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जाये, विश्वास के चरण श्रद्धा की ओर बढ़ जाये, तो मन मंदिर की रोशनाई कुछ और ही निखार लाएगी । विश्वास और श्रद्धा में कुछ फर्क है, उतना ही जितना बुद्धि और हृदय में ।
विश्वास सुन्दर मस्तिष्क की देन है और श्रद्धा सुन्दर हृदय की देन है । मस्तिष्क सुन्दर बना, अच्छी बात है लेकिन हृदय सुन्दर बना तो समझो सम्यक् दर्शन को प्राप्त करने का मार्ग खुला है । मस्तिष्क विकसित हुआ, अच्छी बात है, लेकिन हृदय विकसित हुआ तो यह जीवन में अहोभाग्य की बात है ।
इस बौद्धिक युग में दिमाग तो हर किसी का विकसित होता है । लेकिन हृदय विकसित नहीं होता । मैं उन्हीं लोगों से प्रभावित होता हूं जिनका हृदय विकसित होता है, सुन्दर होता है । जो लोग मस्तिष्क से सुन्दरता दिखाएंगे उनकी वाणी में चातुर्य होगा, पाण्डित्य होगा लेकिन सत्यता नहीं होगी । और सत्यता के अभाव में परमात्मा कभी मस्तिष्क में नहीं बस सकता परमात्मा तो हृदय में रहता है । हृदय में भी वह तब प्रकट होगा जब हृदय सरलता से परिपूर्ण होगा ।
जिसका हृदय सुन्दर होगा, उसका परमात्मा भी सुन्दर होगा और जिसका हृदय विकृत होगा, उसका परमात्मा भी विकृत होगा । तब उसे परमात्मा नहीं, शैतान कहेंगे । लोग उसे शैतान कहेंगे । लोग उससे बचना चाहेंगे । परमात्मा का निवास स्थान हृदय का मन्दिर है । परमात्मा मानवीय हृदय की आखिरी ऊंचाई है । शैतान मानवीय मन की आखिरी सीढ़ी है । 'विश्वास' और 'श्रद्धा' दो अलग-अलग शब्द हैं । विश्वास तो ऐसे है जैसे बाजार से खरीदे गए नकली । फूल ये फूल बाजार में ही मिलेंगे लेकिन 'श्रद्धा' का फूल मनुष्य को अपने भीतर के गमले में ही उगाना पड़ता है । आप किसी की पूजा करते
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