________________
तो भाग भी सकता है. पुलिसवाला वहां से नहीं हट सकता । अपनेअपने बंधन हैं ।
आदमी कहता है, क्या करू संन्यास तो ले लू ं, लेकिन मेरे घरवालों से पूछो तो वे कहेंगे, कल का घर वालों ने नहीं बांध रखा । श्रादमी
।
परिवार का क्या होगा ? लेता आज ही संन्यास ले ले खुद ही बंधा हुआ है । यही परिग्रह है । अब तक यही समझा गया कि रुपयों का परिग्रह ही परिग्रह है । मैं कहता हूं, आदमियों का परिग्रह भी परिग्रह ही है । और आदमी बंध भी जाता है ।
तीसरी बात यह है कि आदमी कितना भी बटोर ले, उसे तृप्ति नहीं होती । अपरिग्रह के सम्बन्ध में तीन बिन्दु हमेशा याद रखें। पहली बात, आत्मा कोई वस्तु नहीं है कि इसे किसी वस्तु से भरा जा सके । दूसरी बात, आदमी जब किसी चीज को बांधता है तो खुद भी उससे बंध जाता है । तीसरी बात, जो आदमी अपना मालिक बन गया वही वास्तव में अपरिग्रही है ।
आप संपूर्ण इतिहास उठाकर देख लें, प्रादमी ने जितना भी पाया, उससे उसका मन नहीं भरा । मन का पात्र तो रीता ही रहा । आप कितना भी बटोर लें, मन और बटोरने की बात करेगा । जब तक कोई वस्तु नहीं मिलती, उसकी उत्सुकता बनी रहती है और जैसे ही वह वस्तु मिल जाती है, उसको पाने का मजा भी जाता रहता है । जब तक शादी नहीं हुई थी, पत्नी की चाह थी। शादी हो गई तो पुत्र की चाह पैदा हो गई । पहले स्कूटर की चाह थी, स्कूटर मिल गया तो कार की इच्छा होने लगी । यही तो व्यक्ति की परिग्रह की बुद्धि है । हमें वस्तुत्रों को नहीं, उनके परिग्रह के विचार को छोड़ना है । यह भावना चली गई तो भले हो अगल-बगल सारी
Jain Education International
( १०३ )
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org