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________________ है। कई दिशाओं में जाकर पा जाता है लेकिन उस दिशा में नहीं जाता, जो उसके भीतर जाती है। आप स्वयं को ही ढूढने का प्रयत्न करोगे तो पायोगे, सारी संभावनाएँ तो हमारे भीतर छिपी हैं । आप विचार करेंगे तो पता चलेगा कि अभी आप जितने बड़े हैं, पैदा उतने बड़े नहीं हुए थे। युवक से पहले बच्चे थे, बच्चे से पहले माँ के गर्भ में थे और उससे पहले एक अण थे, आत्मा के रूप में थे । हम अपने जीवन के अतीत का स्मरण करते हैं तो पाते हैं कि हम क्या थे और क्या हो गए। क्या जन्म से पहले ही मैं गोपाल, रमेश या महेश था । यह नाम तो इस दुनिया में आने के बाद हमें मिला है। यह आरोपित नाम है। यह आरोपण ही हमारा मिथ्यात्व है । आदमी ने किसी नाम से तादात्म्य स्थापित कर लिया है। अपने स्रोत को भूल गया है। गंगा को हम बहता हुआ देखते हैं लेकिन उसके मूल स्रोत की ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है । गंगा से गंगोत्री की ओर बढ़ेगे तो हमें गौमुख के दर्शन होंगे। यात्रा तो करनी पड़ेगी। इसी तरह परमात्मा को अपने भीतर ही ढूढना होगा, जहाँ वो आसीन है । उसे देखने के लिए अन्त दृष्टि की जरूरत है। उस परमात्मा के प्रागे जाकर प्रार्थना जरूर करना जिसे हमने बनाया है, लेकिन अपने भीतर बैठे परमात्मा को मत भूलना । उसी ने तो हम सभी का निर्माण किया है। उसके सामने जाकर प्रार्थना कीजिएगा, अपनी पवित्रताओं को दोहराइएगा। वस्तुतः तो प्रार्थना उस परमात्मा की हो, जिसने हमारा सृजन किया है। हम सभी परमात्मा के पुजारी हैं, लेकिन उसके प्रति प्यास नहीं जगी। कहीं पढ़ा, किसी से सुना और पूजने लगे। अपनी कोई जिज्ञासा नहीं । एक महिला मंदिर में अपने बच्चे को ले गई । वहाँ ( ८८ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003889
Book TitleSamay ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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