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लेकिन मालिक को कोई नहीं खरीद सकता। वे मन के मालिक होते हैं। मन के मौजी। अपना मालिक खुद ।
दूसरों को गुलाम वे बनाते हैं जो अपने मालिक नहीं हो पाते। पहला सूत्र यही है अपरिग्रह का। परिग्रह वो रखना चाहता है जो अपनी आत्मा को नहीं भर पाया। प्रात्मा को भला भरा जा सकता है ? दूसरी मूलभूत बात यह है कि अपरिग्रह को आचरण में लाने के लिए कई त्याग करने पड़ते हैं। जब आदमी परिग्रह के नाम पर किसी से अपने को बांधता है तो खुद भी उससे बंध जाता है । जिसे हम बांधते हैं, वह नहीं बंधती। हम खुद उससे बंध जाते हैं । आपने लाख रुपये बटोरे तो आप उस लाख रुपये से बंध गए। आपकी नींद हराम हो जाती है कि कैसे ये एक लाख रुपये दो लाख में बदल जाएं । आदमी जिस चीज को बांधना चाहता है, वो भले ही उससे बंधे, या न बंधे, परंतु आदमी जरूर उससे बंध जाता है ।
एक फकीर हुआ है बायजीद । एक बार वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि एक व्यक्ति मोटे तगड़े बैल को रस्सी से बांध कर, खींच कर कहीं ले जा रहा था। उसने साथ चल रहे अपने शिष्यों से कहा कि बतायो गुलाम कौन है ? शिष्यों ने तुरंत जवाब दिया- 'बैल, और कौन ?' बायजींद ने उस रस्सी को काट दिया । अब बैल भागने लगा और आदमी उसके पीछे । बायजीद बोला'बताओ गुलाम कौन ?' असल में वो आदमी उस बैल से बंधा है। बैल के बंधी रस्सी तो आपको नजर आती है लेकिन बैल ने जिस रस्सी से आदमी को बांध रखा है, वो दिखाई नहीं देती।
एक चोर सींखचों के पीछे बंद है। पुलिस वाला खुला बैठा है। लेकिन गहराई में जानो तो पुलिसवाला भी स्वतंत्र नहीं है । चोर
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