही-मन हंस पड़ा। और संयोग ऐसा हुआ कि दुश्मन के सैनिक सम्राट के कुछ ही दूरी से निकल गए। राजा के प्राण बच गए। सम्राट ने सोचाठीक ही तो लिखा है, यह समय भी बीत जाएगा, और खतरा वास्तव में टल गया था । ( १४१ ) For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जब वह फिर अपने सिंहासन पर बैठा और उसे राजमुकुट - पहनाया जाने लगा तो उसे फिर वो ताबीज याद आ गया। उसने पर्चा निकाल कर पढ़ा-लिखा था, 'यह समय भी बीत जाएगा।' इसके साथ ही सम्राट उदास हो गया । सभासदों ने पूछा-सम्राट ! क्या बात है ? सम्राट ने कहा कि 'एक समय मैं सम्राट था। फिर ऐसा समय भी पाया कि मैं घने जंगल में अपने प्राणों को बचाने के लिए दौड़ रहा था और आज फिर ऐसा समय है कि राजमुकुट मेरे सिर पर है। लेकिन यह समय भी तो बीत जाने वाला है, फिर मैं क्यों इतनी चिंता करू। सारे धर्मों का सार मुझे तो यही लगता है कि कोई भी समय एक जैसा नहीं रहता। यह भी बीत जाता है।' सम्राट के पांव जंगल की ओर बढ़ गये। राजमुकुट उस सिंहासन पर ही पड़ा रह गया। अगर मनुष्य इस सार सूत्र को जीवन में याद रखे तो उसकी तमाम परेशानियां दूर हो जाएंगी। गरीबी हो या अमीरी, समान भाव रखो। न तो दुःख में दुःखी रहो और न सुख में उछलते फिरो । दुख है तो यह समय भी गुजर जाएगा और सुख है, तो यह भी सदा नहीं रहेगा। दुःख में उदासी नहीं और सुख में अभिमान नहीं। समय की धारा शाश्वत है। यह तो चलती जाएगी। हर चीज क्षण-भंगुर है । परिवर्तनशील है। इतना काम है दुनिया में करने को कि दस-दस जनम भी कम पड़ते हैं लेकिन आज आप किसी से पूछो कि भाई फलां काम कर दो, तो उसका जवाब होगा'समय नहीं है।' रोजगार की तलाश है, काम चाहिए लेकिन काम करना अच्छा नहीं लगता। फुरसत में बैठे हैं, मक्खियां मार रहे हैं लेकिन काम करने को कहो तो 'समय नहीं है ।' गप्पे हांकने को ( १४२ ) For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय है। काम का काम करने को समय नहीं है, व्यर्थ का काम करने के लिए दिन भर खाली पड़े हैं । - आदमी के पास रोजी-रोटी की कमी है तो इसका एक कारण यह भी है कि काम करने की वास्तव में इच्छा नहीं है । आदमी कामचोर है। दुनिया में तीन तरह के चोर मिलेंगे - एक दौलत चोर, दूसरा चित्तचोर और तीसरा कामचोर । एक निकम्मा आदमी काम का आदमी हो सकता है, लेकिन एक कामचोर किसी काम का नहीं। जीवन की दुर्दशा का एक बड़ा कारण कामचोरी ही है । ऐसा आदमी समय की भी तो चोरी कर रहा है। समय बेकार जा रहा है। आदमी ताश खेलकर अपना समय काट रहा है। वह नहीं समझ रहा कि असल में समय उस आदमी का जीवन काट रहा है, जिसे वो चाहे तो बचा सकता है। सार्थक मूल्यों के लिए समय का उपयोग कर सकता है । मगर यहां इतना ध्यान कोई नहीं दे रहा । बेकार, बिना काम लोग किसी के यहां मेहमान बनकर चले जाते हैं, भले इससे सामने वाले को परेशानी का सामना ही करना पड़े। ऊपर से 'अतिथि' का पुछल्ला और । यू भी हिन्दुस्तान में 'अतिथि देवो भव' की परम्परा है। हमारे समय को नष्ट किया जाता है लेकिन हमें परम्परा के मारे उनका सम्मान करना पड़ता है । मैं यहां वास्तविक अतिथि की बात नहीं कर रहा । हमारी विडम्बना है कि सार्थक कामों में हमारा समय नहीं जाता, बेकार की बातों में ही हम समय गवां देते हैं। ऐसे लोग समय का अपमान कर रहे हैं। समय का अवमूल्यन करते हैं । अपना और हमारा, दोनों का समय नष्ट कर रहे हैं। इसलिए मैं यह सूत्र देना चाहता हूं कि 'समय को साधो, समय से लड़ो मत ।' साधो ( १४३ ) For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई, समय को साधो। समय का सही उपयोग यही होगा कि हम सार्थक कामों में, सार्थक बातों में उसका लाभ उठायें। , समय से जूझ कर कोई उसे नहीं साध पाया, भले ही वो सिकन्दर था या तीर्थंकर । सिकन्दर भी अपनी मृत्यु को एक क्षण आगे-पीछे नहीं कर सका। समय पर विजय तो कोई नहीं पा सकता, लेकिन उसे साधा जरूर जा सकता है। समय के साथ मैत्री जरूर की जा सकती है। जैसा समय चल रहा है, वैसा ही हम अपने आप में परिवर्तन करलें, समय की गुणवत्ता अहोभाव के साथ स्वीकार लें तो हम पर पड़ने वाली समय की मार हलकी हो जाएगी। ग्रादमी जब समय के विरुद्ध चलना चाहता है तभी समय की मार पड़ती है । आदमी समय को साधले तो वह कई दुश्चिताओं से अपने आप को बचा लेगा। आदमी का बुरा समय भी आसानी से गुजर जाएगा। लोग बुरा समय आने पर पंडित-मौलवी के पास जाते हैं, जादू-टोना करवाते हैं, लेकिन इनसे कोई फायदा न होगा । हकीकत तो यह है कि अगर मनुष्य का स्वार्थ न हो तो आज आपको मन्दिरों में जो थोड़ी-बहुत भीड़ नजर आती है, वह भी नजर नहीं आए। आदमी मंदिर इसीलिए जाता है कि उसकी गाड़ी चलती रहे । उसकी नैया न डूबे । मजे की बात तो यह है कि आदमी मन्दिर जाता है तो वहां भी शिकायत करता है। भगवान से प्रार्थना करता है कि अमुक को दो मंजिला मकान दे दिया, मेरा मकान एक मंजिला ही है। आदमी तो भगवान की जगह तक लेने को तैयार हो जाता है। वह भगवान से कहता है कि तुम्हारी जगह मुझे बिठा दो, मैं अपना तो उद्धार कर ही लूगा, तुम्हारा भी उद्धार कर दूंगा । असल में हर कोई अपना ही मला करने की सोचता है, उसे दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है । ( १४४ ) For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदमी पंच कल्याणक पूजा करता है तो वह कोई परमात्मा का कल्याण थोड़े ही करता है, वह तो अपना ही कल्याण करता है । मनुष्य स्वार्थी है। स्वार्थ ही उसके भाग्य का रोना है। वह समय के साथ नहीं, स्वार्थ के साथ चल रहा है । बेहतर होगा समय के साथ मैत्री कर लो। समय से शत्रुता रखकर किसी का भला नहीं हुआ। उससे दोस्ती करके जरूर वो आगे बढ़ सकता है, अपने तनाव कम कर सकता है। आवेग और प्रतिक्रिया पर नियन्त्रण पा सकता है। अगर आदमी समझ ले कि जो हो रहा है वो अच्छे के लिए हो रहा है तो उसका जीवन सफल हो जाए। यह सूत्र उसका जीवन बदल दे। जीवन की हजार समस्याएं हल हो जाएं । आप तो एक बात गांठ बांध लीजिए कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। किसी ने गाली दी, अच्छी बात है और किसी ने प्रेम दिया और भी अच्छी बात है। किसी ने चांटा मार दिया तो अपनी भी मौज, उसकी भी मौज, जाने उस में कौनसी भलाई छिपी हो । कोई आपकी बदनामी कर रहा है तो उसका भी आने वाले समय में अर्थ होगा। हो सकता है आज आपकी बदनामी करने वाला कल आपके चरणों में धोक लगाए । मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी, उसका सूत्र भी यही था। हुआ ऐसा कि एक बार किसी राजा की अंगुली कट गई। उसने राजसभा में आकर यह बात कही तो उनके मंत्री ने जवाब दिया-'कोई बात नहीं प्रभु, जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है।' राजा को बड़ा गुस्सा आया-'अरे मेरी अंगुली कट गई और तुम कहते हो, अच्छा हुआ, ? इसे जेल में डाल दिया जाए।' ऐसा ही हुआ। कुछ दिन पश्चात् राजा शिकार खेलने जंगल में गया। वहां सिपाही पीछे छूट गये और राजा अकेला पड़ गया । एकाएक उसे ( १४५ ) For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंगली लोगों ने पकड़ लिया। उन्होंने राजा की बलि देने की तैयारी की लेकिन तभी उनके गुरु ने कहा कि इसकी अंगुली कटी हुई है और बलि के लिए 'सम्पूर्ण' व्यक्ति चाहिए। यह सुनकर राजा की जान में जान आई। जंगलियों ने राजा को छोड़ दिया। राजा महल में पहुंचा और पहला आदेश यह दिया कि जेल में बंद मंत्री को छोड़ा जाए। जेल से निकल कर जब मंत्री सभा में पाया तो उसने देखा कि सिंहासन के ठीक ऊपर एक पट्टी पर लिखा था-'जो होता है अच्छे के लिए होता है।' वह मुस्कुराया। राजा ने उसे धन्यवाद दिया, लेकिन साथ ही पूछा 'मेरी अंगुली कटने से तो मेरी जान बची लेकिन तुम्हारे जेल जाने से तुम्हारा क्या फायदा हुआ ?' मंत्री धीरे से मुस्कुरा कर बोला-'मेरी तो जान बच गई, महाराज ! राजा ने पूछा-'वो कैसे ?' मंत्री ने जवाब दिया कि महाराज अगर मैं बाहर होता तो शिकार के समय आपके साथ जाना पड़ता और हो सकता है तब सम्पूर्ण मनुष्य देखकर मेरी बलि दे दी जाती।' जो आदमी बुरा होने पर भी सोचे कि अच्छा हुअा, उसके लिए सब अच्छ। है । भले ही समय उसके विपरीत चले, जिसके पास समय की चेतना है, समय का बोध है, वह व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी समय के साथ समझौता करता हुअा अपने जीवन को सुखमय बना लेगा। वह तनाव-मुक्त जीवन जीना सीख जाएगा । समय चाहे कैसा भी हो, आदमी उसके अनुसार अपने को ढालते हुए समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चले तो उसकी हजार समस्याएं ऐसे ही हल हो सकती हैं । निश्चित तौर पर समय उसको अपने से मुक्त कर देता है, मृत्यु से मुक्त कर देता है और मृत्यु से मुक्त होना ही मोक्ष है, जीवन का अमृत अमरत्व है। - ( १४६ ) For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जितयशा फाउंडेशन का उपलब्ध साहित्य स्वयं से साक्षात्कार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर मन-मस्तिष्क की ग्रंथियों को खोलने के लिए ध्यान-शिविर में दिये गये अमृत प्रवचन । पृष्ठ 146, मूल्य 10/विपश्यना और विशुद्धि : श्री चन्द्रप्रभ शरीर, विचार और भावों की उपयोगिता और विशुद्धि के मार्ग दरशाता एक अभिनव प्रकाशन । पृष्ठ 100, मूल्य 12/ज्योति कलश छलके : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जीवन-मूल्यों को ऊपर उठाने वाली एक प्यारी पुस्तक । भ० महावीर के सूत्रों पर विस्तृत विवेचन । पृष्ठ 160, मूल्य 20/ध्यान की जीवंत प्रक्रिया : विजय लक्ष्मी जैन ध्यान की सरल प्रक्रिया जानने के लिए बेहतरीन पुस्तक । ___ पृष्ठ 120, मूल्य 10/मनुष्य का कायाकल्प : श्री चन्द्रप्रभ मन और चेतना के विभिन्न पहलुओं से रूबरू करवाता श्रेष्ठ दिग्दर्शन । ध्यान-विधि सहित । पृष्ठ 200, मूल्य 25/अप्प दीवो भव : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन, जगत और अध्यात्म के विभिन्न आयामों को उजागर करता चिन्तन-कोष । पृष्ठ 112, मूल्य 15/चलें, मन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर सक्रिय एवं तनाव रहित जीवन प्रशस्त करने वाला एक मनोवैज्ञानिक युगीन ग्रन्थ । पृष्ठ 300, मूल्य 30/व्यक्तित्व-विकास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हमारा व्यक्तित्व ही हमारी पहचान है, तथ्य को उजागर करने वाला एक बाल मनोवैज्ञानिक प्रकाशन । पृष्ठ 112, मूल्य 10/ ( १४७ ) For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभावनाओं से साक्षात्कार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अस्तित्व की अनंत संभावनाओं से सीधा संवाद | पृष्ठ 92, मूल्य 10 /चेतना का विकास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर साधकों के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक, ध्यान योग की हर बारीकी का मनोवैज्ञानिक दिग्दर्शन । पृष्ठ 108, मूल्य 12/नांगन में आकाश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर तीस प्रवचनों का अनूठा आध्यात्मिक संकलन, जो आम आदमी को प्रबुद्ध करता है और जोड़ता है उसे अस्तित्व की सच्चाई से । पृष्ठ 200, मूल्य 20/ पृष्ठ 48, मूल्य 3 / - प्रेम के वश में है भगवान : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर इसे पढ़े बिना मनुष्य का प्रेम अधूरा है । जित देखूं तित तू : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अस्तित्व के प्रत्येक अणु में परमात्म-शक्ति को निहारने का प्रयत्न । पृष्ठ 32, मूल्य 2/ चलें, बन्धन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर बन्धन-मुक्ति के लिए क्रान्तिकारी सन्देश | वही कहता हूं : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर दैनिक समाचार-पत्रों में प्रकाशित स्तरीय प्रवचनांशों का संकलन । पृष्ठ 48, मूल्य 3 / - शिवोऽहम् : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन की ऊंचाइयों को श्रात्मसात् करने के लिए एक तनाव - मुक्त स्वस्थ मार्गदर्शन । पृष्ठ 100, मूल्य 10/ समय की चेतना : श्री चन्द्रप्रभ पृष्ठ 32, मूल्य 2/ समय के विभिन्न पहलुनों को छूती हुई एक असाधारण पुस्तक | पृष्ठ 148, मूल्य 15/महक तुम्हारी, ज्योति हमारी : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर इक्कीस सन्त कवियों के श्रेष्ठतम पदों का संकलन । पृष्ठ 32, ( १४८ ) For Personal & Private Use Only मूल्य 2/ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शून्य का संदेश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर रहस्य की पर्तों को उघाड़ती लधु-कथाएं । पृष्ठ 32, मूल्य 2/मन में, मन के पार : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर मन की ग्रन्थियों को समझाने और सुलझाने वाला एक स्वतन्त्र प्रकाशन । पृष्ठ 48, मूल्य 2/ताल बना सागर : कुसुमलता आंचलिया गणिवर श्री महिमाप्रभ सागरजी के प्रेरणास्पद जीवन का एक रंगीन और बेबाक आकलन । पृष्ठ 24, मूल्य 5/आत्म-दर्शन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर । अ.भा. विद्वत् परिषद् का प्रशस्त प्रकाशन । पृष्ठ 40, मूल्य 2/तुम मुक्त हो, प्रतिमुक्त : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर प्रात्म-क्रान्ति के अमृतसूत्र । पृष्ठ 100, मूल्य 7/रोम-रोम रस पीजे : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जीवन के हर कदम पर मार्ग दरशाते चिन्तन-सूत्रों का दस्तावेज । " पृष्ठ 88, मूल्य 10/ध्यान : क्यों और कैसे : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हमारे सामाजिक जीवन में ध्यान की क्या जरूरत है, इस सम्बन्ध में स्वच्छ राह दिखाती पुस्तक । . पृष्ठ 86, मूल्य 10/प्रेम और शांति : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर मन की शांति एवं सुख की उपलब्धि के लिए एक अमृत मार्गदर्शन । पृष्ठ 32, मूल्य 2/महक उठे जीवन-बदरीवन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर व्यक्तित्व के निर्माण एवं समाज के विकास के लिए बुनियादी बातों का खुलासा । पृष्ठ 32, मूल्य 2/तीर्थ और मंदिर : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर तीर्थ और मंदिर केवल श्रद्धास्थल हैं या कुछ और भी ? जानकारी के लिए पढ़िये यह पुस्तक । पृष्ठ 32, मूल्य 2/ ( १४६ ) For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृत-संदेश : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर सद्गुरु श्री चन्द्रप्रभ के अमृत-संदेशों का सार-संकलन । पृष्ठ 56, मूल्य 3/पर्युषण-प्रवचन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर पर्युषण-महापर्व के प्रवचनों को घर-घर पहुंचाने के लिए एक प्यारा प्रकाशन, पढ़ें कल्पसूत्र को अपनी भाषा में। पृष्ठ 120, मूल्य 10/ध्यान, प्रयोग और परिणाम : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर ध्यान के विभिन्न पहलुओं पर जीवन्त विवेचन । महावीर की निजी साधना-पद्धति का स्पष्टीकरण । पृष्ठ 112, मूल्य 10/धरती को बनाएं स्वर्ग : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर धर्म की आवश्यकता और नारी-जगत पर लगी बेतुकी पाबन्दियों पर साक्षात्कार । पृष्ठ 52, मूल्य 3/आत्मा की प्यास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन जागृति का अमृत संदेश देते प्रवचन । पृष्ठ 32, मूल्य 2/बिना नयन की बात : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अध्यात्म-पुरुष श्रीमद् राजचन्द्र के प्रमुख पदों पर मानक प्रवचन । पृष्ठ 100, मूल्य 10/बूझो नाम हमारा : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर योगीराज आनंदघन के पदों पर किया गया मनोवैज्ञानिक विवेचन । पृष्ठ 68, मूल्य 4/भगवत्ता फैली सब ओर : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर कुन्दकुन्द की गाथाओं पर मार्मिक उद्भावना । पृष्ठ 100, मूल्य 10/सहज मिले अविनाशी : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर पंतजलि के प्रमुख योग-सूत्रों पर पुनर्प्रकाश । पृष्ठ 92, मूल्य 10/ ( १५० ) For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर के पट खोल : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर पंतजलि के महत्वपूर्ण दस सूत्रों पर पुनर्प्रकाश : योग की अनूठी पृष्ठ 112, मूल्य 7 / पुस्तक । हंसा तो मोती चुगं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर महावीर के अध्यात्म - सूत्रों पर सामयिक प्रवचन | पृष्ठ 88, मूल्य 10/ श्रायार-सुत्तं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर एक आदर्श धर्म-ग्रंथ का मूल एवं हिन्दी अनुवाद के साथ अभिनव प्रकाशन | विज्ञान एवं चिन्तन के क्षेत्र में एक खोज । पृष्ठ 260 / - मूल्य 30 / समवाय- सुत्तं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर विश्वविद्यालय - पाठ्यक्रम मूलानुगामी अनुवाद | के स्तर पर समवायांग का सीधा-सपाट पृष्ठ 318, मूल्य 30/ चन्द्रप्रभ जीवन और साहित्य : डॉ. नागेन्द्र महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जी की साहित्यिक सेवाओं का विस्तृत लेखा-जोखा | पृष्ठ 160, मूल्य 15/ जय सम्मेतशिखर : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जैन तीर्थं सम्मेतशिखर जी के इतिहास एवं विकास पर ब्यौरा । पृष्ठ 32, मूल्य 5/ उपाध्याय देवचन्द्र : जीवन, साहित्य और विचार : श्री ललितप्रभ श्रीमद् देवचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रशस्त प्रकाश डालने वाला शोध-प्रबन्ध | पृष्ठ 320, मूल्य 50/ विश्व संस्कृत-सूक्ति कोश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर संस्कृत वाङ्गमय की सूक्तियों का एनसाइक्लोपीडिया, तीन खण्डों में आकलन | पृष्ठ 1000, मूल्य 300 / ( १५१ ) For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी सूक्ति- सन्दर्भ कोश : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हिन्दी के सुविस्तृत साहित्य से सूक्तियों का ससन्दर्भ संकलन, दो भागों में । पृष्ठ 750, मूल्य 100/ पंच संदेश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर कालजयी सूक्तियों पृष्ठ 32, मूल्य 2 / का अनूठा सम्पादन । मेडिटेशन एण्ड एनलाइटमेंट : श्री चन्द्रप्रभ ध्यान और समाधि के विभिन्न पहलुओं पर मनन और विश्लेषण : विदेशों में भी बेहद प्रसारित । पृष्ठ 108, मूल्य 15/ लाईट-टू-लाईट : श्री चन्द्रप्रभ आत्म-दर्शन के लिए 'माइल - स्टॉन' । विश्व के दूर-दराज तक फैली पुस्तिका । पृष्ठ 92, मूल्य 10/ द प्रिजविंग ऑफ लाइफ : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर चेतना - विकास के हर पहलू पर प्रकाश । आज ही लिखें और अपना ऑर्डर भेजें । धनराशि श्री जितयशाश्री फाउंडेशन (SRI JIT YASHA SHREE FOUNDATION) कलकत्ता के नाम पर बैंक ड्राफ्ट या मनीआर्डर द्वारा भेजे । पृष्ठ 100, मूल्य 10 / श्री जितयशाश्री फाउंडेशन 9-सी, एस्प्लनेड रो ईस्ट ( रूम नं. 28 ) कलकत्ता-700069 दूरभाष : 220-8725 ( १५२ ) For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का हर क्षण जीवन का स्वर्ण-कण है। हर मनुष्य को समय का बोध और समय की चेतना होनी चाहिये। समय का पाबंद होना स्वयं पर स्वयं का शासन है। जो यह सोचते हैं कि अभी तो समय बहुत है, वे जीवन की वर्तमान उपलब्धियों से वंचित रह जाते हैं / धन्य तो वे हैं, जो शुभ और सार्थक को कल पर टालने की बजाय आज ही करने में विश्वास रखते हैं। For Personal & Private Use Only